बढती अबादी ने खडी कर दी है मुसीबत
हर जगह कतार
वर्ष 2001 में सरकार ने जो जनगणना करायी थी, उसमें लखनऊ जिले की
आबादी करीब 36 लाख थी, जो आगामी दस साल
में बढ़कर 45 लाख को पार कर गयी।
अगर मौजूदा समय की बात करें तो अनुमानित आबादी पचास लाख के आंकड़े को भी पार कर
गयी है। यानी प्रत्येक वर्ष आबादी में करीब एक लाख की बढ़ोतरी। जिस तरह से हमारी
आबादी बढ़ रही है उससे साफ है कि आने वो दिनों में इतनी बड़ी संख्या में लोगों के
लिए जरूरी संसाधन मुहैया कराना आसान नहीं होगा। शहरीकरण तेजी के साथ हो रहा है
जिसके कारण आसपास के खेत और खलिहान के साथ-साथ तालाब और झीलें भी खत्म होते जा रहे
हैं। कृषि विभाग के आंकड़े भी चिंतित करने वाले हैं।1राजधानी में अब
केवल एक लाख हेक्टेयर जमीन ही खेती लायक बची है। बाकी 1.15 लाख हेक्टेयर जमीन
खेती के लायक नहीं है। ऐसे में जिस तरह लोगों को आवास उपलब्ध कराने के लिए सरकारी
विभागों से लेकर प्राइवेट बिल्डर और रियल स्टेट कंपनियां अपने पैर पसार रही है आगे
खेती लायक जमीन ही बचना मुश्किल है।बढ़ती जनसंख्या का बोझ सड़कों पर आये दिन महसूस
किया जा सकता है। वाहनों की बढ़ती कतारों के बीच आम शहरी घंटों जाम में फंसा रहने
पर मजबूर है। इसी तरह अस्पतालों में ओपीडी में लगने वाली लंबी लाइने भी लोगों को
परेशान कर रही हैं। यही नहीं लोगो की जरूरतों को पूरा करने के लिए जिस तरह से
बेहिसाब प्रकृति का दोहन हो रहा है उससे प्रदूषण का स्तर बेहद खतरनाक स्थिति पर
पहुंच रहा है। जाहिर है संसाधनों को पूरा करने में तमाम बातों की अनदेखी हो रही है
और तमाम मानक धूल में उड़ाए जा रहे हैं।
इलाज के लिए वेंटिंग
बीमारी का बढ़ता प्रकोप कहें या जनसंख्या का दबाव। राजधानी के
अस्पतालों में बढ़ती कतारों से स्वास्थ्य सेवाएं कराह रही हैं। ओपीडी हो या ओटी हर
जगह इलाज में इंतजार है। राजधानी के अस्पतालों में गत वर्ष की अपेक्षा इस साल 10 से 15 फीसद मरीज ओपीडी में
बढ़े हैं। बलरामपुर अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक डॉ. बीकेएस चौहान के मुताबिक वर्ष
2016 में ओपीडी में हर माह लगभग 80 हजार के करीब मरीज
आते थे। वहीं इस बार हर माह का आंकड़ा 93 हजार के लगभग पहुंच चुका है। वहीं सिविल अस्पताल के
चिकित्सा अधीक्षक डॉ. आशुतोष दुबे के मुताबिक गत वर्ष हर माह अस्पताल में 55 से 60 हजार मरीज ओपीडी में
आते थे। इस बार मरीजों की संख्या प्रतिमाह 75 हजार के करीब हो गई है। ऐसे ही लोहिया अस्पताल में
भी पहले जहां 38 हजार हर माह ओपीडी थी, वहीं अब 45 से 50 हजार हर माह हो गई है। अस्पतालों में सामान्य
मरीजों की संख्या ही नहीं बढ़ी है। बल्कि इंडोर व इमरजेंसी में गंभीर मरीजों की
तादाद में भी इजाफा हुआ है, लिहाजा संस्थानों में सर्जरी के लिए महीनों की
वेटिंग चल रही है।बीमारी का बढ़ता प्रकोप कहें या जनसंख्या का दबाव। राजधानी के
अस्पतालों में बढ़ती कतारों से स्वास्थ्य सेवाएं कराह रही हैं। ओपीडी हो या ओटी हर
जगह इलाज में इंतजार है। राजधानी के अस्पतालों में गत वर्ष की अपेक्षा इस साल 10 से 15 फीसद मरीज ओपीडी में
बढ़े हैं। बलरामपुर अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक डॉ. बीकेएस चौहान के मुताबिक वर्ष
2016 में ओपीडी में हर माह लगभग 80 हजार के करीब मरीज
आते थे। वहीं इस बार हर माह का आंकड़ा 93 हजार के लगभग पहुंच चुका है। वहीं सिविल अस्पताल के
चिकित्सा अधीक्षक डॉ. आशुतोष दुबे के मुताबिक गत वर्ष हर माह अस्पताल में 55 से 60 हजार मरीज ओपीडी में
आते थे। इस बार मरीजों की संख्या प्रतिमाह 75 हजार के करीब हो गई है। ऐसे ही लोहिया अस्पताल में
भी पहले जहां 38 हजार हर माह ओपीडी थी, वहीं अब 45 से 50 हजार हर माह हो गई है। अस्पतालों में सामान्य
मरीजों की संख्या ही नहीं बढ़ी है। बल्कि इंडोर व इमरजेंसी में गंभीर मरीजों की
तादाद में भी इजाफा हुआ है, लिहाजा संस्थानों में सर्जरी के लिए महीनों की
वेटिंग चल रही है
पर्यावरण को खतरा
दशकों में शहर की आबादी ही नहीं बढ़ी इससे जुड़ी समस्याएं भी
बढ़ी हैं। लोगों के रहने के लिए अतिरिक्त जगह की तलाश में कृषि भूमि पर कंक्रीट के
जंगल खड़े होते गए। खुली स्थानों पर मकान नजर आने लगे। वाहनों की संख्या बढ़ने से
सड़के सिकुड़ती गईं। सड़क चौड़ीकरण के कारण हरियाली पर आरी चलानी पड़ी। हरियाली तो
खत्म हुई साथ ही वाहनों की संख्या बेतहाशा बढ़ गई। नतीजा यह हुआ कि हवाएं जहरीली
हो गईं। केवल हवाएं ही दूषित नहीं हो रही है वाहनजनित शोर ने लोगों को बहरा कर दिया
है। सीवेज का उपचार न होने के कारण नदी प्रदूषित हो गई। व्जमीन की कोख खाली होती
गई। आज पर्यावरण के समक्ष चौतरफा चुनौती खड़ी हो गई है। आबादी बढ़ने से प्राकृतिक
संसाधन ही नहीं चुक रहे हैं आदमी की सेहत भी खराब हो रही है।दशकों में शहर की
आबादी ही नहीं बढ़ी इससे जुड़ी समस्याएं भी बढ़ी हैं। लोगों के रहने के लिए
अतिरिक्त जगह की तलाश में कृषि भूमि पर कंक्रीट के जंगल खड़े होते गए। खुली
स्थानों पर मकान नजर आने लगे। वाहनों की संख्या बढ़ने से सड़के सिकुड़ती गईं। सड़क
चौड़ीकरण के कारण हरियाली पर आरी चलानी पड़ी। हरियाली तो खत्म हुई साथ ही वाहनों
की संख्या बेतहाशा बढ़ गई। नतीजा यह हुआ कि हवाएं जहरीली हो गईं। केवल हवाएं ही
दूषित नहीं हो रही है वाहनजनित शोर ने लोगों को बहरा कर दिया है। सीवेज का उपचार न
होने के कारण नदी प्रदूषित हो गई। व्जमीन की कोख खाली होती गई। आज पर्यावरण के
समक्ष चौतरफा चुनौती खड़ी हो गई है। आबादी बढ़ने से प्राकृतिक संसाधन ही नहीं चुक
रहे हैं आदमी की सेहत भी खराब हो रही है।
पानी का संकट
बढ़ती आबादी ने पेयजल संकट भी खड़ा कर दिया है, जिस तेजी से आबादी
बढ़ी, उसने संसाधनों को भी पीछे छोड़ दिया है। सुबह से पानी को लेकर
मचने वाली किल्लत के पीछे लखनऊ में बढ़ती भीड़ भी है। बढ़ती मांग के साथ ही पानी
का संकट गहराता जा रहा है। कानून व्यवस्था पर पानी संकट चुनौती बन जाता है।शहर की पेयजल
आपूर्ति 1’45 लाख की आबादी
-मानक 150 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन
-पानी की मांग : ’887.6 एमएलडी (मिलीयन लीटर
डेली)
-पानी का उत्पादन 818.6 एमएलडी
-वास्तविक जलापूर्ति 654 .88 एमएलडी
-मानक के अनुसार पानी की कमी 20.12 एमएलडी
बढ़ती आबादी
ने पेयजल संकट भी खड़ा कर दिया है
पेट्रोल अर डीजल की कमी
आबादी और वाहनों की संख्या बढ़ने के साथ ही राजधानी में
पेट्रोल-डीजल की खपत में भी दस प्रतिशत के हिसाब से हर वर्ष इजाफा हो रहा है। पांच
वर्ष में बढ़ते-बढ़ते यह मांग लाखों लीटर रोजाना के आंकड़े पर पहुंच गई है। 1पेट्रोल डीलर्स
एसोसिएशन के महासचिव सुधीर बोरा के अनुसार राजधानी में शहर और ग्रामीण क्षेत्र
मिला कर 202 पेट्रोल पंप हैं। जहां पर लाखों लीटर रोजाना पेट्रोल-डीजल की
खपत होती है। वहीं टैंकर संचालकों के अनुसार इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम और
हिन्दुस्तान पेट्रोलियम की डिपो से पांच सौ के करीब टैंकरों से आपूर्ति की जाती
है। इसमें से डेढ़ सौ के करीब टैंकर राजधानी में तेल की आपूर्ति करते हैं। इनकी
संख्या वर्ष- 2012 में करीब 118 थी। तेल की खपत के साथ ही टैंकरों की संख्या में भी
इजाफा हुआ है।
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