सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

कैंसर संस्थान वेतन असमानता से बढ़ रहा पलायन, मरीजों के इलाज पर संकट

 

आठ साल में 27 डॉक्टर और 37 नर्सिंग स्टाफ ने छोड़ा कैंसर संस्थान


वेतन असमानता से बढ़ रहा पलायन, मरीजों के इलाज पर संकट


पीजीआई और केजीएमयू ने भी लगातार पलायन


कैंसर संस्थान नियुक्ति के बाद भी नहीं कर रहे है ज्वाइन


उत्तर प्रदेश में सरकारी चिकित्सा संस्थानों से डॉक्टरों का पलायन लगातार बढ़ता जा रहा है। संजय गांधी पीजीआई और केजीएमयू के बाद अब कल्याण सिंह सुपर स्पेशियलिटी कैंसर संस्थान भी इसी गंभीर स्थिति से गुजर रहा है। साल 2017 में प्रदेश के कैंसर मरीजों को समर्पित इस संस्थान की स्थापना बड़े उद्देश्य के साथ हुई थी, लेकिन आठ साल में 27 डॉक्टर, 37 नर्सिंग ऑफिसर और 5 पैरामेडिकल स्टाफ यहाँ से इस्तीफा दे चुके हैं।इससे कई विभाग या तो बंद हो चुके हैं या न्यूनतम स्टाफ के सहारे चल रहे हैं।


कैंसर संस्थान में बड़े सुविधा तो दूसरे संस्थानों पर काम हो भार

 विशेषज्ञों का कहना है कि कैंसर संस्थान पूरे क्षमता के साथ काम करें तो पीजीआई , केजीएमयू में कैंसर मरीजों का लोड कम होगा दूसरे मरीजों का इंतजार कम होगा। पेट के कैंसर,  यूरोलॉजिकल कैंसर , हेड एंड नेक कैंसर( मुंह और गले), प्लास्टिक सर्जरी, ब्लड कैंसर . गायनेकोलॉजिकल कैंसर के मरीजों की भीड़ इन संस्थानों में है जिससे नॉन कैंसर बीमारी के इलाज के लिए मरीजों को इंतजार करना पड़ता है ।   विशेषज्ञों का अनुमान है कि अब लगभग हर तीन वर्ष में एक से दो वरिष्ठ डॉक्टरों का इस्तीफा आम हो चुका है।यह प्रवृत्ति न केवल संस्थानों की सेवाओं को प्रभावित कर रही है, बल्कि प्रदेश की कैंसर चिकित्सा व्यवस्था के भविष्य पर भी गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा कर रही है।



 


 


भर्ती निकली, पर जॉइन कम


 पिछले वर्ष कैंसर संस्थान में 91 चिकित्सकों की भर्ती के लिए विज्ञापन जारी हुआ, लेकिन केवल 140 आवेदन आए और इनमें से 21 डॉक्टरों का चयन हुआ।इनमें से भी कुछ ने जॉइन नहीं किया।संस्थान के एक वरिष्ठ चिकित्सक के अनुसार “हमारा वेतनमान एसजीपीजीाई, केजीएमयू और लोहिया संस्थान से काफी कम है। एक ही शहर में समान कार्य के बावजूद इतनी वेतन असमानता क्यों? डॉक्टर आखिर कब तक समझौता करेंग। 


 


वेतनमान बदलने से बिगड़ी स्थिति


 


संस्थान की स्थापना के समय डॉक्टरों और स्टाफ को एसजीपीजीआई के समान वेतनमान देने का प्रावधान था। कुछ नियुक्ति पत्रों में यह स्पष्ट रूप से लिखा भी गया था।लेकिन कुछ वर्षों बाद यह व्यवस्था बदल दी गई और राज्य सरकार का सामान्य वेतनमान लागू कर दिया गया।इससे डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ के वेतन में 20–30% तक की कमी आ गई। भत्ते और सविधाएं कम हो गए।नतीजा यह हुआ कि कई डॉक्टरों ने या तो निजी अस्पतालों में नौकरी ले ली या अन्य सरकारी संस्थानों में चले गए।“अगर वही वेतनमान जारी रहता, तो शायद कोई भी डॉक्टर संस्थान न छोड़ता,” — एक वरिष्ठ डॉक्टर।


 


वेतन के मामले में केजीएमयू और लोहिया से पीछे कैंसर संस्थान


 


कैंसर संस्थान के डॉक्टरों को केजीएमयू और लोहिया संस्थान की तुलना में औसतन 20–30% कम वेतन मिलता है।


साथ ही, नाइट ड्यूटी अलाउंस, पेशेंट केयर अलाउंस, रिसर्च इंसेंटिव और हाउसिंग भत्ता जैसी सुविधाएं भी सीमित हैं।


जहाँ प्रोफेसर स्तर के डॉक्टरों को केजीएमयू या लोहिया में लगभग ₹3 लाख मासिक वेतन मिलता है, वहीं कैंसर संस्थान में यह ₹2 लाख या उससे कम है।समान काम के बावजूद वेतन और सुविधाओं में यह असमानता डॉक्टरों के बीच असंतोष का मुख्य कारण है।


 


मशीनों उपकरणों और भवन से नहीं चलता है संस्थान


 


संस्थान के सर्जरी, रेडियोलॉजी, मेडिकल ऑन्कोलॉजी, एनेस्थीसिया, प्लास्टिक सर्जरी, क्रिटिकल केयर मेडिसिन और ईएनटी जैसे विभाग डॉक्टरों की कमी से जूझ रहे हैं।कुछ विभाग तो लगभग ठप हो चुके हैं।संस्थान में अत्याधुनिक मशीनें आ चुकी हैं, लेकिन डॉक्टरों की अनुपलब्धता के कारण उनका पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा।300 बेड वाले अस्पताल में रोजाना लगभग 400 मरीज ओपीडी में आते हैं, लेकिन सीमित स्टाफ के कारण मरीजों को इलाज के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है।


 


निजी अस्पतालों का आकर्षण


 


निजी अस्पताल डॉक्टरों को सरकारी संस्थानों के मुकाबले तीन गुना तक अधिक वेतन, बेहतर आवास, आधुनिक उपकरण और कम प्रशासनिक झंझट देते हैं।इस कारण कई अनुभवी डॉक्टर सरकारी नौकरी छोड़ निजी क्षेत्र में जा रहे हैं।सरकारी संस्थानों में सीमित वेतन, अत्यधिक कार्यभार और प्रशासनिक दबाव के कारण डॉक्टरों में निराशा बढ़ रही है।


 


सरकारी लक्ष्य पर असर


 


मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस संस्थान को एम्स और टाटा हॉस्पिटल की तर्ज पर विकसित करने का लक्ष्य रखा था।


लेकिन लगातार हो रहे पलायन के कारण यह सपना अधूरा दिख रहा है।


विशेषज्ञों का कहना है कि अगर स्थिति में सुधार नहीं हुआ, तो प्रदेश के कैंसर मरीजों को दिल्ली या मुंबई जैसे शहरों का रुख करना पड़ेगा।


 


डॉक्टरों की मांग: समान वेतन और सम्मानजनक कार्य वातावरण


 


डॉक्टरों ने सरकार से मांग की है कि कैंसर संस्थान को भी केजीएमयू और लोहिया संस्थान के समान वेतनमान व भत्ते दिए जाएँ।


साथ ही, प्रशासनिक दखल और अनावश्यक दबाव को कम किया जाए ताकि डॉक्टर स्वतंत्र और सुरक्षित माहौल में काम कर सकें।


 “वेतन तो ज़रूरी है, लेकिन सम्मान और निर्णय की स्वतंत्रता उससे भी बड़ी चीज़ है,” — संस्थान के एक संकाय सदस्य ने कहा।


 


PGI और KGMU में भी जारी पलायन


 


सिर्फ कैंसर संस्थान ही नहीं, संजय गांधी पीजीआई और केजीएमयू में भी वरिष्ठ डॉक्टर लगातार इस्तीफा दे रहे हैं।


हाल ही में PGI के 12 और KGMU के 10 से अधिक संकाय सदस्य संस्थान छोड़ चुके हैं।अनुभवी डॉक्टरों के जाने से इलाज की गुणवत्ता और शोध कार्य दोनों पर असर पड़ रहा है।


 


मुख्य कारण और प्रवृत्ति


 



 


अत्यधिक कार्यभार और सीमित स्टाफ


 


 


प्रशासनिक दबाव और निर्णय प्रक्रिया में दखल


 


कार्य वातावरण में असंतोष और मनोवैज्ञानिक तनाव


 


 समान वेतन न मिलने से नाराज़गी, निजी अस्पतालों में तीन गुना वेतन


 


प्रशासनिक दबाव और दखल भी पलायन का बड़ा कारण

रविवार, 26 अक्टूबर 2025

​माँ में थायरॉइड हार्मोन की कमी गर्भस्थ शिशु के जीवन पर खतरा

 

 ​माँ में थायरॉइड हार्मोन की कमी गर्भस्थ शिशु के जीवन पर खतरा

​तीन गुना बढ़ जाती है साँस लेने की तकलीफ की आशंका

​समय से पहले प्रसव और नवजात पर गंभीर असर

​– समय पर थायरॉइड जाँच और इलाज से नवजात की सेहत में सुधार संभव

​कुमार संजय

​नवजात शिशुओं की सेहत को लेकर एक नया अध्ययन चेतावनी दे रहा है। शोध में खुलासा हुआ है कि गर्भवती महिलाओं में थायरॉइड हार्मोन की कमी, यानी हाइपोथायरॉइडिज़्म, समय से पहले प्रसव (प्रीटर्म लेबर) और नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य पर गंभीर असर डाल सकती है। ऐसे बच्चों में साँस लेने में तकलीफ (आरडीएस) और नियोनेटल आईसीयू (एनआईसीयू) में भर्ती होने की संभावना सामान्य बच्चों की तुलना में तीन गुना तक अधिक पाई गई। यह तथ्य किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में किए गए 509 गर्भवती महिलाओं पर शोध के बाद सामने आया है। शोध में इनमें 69 महिलाएँ हाइपोथायरॉइड और 431 सामान्य थायरॉइड वाली थीं। माताओं की थायरॉइड जाँच टीएसएच, टी3, टी4 और एंटी-टीपीओ एंटीबॉडी के जरिए की गई। नवजात बच्चों के स्वास्थ्य में जन्म का वजन, गर्भकाल, साँस लेने में तकलीफ और कॉर्ड ब्लड टीएसएच जैसे पैरामीटर देखे गए।


​ शिशु रहे सुरक्षित


​शोध विज्ञानियों का कहना है कि गर्भावस्था में थायरॉइड की समय पर जाँच और उपचार बेहद ज़रूरी है। इससे न केवल समयपूर्व प्रसव रोका जा सकता है, बल्कि नवजात शिशुओं में साँस लेने की तकलीफ और एनआईसीयू में भर्ती की ज़रूरत भी काफी हद तक घटाई जा सकती है।


​ मुख्य नतीजे


​हाइपोथायरॉइड ग्रस्त माताओं में समय से पहले प्रसव 28.9% मामलों में हुआ, जबकि सामान्य माताओं में यह केवल 9.5% था।

​हाइपोथायरॉइड ग्रस्त माताओं के बच्चों में साँस लेने में तकलीफ (रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिंड्रोम) के मामले 21.7% पाए गए, जबकि सामान्य समूह में यह केवल 6.7% था।

​एनआईसीयू में भर्ती की ज़रूरत 30.4% हाइपोथायरॉइड माताओं के बच्चों में रही, जबकि सामान्य समूह में यह सिर्फ 10% थी।

​नवजात बच्चों के अंबिलिकल कॉर्ड ब्लड में टीएसएच स्तर काफी बढ़ा हुआ पाया गया, जो उनके एंडोक्राइन असंतुलन को दर्शाता है।


 इन्होंने किया शोध



​किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के गायनेकोलॉजी और नवजात शिशु विभाग के डॉ. प्रतिष्ठा दुबे, डॉ. कंचन सिंह, डॉ. सुमन सिंह, डॉ. पुष्पलता शंखवार और डॉ. मंजू लता वर्मा ने "इफेक्ट ऑफ मैटरनल हाइपोथायरॉइडिज़्म ऑन प्री टर्म लेबर एंड नियोनेटल आउटकम" विषय पर शोध किया, जिसे एनल्स ऑफ अफ्रीकन मेडिसिन  ने स्वीकार किया।

: क्यों होती है हार्मोन की कमी 


गर्भावस्था में हाइपोथायरॉइडिज़्म का मुख्य कारण हाशिमोटो थायरॉइडाइटिस और आयोडीन की कमी है। यह कमी शिशु के मस्तिष्क विकास को प्रभावित करती है, जिससे समयपूर्व प्रसव और साँस की तकलीफ का खतरा बढ़ता है। इसका इलाज लेवोथायरोक्सिन दवा से होता है, जिसकी खुराक नियमित जाँच से समायोजित की जाती है।

स्तन कैंसर की खुद से पहचान व बचाव का संदेश देने निकला वॉकाथन

 

स्तन कैंसर की खुद से पहचान व बचाव का संदेश देने निकला वॉकाथन


संजय गांधी पीजीआई में रविवार को वॉकाथन और पिंक बॉल क्रिकेट लीग के जरिए स्तन कैंसर के प्रति जागरूकता का संदेश दिया गया। कार्यक्रम में डॉक्टरों, नर्सों, छात्रों और कर्मचारियों ने गुलाबी टी-शर्ट व कैप पहनकर हिस्सा लिया। एंडोक्राइन व ब्रेस्ट सर्जरी विभागाध्यक्ष डॉ. गौरव अग्रवाल ने बताया कि स्तन कैंसर महिलाओं में सबसे आम कैंसर है, जो हर आठ में से एक को प्रभावित करता है, लेकिन इसकी शुरुआती पहचान से इलाज पूरी तरह संभव है।

डॉ. अंजलि मिश्रा, डॉ. अभिषेक कृष्ण, डॉ. सबारत्नम और डॉ. ज्ञान चंद ने महिलाओं को नियमित स्तन स्व-परीक्षण और समय पर जांच की सलाह दी।

शाम को आयोजित पिंक बॉल क्रिकेट लीग में चार टीमों ने भाग लिया, जिनके नाम विश्व प्रसिद्ध ब्रेस्ट सर्जरी विशेषज्ञों पर रखे गए थे। संस्थान के निदेशक डॉ. आर.के. धीमान संरक्षक रहे और डॉ. प्रवीणा धीमान टीम की कप्तान थीं। कार्यक्रम ने महिला स्वास्थ्य के प्रति एकजुटता और जागरूकता का संदेश दिया।

पीजीआई में खुलेगा फैटी लिवर और मोटापा क्लिनिक

 

 पीजीआई में खुलेगा फैटी लिवर और मोटापा क्लिनिक


देशभर के प्रमुख विशेषज्ञ हुए शामिल, राज्य में बढ़ते एनएएफएलडी मामलों पर रही खास चर्चा


 संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआई) के हेपेटोलॉजी विभाग में जल्द ही “फैटी लिवर और मोटापा क्लिनिक” शुरू किया जाएगा। विभागाध्यक्ष प्रोफेसर अमित गोयल ने यह घोषणा दो दिवसीय “लिवर रोगों में वर्तमान परिप्रेक्ष्य (सीपीएलडी-2025)” सम्मेलन के दौरान की। उन्होंने बताया कि यह क्लिनिक नॉन-अल्कोहलिक फैटी लिवर डिजीज (एनएएफएलडी) और मोटापे से ग्रस्त रोगियों को समग्र जांच, परामर्श और उपचार की सुविधा एक ही स्थान पर उपलब्ध कराएगा।


सम्मेलन में देशभर के प्रमुख हेपेटोलॉजी और गैस्ट्रोएंटरोलॉजी विशेषज्ञों ने भाग लिया, जिनमें

निदेशक  प्रो आर. के. धीमन और गैस्ट्रोएंटरोलॉजी विभाग के प्रमुख प्रो राकेश अग्रवाल,

आईएलबीएस, नई दिल्ली से प्रोफेसर अनूप सराया,

पीजीआई, चंडीगढ़ से प्रोफेसर अजय दुसेजा,

केआईएमएस, भुवनेश्वर से प्रोफेसर ए. सी. आनंद

शामिल रहे।



सम्मेलन में मोटापा और फैटी लिवर रोगों पर केंद्रित चर्चा हुई। उत्तर प्रदेश में एनएएफएलडी की स्थिति पर एक विशेष पैनल में एनएचएम की एनएएफएलडी कार्यक्रम प्रभारी डॉ. अलका शर्मा ने राज्य में प्रशिक्षण और सर्वे की प्रगति साझा की।


भारत में एनएएफएलडी की समस्या तेजी से बढ़ रही है। हालिया अध्ययनों के अनुसार, देश की लगभग 38 प्रतिशत वयस्क आबादी इस रोग से प्रभावित है। विशेषज्ञों ने बताया कि जीवनशैली में सुधार, संतुलित आहार और नियमित व्यायाम से इसे रोका जा सकता है।


सम्मेलन में ईएसआई, एनएचएम के चिकित्सक, राज्य और देशभर से आए एमडी, डीएम व डीएनबी छात्र सहित करीब 400 प्रतिनिधि शामिल हुए। यह पहल राज्य में लिवर रोगों की रोकथाम और जनस्वास्थ्य सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम मानी जा रही है।

: फैटी लीवर डिजीज  क्या होता है



​फैटी लीवर डिजीज वह स्थिति है जब लीवर (यकृत) की कोशिकाओं में अतिरिक्त वसा  जमा हो जाती है।

​लीवर में थोड़ी मात्रा में वसा होना सामान्य है, लेकिन जब वसा का जमाव लीवर के कुल वजन के 5% से अधिक हो जाता है, तो यह फैटी लीवर रोग कहलाता है।

​यह एक "साइलेंट डिजीज" (चुपचाप बढ़ने वाली बीमारी) के रूप में जाना जाता है क्योंकि शुरुआती चरणों में अक्सर इसके कोई स्पष्ट लक्षण दिखाई नहीं देता है।

: यह हो सकती है परेशानी

​फाइब्रोसिस: लगातार सूजन से लीवर पर निशान  बनने लगते हैं, जो उसके सामान्य कार्यों में बाधा डालते हैं।


​सिरोसिस -यह लीवर को स्थायी नुकसान है, जिसमें निशान (स्कारिंग) गंभीर हो जाते हैं और लीवर ठीक से काम करना बंद कर देता है, जिससे लीवर फेलियर या लीवर कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।

सिर और चेहरे की विकृतियों के इलाज में नई तकनीकें बनीं संजीवनी

 

सिर और चेहरे की विकृतियों के इलाज में नई तकनीकें बनीं संजीवनी


एसजीपीजीआई में इंडो गल्फ क्रेनियोफेशियल सोसायटी की चौथी बैठक संपन्न


लखनऊ। जन्मजात सिर और चेहरे की विकृतियों (क्रेनियोफेशियल डिफॉर्मिटीज़) से जूझ रहे बच्चों को सामान्य जीवन देने की दिशा में अब तकनीक नई राह दिखा रही है। इस दिशा में विशेषज्ञों का चौथा सम्मेलन शनिवार को होटल क्लार्क्स अवध में हुआ, जिसका आयोजन संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआई) के प्लास्टिक सर्जरी विभागाध्यक्ष एवं इंडो गल्फ क्रेनियोफेशियल सोसायटी के अध्यक्ष प्रो. राजीव अग्रवाल के नेतृत्व में किया गया।


प्रो. अग्रवाल ने बताया कि अब सिर और चेहरे की हड्डियों की सर्जरी में 3-डी प्रिंटिंग, रीज़ॉर्बेबल प्लेट्स (स्वयं घुल जाने वाली प्लेटें), माइक्रोइंस्ट्रूमेंट्स और नेविगेशन सिस्टम जैसी उन्नत तकनीकें उपयोग में लाई जा रही हैं। इससे सर्जरी ज्यादा सुरक्षित और सटीक हो गई है। पहले टाइटेनियम प्लेटें लगाई जाती थीं जो स्थायी रहती थीं, अब पॉली डाइऑक्सानोन (PDO) और पॉलीलैक्टिक एसिड (PLA) जैसी बायोडिग्रेडेबल प्लेटों से हड्डियों को जोड़ा जाता है, जो कुछ महीनों में शरीर में घुल जाती हैं और किसी दूसरी सर्जरी की जरूरत नहीं रहती।


उन्होंने बताया कि एसजीपीजीआई देश के उन चुनिंदा केंद्रों में है जहां ऐसी सर्जरी नियमित रूप से की जाती है। अब तक सैकड़ों बच्चों को नया जीवन मिला है। यह सर्जरी तब जरूरी होती है जब बच्चे के सिर का आकार असामान्य रूप से बड़ा हो, आंखें उभरी हों या होंठ व तालू में दोष के कारण सांस लेने में कठिनाई होती हो।


सम्मेलन में देश-विदेश के विशेषज्ञों ने भाग लिया, जिनमें डॉ. तैमूर अल बुलुशी (खौला अस्पताल, मस्कट), डॉ. सुल्तान अल शाक्सी, डॉ. अडेल (मस्कट) और एम्स ऋषिकेश की डॉ. मधुबरी वथुल्या प्रमुख रहीं।


कार्यक्रम दो सत्रों में हुआ—सुबह के सत्र में क्लिफ्ट लिप, क्लिफ्ट पैलेट, सिर-चेहरे की हड्डियों के फिक्सेशन पर व्याख्यान और पैनल चर्चा हुई। वहीं, दोपहर बाद वर्कशॉप में प्रतिभागियों को क्लिफ्ट लिप और पैलेट सर्जरी तथा स्कल फिक्सेशन तकनीक का प्रायोगिक प्रशिक्षण दिया गया। इस दौरान 3-डी मॉडल और सर्जिकल सिमुलेटर की मदद से अभ्यास कराया गया।


सम्मेलन का उद्घाटन माननीय न्यायमूर्ति आलोक माथुर, वरिष्ठ न्यायाधीश, इलाहाबाद उच्च न्यायालय (लखनऊ पीठ) ने किया। उन्होंने कहा कि भारत में ऐसे विशेषज्ञ सर्जनों की संख्या बहुत कम है, इसलिए इस तरह के प्रशिक्षण कार्यक्रम देश के लिए अत्यंत उपयोगी हैं।

शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

पीजीआई ने खतरनाक और रेयर बैक्टीरिया का लगाया पता

 

 पीजीआई ने खतरनाक और रेयर बैक्टीरिया का लगाया पता 

कमजोर प्रतिरोधक क्षमता में वाले लोगों में अधिक इस बैक्टीरिया के संक्रमण की आशंका 


वाइस-सेला बैक्टीरिया है  जानलेवा संक्रमण लेकिन  जल्दी पहचान और सही इलाज से मिल सकता है राहत


कुमार संजय

 संजय गांधी गांधी पीजीआई में 13 ऐसे मरीज मिले, जिनमें एक खतरनाक बैक्टीरिया उनके जीवन के लिए गंभीर खतरा बन गया था। इस बैक्टीरिया का नाम है वाइस-सेला।  इस बैक्टीरिया का पता लगाने और इलाज की दिशा तय करने में पीजीआई के माइक्रोबायोलॉजी विभाग की विशेषज्ञ टीम ने सफलता हासिल की।

शोध विज्ञानियों का कहना है कि अगर किसी मरीज में इस बैक्टीरिया के संक्रमण के संकेत या लक्षण दिखाई दें, तो संबंधित परीक्षण कराना बेहद जरूरी है। जल्दी पहचान और सही इलाज मिलने पर मरीज की जान बचाई जा सकती है। यह बैक्टीरिया आम तौर पर स्वस्थ लोगों में समस्या नहीं करता, लेकिन कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले मरीज, लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती लोग, कैथेटर का उपयोग करने वाले या कीमोथेरापी करवा रहे मरीजों में गंभीर संक्रमण पैदा कर सकता है।



संक्रमण कैसे होता है


वाइस-सेला बैक्टीरिया अवसरवादी होते हैं। यह आम तौर पर स्वस्थ लोगों में समस्या नहीं करते, लेकिन जोखिम वाले मरीजों में गंभीर संक्रमण पैदा कर सकते हैं। यह बैक्टीरिया रक्त या मेरुरज्जु द्रव में पाया जाता है। जल्दी पहचान और सही दवा से इलाज करना बेहद जरूरी है।





लक्षण


पेट या सीने में दर्द और गांठ


सांस लेने में तकलीफ


बार-बार खांसी या खून आना


थकान और कमजोरी


बुखार (कुछ मामलों में)






बचाव और इलाज


अस्पताल में भर्ती मरीजों की निगरानी


कैथेटर और उपकरणों की साफ-सफाई


कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले मरीजों का विशेष ध्यान



जल्दी पहचान और उचित दवा


कारगर दवाएँ: अध्ययन में जिन दवाओं ने बैक्टीरिया को मारने में असर दिखाया और मरीजों के इलाज में काम आईं, वे हैं: अमिकासिन, डैप्टोमाइसिन, अमोक्सिसिल्लिन-क्लैवुलनेट, मीनोसाइक्लिन और लाइनजोलिड।


शोधकर्ता

संस्थान के माइक्रोबायोलॉजी विभाग के  डॉ. असीमा जामवाल, डॉ. गर्लिन वर्गीज़, डॉ. दीपिका सरावत, डॉ. निधि तेजन, डॉ. संगराम सिंह पटेल और डॉ. चिन्मय साहू ने  “तीन साल के अवलोकन अध्ययन में वाइस-सेला प्रजातियों का वर्णन – एक उभरता खतरा” विषय पर शोद किया जिसे  अमरेकिन जर्नल आप ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन ने स्वीकार किया है। 





वाइस-सेला बैक्टीरिया दुर्लभ लेकिन गंभीर संक्रमण पैदा कर सकते हैं। खासकर अस्पताल में भर्ती और कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले लोग जोखिम में रहते हैं। पीजीआई के विशेषज्ञों की तेजी और सही इलाज से मरीजों की जान बचाई जा सकती है,,,,,प्रो चिन्मय साहू

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

एआई से गंभीर रोगियों की जान बचाने में मिलेगी मदद

 




एआई से गंभीर रोगियों की जान बचाने में मिलेगी मदद


एसजीपीजीआई के एनेस्थीसियोलॉजी विभाग ने मनाया 38वां स्थापना दिवस




उत्कृष्ट कार्य करने वाले फैकल्टी, रेजिडेंट, नर्सिंग व टेक्निकल स्टाफ को किया गया सम्मानित



संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआई) के एनेस्थीसियोलॉजी विभाग के 38वें स्थापना दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में क्रिटिकल केयर विभागाध्यक्ष एवं प्रिंसिपल डायरेक्टर, बीएलके-मैक्स सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल, दिल्ली के डॉ. राजेश कुमार पांडे मुख्य अतिथि रहे। उन्होंने कहा कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) की मदद से गहन चिकित्सा इकाई (आईसीयू) में गंभीर रोगियों की स्थिति का पहले से आकलन कर उनकी जान बचाई जा सकती है। उन्होंने बताया कि बेहतर एआई प्रणाली विकसित करने के लिए मजबूत व सटीक डेटा रिकॉर्डिंग अत्यंत आवश्यक है।


उन्होंने अपने विचार छठे “प्रो. सोमा कौशिक ऑरेशन” में रखे। कार्यक्रम की अध्यक्षता एसजीपीजीआई के निदेशक पद्मश्री प्रो. आर. के. धिमान ने की। इस अवसर पर डीन प्रो. शलीन कुमार, एनेस्थीसियोलॉजी विभागाध्यक्ष प्रो. प्रभात तिवारी, और एमएम कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज, अंबाला के कार्डियक एनेस्थीसिया विभागाध्यक्ष प्रो. अजय सिन्हा विशेष रूप से उपस्थित रहे।


कार्यक्रम में उत्कृष्ट कार्य के लिए फैकल्टी डॉ. वंश प्रिया, जूनियर रेजिडेंट डॉ. कोल्ली अजीत कुमार, ऑफिस स्टाफ महेन्द्र कुमार वर्मा, नर्सिंग ऑफिसर सरीता श्रीवास्तव, टेक्निकल ऑफिसर अमित यादव और अन्य कर्मचारियों को सम्मानित किया गया। आयोजन का संचालन डॉ. संदीप खुबा ने किया।


विभाग की तकनीकी टीम—प्रमिला, श्रद्धा, रुचि, शिवानी और किरण—ने मां सरस्वती की वंदना कर कार्यक्रम की शुरुआत की। वरिष्ठ तकनीकी अधिकारी राजीव सक्सेना ने कार्यक्रम के समन्वय और मीडिया संवाद में अहम भूमिका निभाई।

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

ट्रॉमा पीड़ितों की जान बचाने के साथ विकलांगता से भी बचाएंगे 'स्वास्थ्यदूत'

 



एसजीपीजीआईएमएस ने शुरू किया अनूठा अभियान


 ट्रॉमा पीड़ितों की जान बचाने के साथ विकलांगता से भी बचाएंगे 'स्वास्थ्यदूत'


 कुमार संजय


संजय गांधी पीजीआई गंभीर रूप से घायल मरीजों की जान बचाने और उन्हें दीर्घकालिक विकलांगता से सुरक्षित रखने के उद्देश्य से संस्थान ने एक अनूठा अभियान शुरू किया है। इस पहल के अंतर्गत सीमित संसाधनों में भी तुरंत और प्रभावी इलाज कर सकने वाले 'ट्रॉमा केयर दूतों' को तैयार किया जा रहा है, ताकि दूर-दराज़ क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को जीवन रक्षक देखभाल मिल सके। इस दिशा में पहला कदम हाल ही में आयोजित प्राइमरी ट्रॉमा केयर फाउंडेशन कोर्स के माध्यम से उठाया गया। यह प्रशिक्षण कार्यक्रम यूनाइटेड किंगडम की संस्था द्वारा संचालित किया जा रहा है। इसका नेतृत्व डॉ. जीन फ्रॉसार्ड ने किया, जो लंदन के एक प्रमुख अस्पताल में विशेषज्ञ चिकित्सक हैं। संस्थान के  प्रो संदीप साहू (कोर्स संयोजक) सहित डॉ. अमित कुमार (हड्डी रोग विशेषज्ञ), डॉ. अमित कुमार सिंह (ट्रॉमा सर्जन), डॉ. प्रतीक सिंह बायस, डॉ. सुरुचि (संज्ञाहरण विशेषज्ञ), तथा किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी, लखनऊ की डॉ. हेमलता शामिल है। इसमें संवाद, चर्चा, कार्यशालाएं और अभ्यास सत्र शामिल थे। प्रतिभागियों ने स्वयं अभ्यास करके सीखा कि कैसे वायुमार्ग की देखभाल करें, छाती में नलियों को डालना सीखें और गंभीर चिकित्सा समस्याओं का तत्काल समाधान करें।


प्रो संदीप साहू ने बताया, "यह कोर्स छोटे अस्पतालों और सीमित संसाधनों में काम करने वाले चिकित्सकों के लिए बहुत उपयोगी है। यदि प्राथमिक उपचार सही समय पर दिया जाए, तो जान बचाने के साथ विकलांगता से भी बचा जा सकता है। पहल केवल एक प्रशिक्षण नहीं, बल्कि एक जन-स्वास्थ्य आंदोलन है। यह शहरों की सीमाओं को पार कर गांव, कस्बों और सीमांत इलाकों तक जीवनरक्षक जानकारी और कौशल पहुंचाने का एक सार्थक प्रयास है। इस तरह प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मी न केवल जीवन बचाएंगे, बल्कि असमय विकलांगता से भी हजारों लोगों को बचा सकेंगे।


 


जान और अंगों को बचाने की मुहिम


 


इस प्रशिक्षण का मुख्य उद्देश्य है — जान बचाना और विकलांगता से बचाना। यह विशेष रूप से उन क्षेत्रों के लिए तैयार किया गया है जहां चिकित्सा संसाधन सीमित हैं। कोर्स में प्रतिभागियों को यह सिखाया गया कि कैसे वे कम साधनों में भी घायल मरीज की प्रारंभिक देखभाल कर सकें, उसे स्थिर कर सकें और समय रहते बड़े अस्पताल में रेफर कर सकें।


 


इस प्रशिक्षण का मूल आधार पाँच अहम चरणों पर है


 


वायुमार्ग को सुरक्षित करना


 


सांस की निगरानी और सहयोग


 


रक्तसंचार की स्थिति को नियंत्रित करना


 


तंत्रिका तंत्र की स्थिति का मूल्यांकन


 


पूरे शरीर की जाँच कर अन्य चोटों की पहचान करना


 


 


अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त


 


यह कोर्स वर्ष 1996 से अब तक 87 देशों में अपनाया जा चुका है और यह लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित कर चुका है। इस प्रशिक्षण के ज़रिए दुनिया भर में स्वास्थ्यकर्मियों को एक सरल, व्यावहारिक और प्रभावशाली तरीका सिखाया गया है, जिससे वे ट्रॉमा के शिकार मरीजों को समय रहते सही मदद दे सकें।

पीजीआई के एनेस्थिसियोलॉजी विभाग का स्थापना दिवस आज

 



गंभीर रोगियों के उपचार में अल्ट्रा साउण्ड की भूमिका अहम


-पीजीआई में भारतीय एनेस्थेसियोलॉजिस्ट सोसायटी यूपी चैप्टर का तीन दिवसीय वार्षिक सम्मेलन आज से

लखनऊ।

गंभीर रोगियों के उपचार में अल्ट्रासाउण्ड बहुत उपयोगी है। इमरजेंसी में आने गंभीर रोगी के पेट में ब्लीडिंग, फेफड़ों और दिल का मूल्यांकन अल्ट्रा साउण्ड की मदद से किया जाता है। एनेस्थिसियोलॉजिस्ट को रोगी के रक्तचाप में अचानक गिरावट की तुरंत पहचान कर जरूरी उपचार मुहैया कराने में मदद मिलती है। इसके अलावा शरीर की नसों, रक्त वाहिकाओं और दूसरे अंगों को देखकर ऑपरेशन से पहले सुन्न करने की दवा देने में इसका अहम योगदान है। यह जानकारी गुरुवार को पीजीआई के एनेस्थिसियोलॉजी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. प्रभात तिवारी ने प्रेस कांफ्रेंस में साझा की। 

सम्मेलन के आयोजन अध्यक्ष डॉ. तिवारी ने बताया कि संस्थान के एनेस्थिसियोलॉजी विभाग की ओर से भारतीय एनेस्थेसियोलॉजिस्ट सोसायटी यूपी चैप्टर का तीन दिवसीय वार्षिक सम्मेलन शुक्रवार से शुरू हो रहा है। सम्मेलन के आयोजन सचिव डॉ. आशीष कनौजिया, डॉ. संदीप खुबा व डॉ.दिव्या श्रीवास्तव ने बताया कि तीन दिवसीय सम्मेलन के पहले दिन शुक्रवार को पीजीआई, केजीएमयू और लोहिया संस्थान में वर्कशॉप का आयोजन किया गया है। इसके अलावा सम्मेलन में शोध पत्र प्रस्तुत किये जाएंगे। सम्मेलन में देश भर से आने वाले विशेषज्ञ डॉक्टर एनेस्थीसिया में आयी नवीन तकनीक के बारे में चर्चा करेंगे। 

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पीजीआई के एनेस्थिसियोलॉजी विभाग का स्थापना दिवस आज


पीजीआई के एनेस्थिसियोलॉजी विभाग का 38 वां स्थापना दिवस शुक्रवार को विभाग के प्रो. सोमा कौशिक सभागार में मनाया जाएगा। संस्थान के एनेस्थिसियोलॉजी विभागाध्यक्ष डॉ. प्रभात तिवारी ने बताया कि समारोह के मुख्य अतिथि क्रिटिकल केयर विशेषज्ञ डॉ. राजेश कुमार पांडे छठा प्रो. सोमा कौशिक व्याख्यान देंगे। इस मौके पर पीजीआई निदेशक पद्मश्री डॉ. डॉ. आरके धीमान और संस्थान के डीन डॉ. शालीन कुमार समेत दूसरे विशेषज्ञ डॉक्टर विभाग की उपलब्धियां और भविष्य की दिशा के बारे में बताएंगे। विभाग के संकाय सदस्यों और कर्मचारियों को भी सम्मानित किया जाएगा।


एथलीटों में हर दूसरा खिलाड़ी होता है घायल: सबसे ज्यादा असर पैरों पर









एथलीटों में हर दूसरा खिलाड़ी होता है घायल: सबसे ज्यादा असर पैरों पर


 


संपर्क खेलों में खतरा ज्यादा, फुटबॉल और कुश्ती से जुड़ी चोटें सबसे आम


 


कुमार संजय


 


लखनऊ के एथलीटों को खेल मैदान में जीत हासिल करने के साथ-साथ चोटों की बड़ी चुनौती का भी सामना करना पड़ रहा है। किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी  के खेल चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन ने खेल क्षेत्र में चिंता बढ़ा दी है। शोध के अनुसार, हर दूसरा खिलाड़ी किसी न किसी चोट का शिकार हुआ है, और सबसे ज्यादा असर शरीर के निचले हिस्से, खासकर घुटने, टखने और जांघ की मांसपेशियों पर देखा गया है।


 


400 खिलाड़ियों पर किया गया अध्ययन


 


स्पोर्ट्स मेडिसिन विभाग के विशेषज्ञों ने लखनऊ क्षेत्र के 400 सक्रिय एथलीटों पर यह अध्ययन किया। 48.5 प्रतिशत खिलाड़ियों ने बताया कि वे खेल के दौरान कभी न कभी घायल हुए। पुरुषों में यह आंकड़ा 50.6 प्रतिशत और महिलाओं में 45.2 प्रतिशत रहा।खास बात यह रही कि फुटबॉल के 64 फीसदी और कुश्ती के 58 फीसदी और संपर्क खेलों में चोट की संभावना सबसे अधिक पाई गई।


 


पैरों में लगती हैं सबसे ज्यादा चोटें


 


शोध के अनुसार, 61.3 प्रतिशत चोटें शरीर के निचले हिस्से में पाई गईं। इनमें प्रमुख रूप से घुटनों में मोच या खिंचाव, टखनों की चोट, और हैमस्ट्रिंग (जांघ के पीछे की मांसपेशियों) में खिंचाव प्रमुख रहे। इन चोटों की वजह से कई खिलाड़ियों को प्रशिक्षण और प्रतियोगिताओं से लंबा विराम लेना पड़ा।


 


चोट के पीछे के कारण


 


शोधकर्ताओं ने यह भी पता लगाया कि ये चोटें सिर्फ खेल के दौरान हुई दुर्घटनाएं नहीं हैं, बल्कि कई बार लापरवाही और तैयारी की कमी भी इसके लिए जिम्मेदार होती है:


 


बिना वार्म-अप किए खेल शुरू करना


 


पर्याप्त आराम और रिकवरी न लेना


 


खेल चिकित्सा की सुविधाओं की कमी


 


चोट के शुरुआती संकेतों को नजरअंदाज करना


 


डॉ. अभिषेक चौधरी बताते हैं, "अधिकांश चोटें रोकी जा सकती हैं अगर खिलाड़ी थोड़ी सतर्कता बरतें और सही प्रशिक्षण पद्धति अपनाएं। स्पोर्ट मेडिसिन की सुविधा के विस्तार की जरूरत है।  


 


कैसे बचें इन चोटों से


 


खेल विशेषज्ञों ने खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए हैं:


 


खेल से पहले संरचित वार्म-अप जरूर करें


 


हर खेल सत्र के बाद पर्याप्त विश्राम लें


 


संदेह की स्थिति में तुरंत खेल चिकित्सक से परामर्श लें


 


चोटों और सुरक्षा से संबंधित शिक्षा और प्रशिक्षण को अनिवार्य बनाएं


 


 


जीत के पहले जरूरी है सुरक्षा की सोच


 


खेल का मैदान ऊर्जा, जुनून और सपनों से भरा होता है, लेकिन वहां हर कदम पर जोखिम भी होता है। यह शोध सिर्फ आंकड़े नहीं दिखाता, बल्कि खिलाड़ियों की सुरक्षा को लेकर एक चेतावनी है।


सही प्रशिक्षण, चिकित्सा सहयोग और सजगता से न केवल चोटों से बचा जा सकता है, बल्कि एथलीटों का करियर भी लंबा और सफल बनाया जा सकता है।


 


इन्होंने किया शोध


यह अध्ययन “प्रिवेलेंस ऑफ स्पोर्ट्स इंजरीज अमंग एथलीट्स इन द लखनऊ रीजन” विषय पर किया गया। शोधकर्ताओं में डॉ. अभिषेक चौधरी, डॉ. अभिषेक अग्रवाल, और डॉ. अभिषेक सैनी शामिल हैं। इस अध्ययन को अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल 'क्योरस' ने स्वीकार किया है, जो इसकी वैज्ञानिक गुणवत्ता का प्रमाण है।


 


ये आंकड़े बताते हैं कि...


 


-400 खिलाड़ी हुए शामिल


 


-48.5 फीसदी खिलाड़ी किसी न किसी चोट का शिकार


 


-फुटबॉल खिलाड़ियों में 64 फीसदी को लगी चोट


 


-कुश्ती खिलाड़ियों में 58 फीसदी घायल हुए


 


-61.3 फीसदी चोटें शरीर के निचले हिस्से में


 




नेशनल फुटबॉल खिलाड़ी आदर्श गोस्वामी  


फुटबॉल और कुश्ती एक चुनौतीपूर्ण खेल है, जहां हर दिन नई चोट का सामना करना पड़ता है। घुटने, टखने और जांघ की मांसपेशियों में खिंचाव या मोच आम हैं, खासकर जब बिना वार्म-अप के खेल शुरू किया जाता है। मेरा मानना है कि सुरक्षा गियर जैसे घुटने और टखने के पैड का सही इस्तेमाल और शारीरिक तैयारी से चोटों को रोका जा सकता है। पर्याप्त आराम और सही डाइट भी महत्वपूर्ण हैं। अगर खिलाड़ियों को चोट के शुरुआती संकेतों का पता चले, तो वे समय रहते इलाज करवा सकते हैं और अपनी खेल यात्रा को सुरक्षित रख सकते हैं।


 




डा. सिदार्थ राय


फिजिकल मेडिडिसन एंड रीहैबिलटेशन


 एपेक्स ट्रामा सेंटर एसजीपीजीआई


खेल चिकित्सा में चोटें केवल खेल के परिणाम नहीं, बल्कि खिलाड़ियों की शारीरिक तैयारी की कमी और लापरवाही का भी परिणाम होती हैं। अधिकांश चोटें वार्म-अप न करने, थकान के बावजूद खेलते रहने या सुरक्षा उपकरणों का सही तरीके से इस्तेमाल न करने से होती हैं। खिलाड़ियों को अपनी शारीरिक स्थिति समझनी चाहिए और मानसिक तनाव से बचने के उपाय करने चाहिए। चिकित्सा सुविधाएं भी समय पर उपलब्ध होनी चाहिए, ताकि चोटों का इलाज तुरंत किया जा सके। यही सही प्रशिक्षण और चिकित्सा से चोटों को कम किया जा सकता है और कैरियर को सुरक्षित रखा जा सकता है।

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2025

₹600 की साधारण जांच बताएगी दिल का हाल

 




साधारण खून की जांच से दिल की बीमारी की गंभीरता जानना संभव

 600 रुपये में मिल सकेगा शुरुआती संकेत


कुमार संजय

 

संजय गांधी पीजीआई के कार्डियोलॉजी विभाग में हुए एक नए शोध में साबित हुआ है कि  एंजियोग्राफी या सीटी-स्कैन से पहले ही मात्र 600 से 700 रुपये में साधारण खून की जांच से दिल की बीमारी (कोरोनरी आर्टरी डिजीज) की गंभीरता का पता लगाया जा सकता है।


इस शोध के मुताबिक, कुछ सामान्य ब्लड पैरामीटर—मीन प्लेटलेट वॉल्यूम (एमपीवी), लाइपोप्रोटीन-ए, ट्राइग्लिसराइड/एचडीएल रेशियो और मोनोसाइट/एचडीएल रेशियो—से यह आकलन किया जा सकता है कि बीमारी कितनी गंभीर है। यह तरीका डॉक्टरों को यह समझने में मदद करेगा कि किस मरीज को तुरंत इलाज या एंजियोग्राफी की जरूरत है और कौन दवाओं से ठीक हो सकता है। इससे समय, पैसा और जटिल जांचों से जुड़ा जोखिम—तीनों से बचाव होगा।


ऐसे हुआ शोध 


अध्ययन में 200 मरीजों को शामिल किया गया, जिनमें कोरोनरी आर्टरी डिजीज के लक्षण थे। उनकी बीमारी की गंभीरता को मापने के लिए ‘सिनटैक्स स्कोर’ का इस्तेमाल किया गया। परिणामों में पाया गया कि जिन मरीजों में मीन प्लेटलेट वॉल्यूम और लाइपोप्रोटीन-ए का स्तर अधिक था, उनमें बीमारी ज्यादा गंभीर थी। वहीं जिनके मोनोसाइट/एचडीएल और ट्राइग्लिसराइड/एचडीएल रेशियो बढ़े हुए थे, उनमें बीमारी मध्यम स्तर की पाई गई। यानी सिर्फ खून की जांच से ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बीमारी किस स्तर पर है।


शोध में शामिल विशेषज्ञ

यह अध्ययन कार्डियोलॉजी विभाग के डॉ. प्रशांत गौतम, प्रो. सत्येन्द्र तिवारी, डॉ. हर्षित खरे, डॉ. अर्शद नज़ीर, डॉ. अर्पिता कथेरिया, प्रो. अंकित कुमार साहू, प्रो. रूपाली खन्ना, प्रो. नवीन गर्ग और प्रो. आदित्य कपूर ने किया। शोध को इंडियन हार्ट जर्नल में प्रकाशित किया गया है।


शोध के लाभ


महंगे टेस्ट से पहले एक भरोसेमंद शुरुआती जांच


सही समय पर इलाज से मरीज की जान बचने की संभावना बढ़ेगी


नॉर्मल लिपिड प्रोफाइल वाले मरीजों में भी छिपा जोखिम पहचानना संभव


ग्रामीण या छोटे शहरों में भी शुरुआती जांच आसानी से हो सकेगी



क्या है कोरोनरी आर्टरी डिजीज

यह हृदय की धमनियों में फैट या कोलेस्ट्रॉल जमने से होती है, जिससे रक्त प्रवाह रुकता है और हार्ट अटैक का खतरा बढ़ता है। समय रहते पहचान और इलाज मिलने पर इस बीमारी से बचाव संभव है।

बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

हर मिनट 700 से अधिक साइबर हमले

 




हर मिनट 700 से अधिक साइबर हमले, अस्पताल बने नए निशाने 


 पीजीआई में  जागरूकता कार्यक्रम




भारत में हर मिनट औसतन 702 साइबर हमले हो रहे हैं, जिनमें से करीब 22 प्रतिशत स्वास्थ्य संस्थानों पर होते हैं। विशेषज्ञों ने चेताया कि अब अस्पताल सिर्फ इलाज के केंद्र नहीं, बल्कि मरीजों की संवेदनशील जानकारी के भंडार बन चुके हैं, जिन्हें साइबर अपराधी लगातार निशाना बना रहे हैं। वे फिशिंग ईमेल, नकली लिंक, फर्जी वेबसाइट और ओटीपी ठगी के ज़रिए लोगों को जाल में फँसाकर बैंक खातों तक खाली कर देते हैं।


इसी गंभीर विषय पर एसजीपीजीआईएमएस के अस्पताल प्रशासन विभाग ने मंगलवार को “साइबर सुरक्षा बनाम स्वास्थ्य सेवा संगठन और मिशन शक्ति” विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया। कार्यक्रम का आयोजन प्रो. आर. हर्षवर्धन की अध्यक्षता में हुआ, जिसमें पद्मश्री प्रो. आर.के. धीमान, प्रो. शालीन कुमार,  कृतिका शर्मा (आईएएस), श्री आशुतोष पांडे (आईपीएस), श्री ऋषभ रनवाल (आईपीएस), श्री रल्लापल्ली वसंत कुमार (आईपीएस) और श्रीमती सौम्या पांडे (पीपीएस) मुख्य रूप से उपस्थित रहे।


प्रो. धीमान ने कहा कि डिजिटल अस्पतालों में साइबर सुरक्षा अब वैकल्पिक नहीं बल्कि आवश्यक हो गई है। आईपीएस अधिकारी आशुतोष पांडे ने लोगों से संदिग्ध लिंक, अज्ञात कॉल या लुभावने ऑफर से बचने की सलाह दी और साइबर ठगी की शिकायत के लिए हेल्पलाइन 1930 या वेबसाइट साइबरक्राइम.जी ओ. इन का उपयोग करने को कहा।


संगोष्ठी में मिशन शक्ति के तहत महिलाओं की डिजिटल सुरक्षा और जागरूकता पर भी चर्चा हुई।

कार्यक्रम में 150 से अधिक प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया और मौके पर सोटो प्रतिज्ञा डेस्क पर कई लोगों ने अंगदान की शपथ भी ली।

रविवार, 12 अक्टूबर 2025

एल्डिको उद्यान-दो में ‘दान उत्सव’

 


एल्डिको उद्यान-दो में ‘दान उत्सव’ : गूंज संस्था के लिए कॉलोनीवासियों ने जुटाए कपड़े, खिलौने और ज़रूरत का सामान



सुरक्षा-2, एल्डिको उद्यान-दो में रविवार को सामाजिक दायित्व और संवेदना का अनोखा उदाहरण देखने को मिला, जब गूंज संस्था के सहयोग से कॉलोनीवासियों ने ‘दान उत्सव’ मनाया। इस अवसर पर कॉलोनी के लगभग हर घर से लोगों ने पुराने कपड़े, खिलौने, स्टेशनरी, दैनिक उपयोग की वस्तुएं और नगद राशि दान स्वरूप दी।


इस कार्यक्रम का उद्देश्य "रीसायकल के माध्यम से उपयोगी बनाना और गरीब व जरूरतमंदों तक सहायता पहुँचाना" था। गूंज संस्था इन एकत्रित वस्तुओं को छांटकर दोबारा उपयोग योग्य बनाती है और उन्हें ग्रामीण व वंचित समुदायों तक पहुंचाती है।


कार्यक्रम में गूंज संस्था से रुचि मैडम, प्रियंका शर्मा और शिवानी सिंह सहित कई सदस्य मौजूद रहे। वहीं कॉलोनी की ओर से रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (RWA) के अध्यक्ष डॉ. ए. के. सचान, श्री दिलीप सिंह, श्री प्रदीप सिंह, श्री महेंद्र वर्मा, श्री अरुण श्रीवास्तव, श्री रमेश सर, संदीप कश्यप, श्री उमेश दत्त शर्मा, विभा शर्मा, सुधा सिंह, श्री प्रदीप चौधरी, श्री सुरेश चंद्र, श्री अजय उप्रेती, श्री महेंद्र श्रीवास्तव, श्री महेंद्र शर्मा, श्री अभय मल्होत्रा, अवनीश शर्मा और श्री जी. सी. यादव सहित कई गणमान्य लोग उपस्थित रहे।


इस अवसर पर RWA की ओर से श्री दिलीप सिंह द्वारा तैयार की गई ‘राम किट’ भी सभी परिवारों में वितरित की गई।


कॉलोनीवासियों ने कहा कि इस तरह के आयोजन मानवता, करुणा और पर्यावरण संरक्षण—तीनों के प्रति जागरूकता बढ़ाते हैं। उन्होंने यह भी संकल्प लिया कि हर वर्ष इस तरह का दान उत्सव मनाकर समाज के जरूरतमंद लोगों की मदद की जाएगी।


नेपाल आंदोलन का वास्तविक कारण: युवाओं का असंतोष




आंदोलन का वास्तविक कारण: युवाओं का असंतोष


नेपाल की युवा पीढ़ी, विशेषकर जेन-ज़, राजनीतिक भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, और आर्थिक असमानता से त्रस्त थी। नेपाली समाज में "नेपो किड्स" (Nepo Kids) के रूप में एक ट्रेंड उभरा, जिसमें राजनीतिक नेताओं के बच्चों की विलासिता और भ्रष्टाचार को सोशल मीडिया पर उजागर किया गया। यह स्थिति युवाओं में गहरी नाराजगी का कारण बनी। सरकार ने 4 सितंबर 2025 को 26 प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर प्रतिबंध लगाया, जिसका मुख्य उद्देश्य डिजिटल सेवाओं पर टैक्स लगाना और विदेशी ई-सर्विस प्रदाताओं पर नियंत्रण स्थापित करना था। हालांकि, आलोचकों का मानना था कि यह कदम राजनीतिक असहमति को दबाने के लिए था। 


सोशल मीडिया पर प्रतिबंध ने युवाओं की आवाज़ को और दबाया, जिससे उनका गुस्सा और बढ़ा। प्रदर्शनकारियों ने "Shut down corruption, not social media" जैसे नारे लगाए, जो यह दर्शाते हैं कि उनका मुख्य उद्देश्य भ्रष्टाचार के खिलाफ था, न कि सोशल मीडिया पर प्रतिबंध। 



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भारतीय मीडिया ने इस आंदोलन को सोशल मीडिया प्रतिबंध के खिलाफ विरोध के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे वास्तविक मुद्दे की अनदेखी हुई। इसने आंदोलन के मुख्य कारण, जैसे भ्रष्टाचार और बेरोजगारी, को गौण कर दिया। इस प्रकार, भारतीय मीडिया ने जनता को गुमराह करने का कार्य किया।



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नेपाल का जेन-ज़ आंदोलन एक संकेत है कि युवा पीढ़ी अब केवल डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स पर नहीं, बल्कि वास्तविक जीवन में भी अपनी आवाज़ उठाने के लिए तैयार है। यह आंदोलन लोकतांत्रिक मूल्यों, पारदर्शिता, और भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बन गया है। भारतीय मीडिया को चाहिए कि वह इस आंदोलन के वास्तविक कारणों को समझे और उसे सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करे, ताकि दोनों देशों के नागरिकों के बीच बेहतर समझ और सहयोग स्थापित हो सके।


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शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

वी. पी. सिंह: आरोपों की राजनीति और राजीव गांधी की बदनाम की गई विरासत

 



वी. पी. सिंह: आरोपों की राजनीति और राजीव गांधी की बदनाम की गई विरासत


भारतीय राजनीति में विश्वनाथ प्रताप सिंह (वी. पी. सिंह) का नाम उस दौर के प्रतीक के रूप में लिया जाता है जब “भ्रष्टाचार विरोधी अभियान” की आड़ में आरोप और अफवाहें राजनीतिक हथियार बन गईं।

बोफोर्स घोटाले को लेकर लगाए गए आरोपों ने उस समय की राजनीति को हिला दिया — पर अदालतों ने बाद में स्पष्ट कहा कि इन आरोपों का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला।



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बोफोर्स मामला: अदालतों ने कहा — कोई घोटाला सिद्ध नहीं हुआ


1987 में स्वीडन के रेडियो ने रिपोर्ट दी कि बोफोर्स कंपनी ने भारत को तोपों के सौदे में रिश्वत दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनके करीबी इस सौदे में निशाने पर आए।

यहीं से वी. पी. सिंह ने “भ्रष्टाचार विरोधी नायक” के रूप में खुद को प्रस्तुत किया और राजीव गांधी के खिलाफ खुला अभियान चलाया।


परंतु बाद की न्यायिक प्रक्रिया ने यह साबित किया कि आरोप अधूरे और प्रमाणहीन थे।


दिल्ली उच्च न्यायालय (2004) ने स्पष्ट कहा कि राजीव गांधी के खिलाफ कोई ठोस साक्ष्य नहीं हैं कि उन्होंने रिश्वत ली या सौदे में कोई निजी लाभ पाया।


अदालत ने “public servant” के रूप में राजीव गांधी पर लगे सभी आरोपों को खारिज किया।


हिंदुजा भाइयों और अन्य अभियुक्तों को भी अदालत ने क्लीन चिट दी, यह कहते हुए कि सीबीआई आरोप सिद्ध करने में विफल रही।


बाद में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की अपील भी खारिज कर दी, यह कहते हुए कि मामला न केवल साक्ष्यहीन है, बल्कि प्रक्रिया की समय-सीमा भी समाप्त हो चुकी थी।



अर्थात, अदालतों ने साफ कहा कि बोफोर्स सौदे में किसी भी भारतीय राजनेता द्वारा रिश्वत लेने का प्रमाण नहीं मिला।


फिर भी उस समय की राजनीति में यह आरोप इतना बड़ा मुद्दा बन गया कि राजीव गांधी की “मिस्टर क्लीन” वाली छवि पूरी तरह ध्वस्त हो गई और जनता ने वी. पी. सिंह को “ईमानदार योद्धा” मान लिया।



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सत्ता की सीढ़ी: आरोपों के सहारे सिंहासन


राजीव गांधी के साथ वित्त मंत्री रहे वी. पी. सिंह ने पहले वित्त मंत्रालय में टैक्स और भ्रष्टाचार के मामलों में सख्ती दिखाई। बाद में रक्षा मंत्रालय में सौदों पर सवाल उठाए। कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने जनता दल बनाया और भाजपा तथा वामदलों के समर्थन से 1989 में प्रधानमंत्री बने।


यह सत्ता दरअसल बोफोर्स के आरोपों के सहारे हासिल की गई थी। जनता में यह धारणा बैठ चुकी थी कि राजीव गांधी ने भ्रष्टाचार किया है, जबकि अदालत ने बाद में इसे गलत ठहराया।

विश्लेषकों के अनुसार, यही वह मोड़ था जब भारतीय राजनीति में “झूठे या अप्रमाणित आरोपों” की प्रवृत्ति शुरू हुई।



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मंडल बनाम कमंडल: जब राजनीति जाति और धर्म में बंटी


प्रधानमंत्री बनने के बाद वी. पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं, जिनके तहत ओबीसी वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण मिला।

यह फैसला ऐतिहासिक था, लेकिन देशभर में भारी विरोध हुआ। सैकड़ों जगह छात्र सड़कों पर उतरे, आत्मदाह करने लगे — कई युवा अपनी जान गंवा बैठे।


उस समय भाजपा बाहर से वी. पी. सिंह सरकार को समर्थन दे रही थी, लेकिन जब देशभर में छात्र आग में झुलस रहे थे, तब भाजपा ने समर्थन वापस नहीं लिया।

पार्टी का ध्यान अपने “राम मंदिर आंदोलन” की तरफ था, जो तेजी से धार्मिक जनभावना का केंद्र बन रहा था।


जब लालकृष्ण आडवाणी ने राम रथ यात्रा शुरू की और आंदोलन अपने चरम पर पहुंच गया — तब भाजपा ने राजनीतिक रूप से यह महसूस किया कि अब जनता की भावनाएं “राम मंदिर” के मुद्दे पर उनके पक्ष में हैं।

ठीक उसी समय, मंडल से उपजे जातीय संघर्ष के बीच, भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया।

इस प्रकार सरकार गिराने का कारण “छात्रों की पीड़ा” नहीं बल्कि राम मंदिर की राजनीति से सत्ता प्राप्ति की रणनीति थी।


इस निर्णय ने भारतीय राजनीति में यह भी स्पष्ट कर दिया कि सामाजिक न्याय और धार्मिक भावनाओं के बीच टकराव को सत्ता के लिए साधन की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है।



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प्रतीकवाद, तुष्टिकरण और जनता दल का विखंडन


वी. पी. सिंह ने अपने कार्यकाल में सामाजिक न्याय को मजबूत करने के लिए कई प्रतीकात्मक फैसले लिए — जिनमें डॉ. भीमराव आंबेडकर को मरणोपरांत भारत रत्न देना ऐतिहासिक कदम था।

लेकिन राजनीतिक रूप से यह भी कहा गया कि वे विभिन्न वर्गों को खुश करने के लिए तुष्टिकरण की राह पर चल पड़े थे।


उनकी सरकार लंबी नहीं चली।

जनता दल शीघ्र ही कई भागों में टूट गया — लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, देवगौड़ा और अजित सिंह जैसे नेता अलग-अलग दिशाओं में निकल गए।

आज इन्हीं में से कुछ दल भाजपा के साथ हैं, कुछ कांग्रेस के साथ — जबकि उसी दौर की राजनीति ने भारत को स्थायी रूप से गठबंधन युग में पहुंचा दिया।



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निष्कर्ष: आरोपों से बनी सत्ता, सच्चाई से टूटी छवि


वी. पी. सिंह ने ईमानदारी और पारदर्शिता की बात की, लेकिन उनकी राजनीति अदालत में असत्य सिद्ध हुए आरोपों पर खड़ी थी।

राजीव गांधी को भ्रष्ट सिद्ध करने का जो अभियान उन्होंने चलाया, वह इतिहास में राजनीतिक अवसरवाद का प्रतीक बन गया।


अदालतों ने बोफोर्स मामले में कहा —


> “राजीव गांधी के खिलाफ कोई ठोस साक्ष्य नहीं है। रिश्वत या भ्रष्टाचार का कोई प्रमाण नहीं मिला।”




फिर भी इस अप्रमाणित आरोप ने न केवल एक प्रधानमंत्री की छवि मिटा दी, बल्कि भारतीय राजनीति को उस राह पर डाल दिया जहाँ सत्य से अधिक प्रचार और धारणा निर्णायक बन गई।


मंडल और कमंडल की राजनीति ने तब जो विभाजन पैदा किया, वह आज तक जारी है।

वी. पी. सिंह ने जिस “ईमानदारी” के नाम पर सत्ता पाई, उसी के परिणामस्वरूप देश में आरोपों, वर्गीय विभाजनों और अवसरवादी गठबंधनों की परंपरा स्थायी हो गई।


इस दृष्टि से वी. पी. सिंह वह नेता थे जिन्होंने सत्ता पाने के लिए झूठ और अवसर का उपयोग किया — और देश को सिखा गए कि राजनीतिक लाभ के लिए असत्य कितना विनाशकारी हो सकता है।





गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

एड़ी के दर्द से मिली मुक्ति जिंदगी हुआ आसान

 


पीजीआई एपेक्स ट्रामा सेंटर


प्लाज्मा रिच थेरेपी से एड़ी के दर्द से मिली मुक्ति जिंदगी हुआ आसान


 पीआरपी थिरेपी से पहली बार हुआ इलाज


 दो साल से चलना फिरना  हो गया था कठिन




बाराबंकी की 42 वर्षीय गृहिणी सुनीता वर्मा पिछले दो वर्षों से क्रॉनिक प्लांटर फेशियाटिस (एड़ी का पुराना दर्द) से परेशान थीं। रसोई में लंबे समय तक खड़े रहना, बाज़ार जाना  कठिन हो गया था।  दवाइयों और आराम से राहत न मिलने पर उन्हें एसजीपीजीआई के फिजिकल मेडिसिन एंड रिहैबिलिटेशन (पीएमआर) विभाग में रेफर किया गया।  मस्कुलोस्केलेटल अल्ट्रासाउंड और अन्य परीक्षणों के बाद पीएमआर टीम ने उन्हें अल्ट्रासाउंड-गाइडेड प्लेटलेट रिच प्लाज्मा (पीआरपी) थेरेपी दी, जिससे उन्हें  राहत मिली। थेरेपी के साथ स्ट्रेचिंग एक्सरसाइज, चाल प्रशिक्षण (गैट ट्रेनिंग) और जूते में सुधार (फुटवेयर मॉडिफिकेशन) जैसे व्यक्तिगत पुनर्वास अभ्यास भी कराया गया। छह हफ्तों में उनके दर्द में उल्लेखनीय कमी आई और तीन महीने में वे फिर से बिना किसी परेशानी के अपने दैनिक कार्य करने लगीं। अल्ट्रासाउंड जांच में ऊतकों में सुधार और सूजन में कमी की पुष्टि हुई। प्रो. सिद्धार्थ ने बताया कि यह  पहला मामला जिसमें  पीआरपी थिरेपी से इलाज किया गया। अब यह तकनीक स्थापित हो गई है। एपेक्स ट्रॉमा सेंटर के चिकित्सा अधीक्षक प्रो. राजेश हर्षवर्धन ने पीएमआर टीम को बधाई देते हुए कहा कि इस पहल से अत्याधुनिक चिकित्सा विज्ञान को रोगी देखभाल से सीधे जोड़ा गया है।


 


क्या होती है पीआरपी थेरेपी


विभाग के प्रो. सिद्धार्थ राय ने बताया कि इस तकनीक में मरीज के अपने रक्त से प्लेटलेट्स को अलग कर सटीक रूप से दर्द ग्रस्त फेशिया (ऊतक) में इंजेक्ट किया जाता है।प्लेटलेट्स में मौजूद ग्रोथ फैक्टर्स ऊतकों की मरम्मत में मदद करते हैं और सूजन को कम करते हैं। यह शरीर की प्राकृतिक उपचार प्रक्रिया को तेज करता है।


 


इन परेशानियों का भी संभव होगा इलाज


प्रो. राय के अनुसार, अल्ट्रासाउंड-गाइडेड पीआरपी थेरेपी न केवल एड़ी के दर्द (प्लांटर फेशियाटिस) में, बल्कि बर्साइटिस, अकिलीज़ टेंडिनोपैथी, गठिया, लिगामेंट चोटें और डायबिटिक फुट जटिलताओं में भी प्रभावी है।इसके अलावा, अल्ट्रासाउंड-गाइडेड ग्रोथ फैक्टर कंसन्ट्रेट थेरेपी जैसी उन्नत तकनीक भी अब स्थापित हो चुकी हैं, जो पुराने मस्कुलोस्केलेटल दर्द और उपचार-प्रतिरोधी स्थितियों में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो रही हैं।


 


हर शुक्रवार विशेष ओपीडी


प्रो. सिद्धार्थ राय ने बताया कि अब हर शुक्रवार एपेक्स ट्रॉमा सेंटर में फुट एंड एंकल रिहैबिलिटेशन क्लिनिक आयोजित की जाती है।विभाग के प्रमुख प्रो. अरुण श्रीवास्तव ने कहा कि यह पहल निचले अंगों की चोटों और पुराने दर्द से पीड़ित मरीजों के पुनर्वास को तेज़ करेगी। इसके अलावा मधुमेह, वृद्धावस्था या अत्यधिक कार्यभार से उत्पन्न जटिलताओं से ग्रस्त लोगों के लिए भी यह क्लिनिक एक बड़ा सहारा साबित होगी।

रविवार, 5 अक्टूबर 2025

लंबी जिंदगी अनुशासन, शांति, परिवार और दोस्तों के साथ अच्छे संबंध, प्रकृति के साथ संपर्क, emotional stability, कोई चिंता नहीं, कोई पछतावा नहीं, भरपूर सकारात्मकता और टॉक्सिक लोगों से दूर रहने" को दिया था।

 




जन्म की तारीख और समय: 4 मार्च 1907, सान फ्रांसिस्को, कैलिफ़ोर्निया, संयुक्त राज्य अमेरिका

मृत्यु की जगह और तारीख: 19 अगस्त 2024, Olot, स्पेन

राष्ट्रीयता: अमेरिकी, स्पेनी

माता-पिता: जोसेफ ब्रान्यास जूलिया


दुनिया की लगभग सभी सभ्यताओं में चाहे उनकी धार्मिक मान्यताएं जो भी हों, एक बात यह कॉमन है कि सब लोग लम्बी उम्र जीना चाहते हैं जिसमे बीमारियां लगभग न हों।बल्कि कुछ तो अमर भी होना  चाहते हैं। लोगों की इस इच्छा का फायदा उठाते हुए दुनिया भर के वैज्ञानिक लम्बे जीवन के रहस्यों का पता लगाने हेतु शोध में लगे हुए हैं। 


अभी पिछले हफ्ते प्रकाशित हुए एक बेहद जटिल तकनीकी तरीकों का इस्तेमाल कर हुए वैज्ञानिक अध्ययन में बड़ी दिलचस्प जानकारियां सामने आई हैं। यह अध्ययन अभी दुनिया की सबसे लम्बे समय तक और बगैर किसी बीमारी के जीवित रहने वाली महिला (117 साल की उम्र में पिछले साल २०२४ में उनका देहांत हुआ) महिला "मारिया ब्रान्यास" पर कई वर्षों तक हुए शोध पर आधारित है। उनके मरने से कई साल पहले से ही वैज्ञानिकों के एक समूह ने दुनिया की सबसे उम्रदराज इस महिला के Genes , प्रोटीन्स, मेटाबॉलिस्म, और उनके खानपान से संबधित विषयों पर गहन शोध आरम्भ कर दिया था, —और शोधकर्ताओं का कहना है कि उनकी लंबी उम्र सिर्फ़ सौभाग्य की वजह से नहीं थी।


अपने एक बयान में Maria ब्रान्यास ने अपनी लंबी उम्र का श्रेय "अनुशासन, शांति, परिवार और दोस्तों के साथ अच्छे संबंध, प्रकृति के साथ संपर्क, emotional stability, कोई चिंता नहीं, कोई पछतावा नहीं, भरपूर सकारात्मकता और टॉक्सिक लोगों से दूर रहने" को दिया था।


हालाँकि वैज्ञानिक शोध में जो परिणाम मिले उसमे संक्षेप में निम्न बातें प्रमुखता से सामने आईं:   


Genetics ने अहम भूमिका निभाई: उनके पास कुछ दुर्लभ gene variants थे जो longevity और मजबूत immune system से जुड़े हुए थे। उनके शरीर में aging धीमी होने के संकेत दिखे, जैसे कि लंबे telomeres (DNA के सुरक्षा देने वाले सिरे) और उनके blood cells में कम age-related mutations।


उनका immune system युवा बना रहा: ज़्यादातर बुज़ुर्गों के विपरीत, उनके immune response में आश्चर्यजनक रूप से सक्रियता थी, जिससे वे अपनी उम्र के अन्य लोगों की तुलना में बीमारियों से बेहतर तरीके से लड़ पाईं।


सरल diet और lifestyle: मारिया  ने एक सीधी-सादी diet अपनाई—अधिकतर eggs, meat और कुछ सब्जियाँ। उन्होंने processed foods से परहेज़ किया और न तो धूम्रपान किया, न शराब पी। वे ज़्यादातर जीवन भर स्वतंत्र रहीं, जिससे उनका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा बना रहा।


कम inflammation levels: Chronic inflammation कई age-related बीमारियों से जुड़ी होती है। मारिया के शरीर में inflammation का स्तर कम था, जिससे उन्हें heart disease और Alzheimer’s जैसी बीमारियों से बचाव मिला हो सकता है।


Gut health भी महत्वपूर्ण रही: उनके gut bacteria युवा लोगों जैसे थे, जिससे उन्हें digestion, immunity और समग्र स्वास्थ्य में मदद मिली।


इस शोध पत्र में उनकी रोजाना की डाइट क्या होती थी उसका भी ब्यौरा बड़े विस्तार से दिया गया है, ऐसा भोजन जो वे लगभग पिछले २० सालों से लगातार कर रही थीं। वैसे तो यह मुख्यतः मेडिटरेनीयन डाइट थी जिसे पहले से भी वैज्ञानिकों द्वारा बहुत स्वास्थप्रद माना गया पर सबसे विलक्षण बात जो मुझे लगी वह हर दिन नियमित रूप से दही (योगर्ट) का सेवन करती थीं लगभग दिन में ३ बार. लंच, आफ्टरनून के स्नैक में और रात को भी। 


आप अपने जेनेटिक मेकअप को तो बदल नहीं सकते, पर दही तो खा ही सकते हैं। सबको आसानी से उपलब्ध है।

पिंक वेव’ में उमड़ा लखनऊ, ब्रेस्ट कैंसर जागरूकता की दी अलख

 





पिंक वेव’ में उमड़ा लखनऊ, ब्रेस्ट कैंसर जागरूकता की दी अलख


 एसजीपीजीआई व 41 क्लब ऑफ इंडिया ने दिया ‘अर्ली डिटेक्शन’ का संदेश



समय पर जांच ही जीवन की कुंजी



महिलाओं में बढ़ते ब्रेस्ट कैंसर को लेकर जनजागरूकता फैलाने के उद्देश्य से रविवार को राजधानी में ‘पिंक वेव’ अभियान का आयोजन हुआ। संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआई) के ब्रेस्ट हेल्थ प्रोग्राम और 41 क्लब ऑफ इंडिया एरिया-9 के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस कार्यक्रम का उद्देश्य था — “अर्ली डिटेक्शन से जीवन की रक्षा”।

कार्यक्रम में लखनऊ गोल्फ क्लब, इनर व्हील क्लब सहित कई सामाजिक संगठनों ने भाग लिया। आयोजन को इंडियन ऑयल और ग्यान दूध का सहयोग मिला।


सुबह 7 बजे आयोजित वॉकाथन का शुभारंभ प्रमुख सचिव, उद्योग अलोक कुमार, प्रमुख सचिव, योजना अलोक कुमार (III) तथा डीसीपी, महिला प्रकोष्ठ ममता रानी ने किया।

इस अवसर पर एसजीपीजीआई के एंडोक्राइन सर्जरी विभागाध्यक्ष डॉ. गौरव अग्रवाल, लखनऊ गोल्फ क्लब के सचिव राजनीश सेठी, सरस्वती डेंटल कॉलेज के डॉ. रजत माथुर, 41 एसोसिएशन ऑफ इंडिया के क्लब 95 के चेयरमैन विवेक जायसवाल, नेक्स बोर्ड सदस्य डॉ. पियूष अग्रवाल तथा एरिया चेयरमैन एरिया-9 मनीष टंडन सहित कई गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे। लगभग 300 से अधिक प्रतिभागियों ने 3 किलोमीटर लंबे वॉकाथन में भाग लिया।


वॉकाथन के बाद सुबह 8 बजे विंटेज कार रैली का आयोजन हुआ, जो लोहीया पथ से होते हुए लखनऊ गोल्फ ड्राइविंग रेंज पर समाप्त हुई।


कार्यक्रम के दौरान एसजीपीजीआई ब्रेस्ट हेल्थ प्रोग्राम की टीम और लखनऊ एंडोक्राइन एंड ब्रेस्ट सर्जरी क्लब के चिकित्सकों ने महिलाओं से मासिक ब्रेस्ट सेल्फ-एग्जामिनेशन करने और 40 वर्ष से अधिक आयु में वार्षिक जांच कराने की अपील की।

डॉ. गौरव अग्रवाल ने कहा, “ब्रेस्ट कैंसर के अधिकतर मरीज प्रारंभिक अवस्था में पहचान होने पर पूरी तरह ठीक हो सकते हैं। महिलाओं को बिना डर और झिझक के लक्षणों पर ध्यान देना चाहिए और तुरंत विशेषज्ञ से परामर्श लेना चाहिए।”


एसजीपीजीआई की टीम ने लखनऊ गोल्फ क्लब ड्राइविंग रेंज पर कैडीज और उनके परिवारों के लिए भी जांच एवं परामर्श शिविर आयोजित किया, ताकि समाज के हर वर्ग में जागरूकता बढ़ाई जा सके।


कार्यक्रम के अंत में आयोजकों ने कहा कि “पिंक वेव” के जरिए यह संदेश दिया गया कि ब्रेस्ट कैंसर से डरने की नहीं, समय रहते जांच कराने की ज़रूरत है।

भारतीय महिलाओ ने भी पाकिस्तान चटाई धूल



भारतीय महिलाओ ने भी पाकिस्तान को चटाई धूल



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🇮🇳 भारतीय शेरनियों का जलवा, पाकिस्तान पर 88 रन से शानदार जीत

🇮🇳 भारत ने पाकिस्तान को 88 रन से हराया


बल्ले और गेंद दोनों से दम दिखाया, क्रांति गौड़ बनीं ‘प्लेयर ऑफ द मैच’


कोलंबो, 5 अक्टूबर।

महिला वर्ल्ड कप 2025 के बहुप्रतीक्षित मुकाबले में भारत ने पाकिस्तान को 88 रन से हराकर टूर्नामेंट में अपनी दूसरी बड़ी जीत दर्ज की। यह मुकाबला भारतीय टीम के अनुशासित प्रदर्शन और मजबूत रणनीति का प्रमाण बन गया।



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🏏 भारत की बल्लेबाज़ी — संभली शुरुआत, दमदार अंत


पहले बल्लेबाज़ी करने उतरी भारतीय टीम ने निर्धारित 50 ओवर में 247 रन बनाए।

टीम की शुरुआत सावधानी भरी रही लेकिन मध्यक्रम ने मोर्चा संभाल लिया।


बल्लेबाज़ों का योगदान इस प्रकार रहा:


हरलीन देओल — 46 रन (62 गेंद, 5 चौके)


ऋचा घोष — 35* रन (26 गेंद, 3 चौके)


स्मृति मंधाना — 23 रन


प्रतिका रावल — 31 रन


जेमिमा रोड्रिग्स — 27 रन


दीप्ति शर्मा — 18 रन



भारत की पारी में आख़िरी 10 ओवरों में तेज़ रन बने, जहां ऋचा घोष और दीप्ति शर्मा ने तेज़ साझेदारी की और स्कोर को 240 से ऊपर पहुंचाया।



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🏹 पाकिस्तान की पारी — सिद्रा अमीन का संघर्ष बेकार


248 रन के लक्ष्य का पीछा करते हुए पाकिस्तान की टीम शुरुआत में ही दबाव में आ गई।

सिद्रा अमीन ने अकेले दम पर संघर्ष करते हुए 81 रन (95 गेंद, 8 चौके) बनाए, लेकिन उन्हें कोई स्थायी साझेदार नहीं मिला।


बाकी बल्लेबाज़ों का हाल यह रहा:


मुनिबा अली — 14 रन


निदा डार — 18 रन


बिस्मा मारूफ — 9 रन


अलिया रियाज — 12 रन


बाकी बल्लेबाज़ दहाई अंक तक नहीं पहुंच पाईं।



पूरी पाकिस्तानी टीम 159 रन पर ऑल आउट हो गई और भारत ने मैच 88 रन से जीत लिया।



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🎯 भारत की गेंदबाज़ी — सटीक लाइन और कमाल का अनुशासन


भारतीय गेंदबाज़ों ने एक बार फिर शानदार टीमवर्क दिखाया।


क्रांति गौड़ — 10 ओवर में 3 विकेट / 20 रन


दीप्ति शर्मा — 3 विकेट / 45 रन


स्नेह राणा — 2 विकेट / 34 रन


रेणुका सिंह ठाकुर — 1 विकेट



क्रांति गौड़ ने पाकिस्तान के टॉप ऑर्डर को तहस-नहस कर दिया और इसी कारण उन्हें ‘प्लेयर ऑफ द मैच’ घोषित किया गया।



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🗣️ कप्तान की प्रतिक्रिया


भारतीय कप्तान ने मैच के बाद कहा —


> “टीम ने योजनानुसार खेला। बल्लेबाज़ों ने शुरुआत दी, और गेंदबाज़ों ने उसे जीत में बदला। यह जीत सिर्फ स्कोरबोर्ड की नहीं, टीम की एकजुटता की जीत है।”





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💬 दर्शकों की प्रतिक्रिया


कोलंबो स्टेडियम में भारतीय समर्थकों ने टीम के हर विकेट पर जोश से झंडे लहराए। सोशल मीडिया पर भी #IndWvPakW और #BlueBrigade जैसे ट्रेंड्स छा गए।



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🏆 नतीजा


भारत — 247/8 (50 ओवर)

पाकिस्तान — 159 ऑल आउट (42.1 ओवर)

भारत ने 88 रन से जीत दर्ज की


प्लेयर ऑफ द मैच: क्रांति गौड़ (3/20)



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गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

ट्रांसप्लांट के बाद भी दौड़ती है जिंदगी

 





ट्रांसप्लांट के बाद भी दौड़ती है जिंदगी


किडनी ट्रांसप्लांट के बाद भी थमी नहीं जिंदगी, बाराबंकी के बलबीर सिंह ने ओलंपिक में जीते पदक


कुमार संजय

किडनी ट्रांसप्लांट के बाद जिंदगी थमती नहीं है, अगर हिम्मत और हौसला हो तो इंसान हर मुश्किल को मात दे सकता है। बाराबंकी के बलबीर सिंह इसका जीवंत उदाहरण हैं। 2011 में उनका किडनी ट्रांसप्लांट हुआ था, लेकिन आज वह ऑर्गन ट्रांसप्लांट ओलंपिक में चार पदक जीतकर न सिर्फ देश का मान बढ़ा चुके हैं, बल्कि उन तमाम मरीजों को राह दिखा रहे हैं, जो ट्रांसप्लांट के बाद खुद को कमजोर समझते हैं।


बलबीर नियमित रूप से संजय गांधी पीजीआई के नेफ्रोलॉजी विभागाध्यक्ष प्रो. नरायन प्रसाद से फॉलोअप कराते हैं और डॉक्टर की सलाह से दवाएं समय पर लेते हैं। वे बताते हैं कि अनुशासन और मेहनत से वह पूरी तरह फिट हैं। हाल ही में 21 अगस्त को जर्मनी में आयोजित ऑर्गन ट्रांसप्लांट ओलंपिक में बैडमिंटन में कांस्य पदक जीतकर लौटे हैं। इस दौरान उन्होंने हंगरी और ब्रिटेन के खिलाड़ियों को हराकर यह उपलब्धि हासिल की। इससे पहले वह अर्जेंटीना, स्पेन और ब्रिटेन में आयोजित प्रतियोगिताओं में गोल्ड और सिल्वर पदक जीत चुके हैं।


बलबीर रोजाना दो घंटे पसीना बहाकर अभ्यास करते हैं। उनका कहना है कि किडनी ट्रांसप्लांट के बाद फिट रहने के लिए नियमित व्यायाम और दवा बेहद जरूरी है। अंगदाता का आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा— “अगर अंगदान न होता तो शायद यह जिंदगी और यह उपलब्धियां कभी संभव न होतीं।”


उन्होंने लोगों से अपील की कि अंगदान के लिए आगे आएं, खासकर ब्रेन डेड व्यक्ति के परिजन साहस दिखाकर अंगदान का निर्णय लें। यही कदम किसी और की जिंदगी को नई दिशा दे सकता है।


प्रो. नारायण प्रसाद, विभागाध्यक्ष, नेफ्रोलॉजी, एसजीपीजीआई ने कहा—

“बलबीर जैसे मरीज हमारी प्रेरणा हैं। किडनी ट्रांसप्लांट के बाद अगर मरीज अनुशासन से दवाएं लें, नियमित जांच कराएं और जीवनशैली पर नियंत्रण रखें तो वह सामान्य व्यक्ति की तरह जीवन जी सकते हैं। बलबीर का प्रदर्शन यह संदेश देता है कि ट्रांसप्लांट कोई बाधा नहीं बल्कि नई जिंदगी की शुरुआत है।”

बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

रेस्ट लेग सिंड्रोम से परेशान को चैन की नींद देगा टीईएनएस थेरेपी

 




रेस्ट लेग सिंड्रोम से परेशान को चैन की नींद देगा टीईएनएस थेरेपी


थिरेपी से  पैरों की बेचैनी, नींद की कमी और अवसाद से मिला छुटकारा


जिनमें दवा से इलाज नहीं संभव उनमें यह थिरेपी कारगर



कुमार संजय


 


रेस्टलेस लेग सिंड्रोम (आरएलएस) ग्रस्त लोगों को टीईएनएस (ट्रांस क्यूटेनियस इलेक्ट्रिक नर्व स्टिमुलेशन) थिरेपी से राहत मिली है। संजय गांधी पीजीआई के न्यूरोलॉजी विभाग के प्रो. विमल कुमार पालीवाल ने लिवर सिरोसिस से ग्रस्त 25 मरीजों पर शोध कर यह साबित किया है। प्रो.पालीवाल के मुताबिक लिवर सिरोसिस से ग्रस्त  25 मरीजों को शोध में शामिल किया गया। सिरोसिस के आलावा गर्भावस्था, किडनी की बीमारी होने पर दवा से साइड इफेक्ट की आशंका रहती है ऐसे में इनमें यह थिरेपी काफी कारगर साबित होती है। थिरेपी के तहत  रोज 30 मिनट के लिए 6 सप्ताह तक  टीईएनएस थेरेपी दी गई।  पैरों की बेचैनी, नींद न आने की समस्या, और चिंता-अवसाद जैसे लक्षणों में जबरदस्त सुधार देखने को मिला।


क्या है रेस्टलेस लेग्स सिंड्रोम


रेस्टलेस लेग्स सिंड्रोम (आरएलएस) एक तंत्रिका  संबंधी विकार है जिसमें व्यक्ति को पैरों में अजीब सी झुनझुनी, खिंचाव या चुभन महसूस होती है। ये लक्षण तब और बढ़ जाते हैं जब व्यक्ति विश्राम कर रहा होता है या  रात को सोते समय। मरीजों को बार-बार अपने पैर हिलाने या चलने की इच्छा होती है, जिससे नींद में खलल पड़ता है और मानसिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक असर पड़ता है।


 


यह मिला परिणाम


- आरएलएस -के गंभीरता को मापने वाला स्कोर 22.28 था।  वह 1 सप्ताह के बाद घटकर 6.08।  4 सप्ताह बाद 6.7।  6 सप्ताह बाद 5.4 रह गया।


-  नींद की गुणवत्ता में सुधार हुआ- स्कोर 9.6 से घटकर 4.7 हो गया।


- जीवन की गुणवत्ता -स्कोर 73 से बढ़कर 94.9 हो गया।


 अवसाद - स्कोर 19.2 से घटकर 7.5 हो गया।


 चिंता -  स्कोर 25.4 से घटकर 8.9 हो गया


 


 क्या है टीईएनएस थेरेपी


 इसमें शरीर पर हल्के इलेक्ट्रिक करंट का इस्तेमाल होता है, जिससे नसों को आराम मिलता है।  बैटरी से संचालित एक डिवाइस के ज़रिए हल्की विद्युत तरंगें मरीजों की टांगों पर लगाई गईं।


 


क्यों होती है परेशानी


 कई बार आयरन और आवश्यक पोषक तत्वों की कमी, साथ ही खून में विषैले तत्वों का जमाव हो सकता है। ये सभी कारक तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करते हैं और आरएलएस जैसी समस्याओं को जन्म देते हैं।


 


 यह शोध में रहे शामिल


 न्यूरोलॉजी विभाग के प्रो. विमल कुमार पालीवाल और डा. स्वांशु बत्रा,  हेपेटोलॉजी विभाग प्रमुख  प्रो. अमित गोयल ने  ट्रांस क्यूटेनियस इलेक्ट्रिक नर्व स्टिमुलेशन इन रेस्टलेस लेग सिंड्रोम विद सिरोसिस: ए पायलट स्टडी" शीर्षक से शोध किया जिसे एक्सपर्ट रिव्यू ऑफ मेडिकल डिवाइसेस  अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा जर्नल ने स्वीकार किया है।

सुपारी, गुटखा और पान मसाला खाने वालों में आम बीमारी ओरल सबम्यूकोस फाइब्रोसिस के इलाज को लेकर नई उम्मीद

 

फाइब्रोसिस में राहत देगा हर्बल नुस्खा


गोरखमुंडी, तुलसी और शहद से बनी दवा से मुँह की बीमारी में राहत


 शोध को नेशनल जर्नल ऑफ मैक्सिलोफेशियल सर्जरी ने किया स्वीकार


कुमार संजय


सुपारी, गुटखा और पान मसाला खाने वालों में आम बीमारी ओरल सबम्यूकोस फाइब्रोसिस के इलाज को लेकर नई उम्मीद सामने आई है। शोध विज्ञानियों ने देखा है कि गोरखमुंडी, तुलसी और शहद से बने हर्बल अर्क को मानक इलाज के साथ देने से मरीजों को मुँह खोलते समय होने वाले दर्द और जलन से तेज़ राहत मिली।

शोधकर्ताओं ने 60 मरीजों को दो समूहों में बाँटा। 

पहले समूह को सिर्फ मानक इलाज दिया गया, जिसमें स्टेरॉयड इंजेक्शन, हायल्यूरोनिडेज़ और एंटीऑक्सीडेंट दवाएँ शामिल थीं। दूसरे समूह को वही मानक इलाज, लेकिन उसके साथ गोरखमुंडी, तुलसी और शहद से तैयार हर्बल अर्क भी दिया गया। देखा गया कि हर्बल अर्क लेने वाले मरीजों में जलन और दर्द में उल्लेखनीय कमी देखी गई । 

वहीं, सूजन से जुड़े बायोमार्कर इंटरल्यूकिन-6  का स्तर दोनों समूहों में घटा, लेकिन सिर्फ मानक इलाज लेने वाले मरीजों में यह कमी तुलनात्मक रूप से अधिक पाई गई।  शोधकर्ताओं का कहना है कि यह हर्बल अर्क बीमारी को पूरी तरह खत्म करने वाली दवा नहीं है, लेकिन इसे सहायक इलाज  के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है, ख़ासकर शुरुआती मरीजों में। 


क्या है फाइब्रोसिस


ओरल सबम्यूकोस फाइब्रोसिस   मुंह की गंभीर बीमारी है, जो पान, गुटखा और तंबाकू के सेवन से होती है। इसमें मुँह की झिल्ली सख्त हो जाती है, मुँह खोलना कठिन होता है और दर्द या जलन होती है। यह पूर्व-कैंसर अवस्था है। रोकथाम और समय पर इलाज जरूरी है।




हर्बल अर्क के घटक


गोरखमुंडी  — सूजन और दर्द कम करने वाली जड़ी-बूटी


तुलसी — रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली औषधि


शहद — घाव भरने और जलन घटाने में उपयोगी






 शोध टीम


किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी से

डॉ. ऋचा, प्रो. विभा सिंह, डॉ. शादाब मोहम्मद, प्रो. यू. एस. पाल, डॉ. गीता सिंह, डॉ. अमिया अग्रवाल, डॉ. अरुणेश के. तिवारी।

सेंटर फॉर्म फॉर एडवांस्ड रिसर्च, केजीएमयू के

डॉ. नीतू निगम।

आयुर्वेद आचार्य

डॉ. अभया एन. तिवारी।

सेवाथा यूनिवर्सिटी, चेन्नई के

डॉ. शांतोष कन्ना।

शोध को 

नेशनल जर्नल ऑफ मैक्सिलोफेशियल सर्जरी ने हाल में स्वीकारा किया है।

सोमवार, 29 सितंबर 2025

पीजीआई में राष्ट्रीय पोषण माह पर जागरूकता कार्यक्रम

 



पीजीआई में राष्ट्रीय पोषण माह पर जागरूकता कार्यक्रम


 एसजीपीजीआईएमएस के एपेक्स ट्रॉमा सेंटर में राष्ट्रीय पोषण माह के अवसर पर जन-जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किया गया। कार्यक्रम में डॉ. एल. के. भारती (नोडल ऑफिसर), डॉ. पुलक (प्रमुख, आर्थोपेडिक्स विभाग), डॉ. सुरूचि (एनेस्थीसिया विभाग) और डॉ. रोमिल (मनोचिकित्सा विभाग) उपस्थित रहे।


कार्यक्रम का संचालन डायटिशियन मोनिका दीक्षित एवं उनकी टीम ने किया। वरिष्ठ डायटिशियन अर्चना सिन्हा ने संतुलित आहार की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए बताया कि यह शरीर को ऊर्जावान बनाए रखता है। डॉ. निरुपमा सिंह ने हर आयु वर्ग के लिए सभी पोषक तत्वों को आहार में शामिल करने का संदेश दिया। डायटिशियन प्रीति यादव ने लोगों से आग्रह किया कि वे धरती माँ के नाम से एक फलदार या फूलदार पौधा लगाएं।


कार्यक्रम में पोषण क्विज़ और खेल गतिविधियों का आयोजन भी किया गया। वरिष्ठ डायटिशियन शिल्पी पांडे ने बताया कि “पोषण केवल भोजन तक सीमित नहीं, बल्कि जीवनशैली और स्वास्थ्य को प्रभावित करता है।” रीता आनंद और दीपा मिश्रा ने “पोषक थाली – संतुलित आहार” के महत्व को रोचक तरीके से प्रदर्शित किया।


मुख्य अतिथियों ने कहा कि राष्ट्रीय पोषण माह छोटे प्रयासों से बड़े स्तर पर स्वास्थ्य सुधार की प्रेरणा देता है।

आयुष्मान भारत में सहयोग के लिए प्रो हर्षवर्धन को उत्कृष्ट सम्मान

 


किडनी मरीजों के लिए सहारा बना आयुष्मान 


 पीजीआई  हृदय और इमरजेंसी मेडिसिन के मरीज को आयुष्मान से मिली रहत



संजय गांधी पीजीआई में  आयुष्मान भारत मरीजों के लिए जीवन का नया सहारा बनकर उभरा है। खासकर गरीब और बुजुर्ग मरीजों के लिए यह योजना किसी वरदान से कम नहीं। वर्ष 2022–23 से 2024–25 (31 जुलाई तक) के बीच संस्थान में 31,000 से अधिक मरीजों ने इसका लाभ उठाया। संस्थान के चिकित्सा अधीक्षक प्रोफेसर राजेश हर्षवर्धन ने बताया कि  नेफ्रोलॉजी विभाग सबसे आगे रहा, जहाँ किडनी रोग से जूझ रहे 4,287  गंभीर बीमारी में यह आर्थिक राहत मरीजों और उनके परिवारों के लिए उम्मीद की किरण बन गई।


न्यूरो और इमरजेंसी विभाग में भी बढ़ा 


न्यूरोसर्जरी विभाग में तीन वर्षों में 2,763 मरीज और इमरजेंसी मेडिसिन विभाग में 2,129 मरीजों ने आयुष्मान भारत की मदद पाई। 


कैंसर और हार्मोनल बीमारियों में भी मदद

कैंसर रोगियों के लिए रेडियोथेरेपी विभाग में 2,604 मरीजों ने और एंडोक्राइन सर्जरी विभाग में 2,912 मरीजों ने योजना के तहत महंगे इलाज का लाभ लिया। इन विभागों में इलाज की उच्च लागत को देखते हुए आयुष्मान भारत गरीब मरीजों के लिए जीवनदायिनी साबित हुई।


दिल, दिमाग और हड्डियों का इलाज भी आसान


कार्डियोलॉजी विभाग: 1,254 मरीज


न्यूरोलॉजी विभाग: 1,757 मरीज


गैस्ट्रोएंटेरोलॉजी विभाग: 1,209 मरीज


ऑर्थोपेडिक्स विभाग: 906 मरीज



यूरोलॉजी: 972


एन्डोक्रिनोलॉजी: 203


नवजात विज्ञान: 342


पल्मोनरी मेडिसिन: 345


रेडियो डायग्नोसिस: 240


नेत्र विज्ञान: 241


मेडिकल जेनेटिक्स: 95


मातृ एवं प्रजनन स्वास्थ्य: 215



वर्ष-दर-वर्ष बढ़ते आंकड़े

संस्थान में आयुष्मान भारत योजना से लाभ पाने वाले मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 2022–23 में 5,526 मरीज, 2023–24 में 9,706 और 2024–25 (31 जुलाई तक) में 16,179 मरीजों ने योजना का लाभ उठाया।




आयुष्मान भारत में सहयोग के लिए प्रोफेसर हर्षवर्धन को उत्कृष्ट सम्मान


 संजय गांधी पीजीआई के प्रो. (डॉ.) आर. हर्षवर्धन, नोडल अधिकारी एबी-पीएमजेएवाई एवं प्रमुख, अस्पताल प्रशासन विभाग को आयुष्मान भारत – प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में सराहनीय योगदान के लिए उत्कृष्टता सम्मान प्रदान किया गया। यह सम्मान अटल बिहारी वाजपेयी वैज्ञानिक सम्मेलन केंद्र,  में आयोजित आयुष्मान संवाद कार्यक्रम में उप मुख्यमंत्री व स्वास्थ्य मंत्री ब्रजेश पाठक ने प्रदान किया। कार्यक्रम का आयोजन साचीस (समग्र स्वास्थ्य एवं एकीकृत सेवा एजेंसी) द्वारा योजना के सात वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में किया गया।


शनिवार, 27 सितंबर 2025

कोविड-19 टीकाकरण और कैंसर: दक्षिण कोरिया के बड़े अध्ययन में मिले चिंताजनक संकेत




कोविड-19 टीकाकरण और कैंसर: दक्षिण कोरिया के बड़े अध्ययन में मिले चिंताजनक संकेत


दक्षिण कोरिया में किए गए एक बड़े जनसंख्या आधारित अध्ययन ने यह संकेत दिए हैं कि कोविड-19 टीकाकरण के बाद एक वर्ष के भीतर कुछ प्रकार के कैंसर का खतरा बढ़ सकता है। यह अध्ययन अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका बायोमार्कर रिसर्च में प्रकाशित हुआ है।


अध्ययन का तरीका


यह अध्ययन स्वास्थ्य बीमा से जुड़ी राष्ट्रीय डाटाबेस पर आधारित था। इसमें करीब 84 लाख वयस्कों को शामिल किया गया। शोधकर्ताओं ने “प्रोपेंसिटी स्कोर मैचिंग (Propensity Score Matching)” नामक सांख्यिकीय तकनीक का प्रयोग किया, ताकि टीका लगवाने और न लगवाने वाले समूहों को उम्र, लिंग और अन्य स्वास्थ्य कारकों के हिसाब से तुलनात्मक रूप से समान बनाया जा सके।


अंतिम विश्लेषण में करीब 5.95 लाख टीकाकृत और 23.8 लाख बिना टीका लगे व्यक्तियों की तुलना की गई।


इसके बाद एक वर्ष की अवधि में इन व्यक्तियों में नए कैंसर मामलों की दर (इंसिडेंस) को दर्ज किया गया और फिर “हैज़र्ड रेशियो (Hazard Ratio)” के आधार पर जोखिम का अनुमान लगाया गया।



अध्ययन के निष्कर्ष


अध्ययन में यह पाया गया कि कोविड-19 वैक्सीन लगवाने वाले व्यक्तियों में थायरॉयड कैंसर का खतरा 35 प्रतिशत, पेट का 34 प्रतिशत, आंत्र का 28 प्रतिशत, फेफड़े का 53 प्रतिशत, स्तन का 20 प्रतिशत और प्रोस्टेट कैंसर का 69 प्रतिशत अधिक पाया गया।


टीके के प्रकार, लिंग और उम्र के आधार पर फर्क


डीएनए आधारित (सीडीएनए) टीकों से प्रोस्टेट और फेफड़े के कैंसर का खतरा अधिक पाया गया, जबकि मैसेंजर आरएनए (एमआरएनए) आधारित टीकों से स्तन कैंसर का खतरा बढ़ा।


पुरुषों में पेट और फेफड़े के कैंसर का जोखिम अधिक पाया गया, जबकि महिलाओं में थायरॉयड और आंत्र कैंसर का।


65 वर्ष से कम उम्र वालों में थायरॉयड और स्तन कैंसर का खतरा खास तौर पर बढ़ा दिखा।

इसके अलावा, जिन लोगों ने बूस्टर खुराक ली, उनमें पेट और अग्न्याशय के कैंसर का खतरा बढ़ने की संभावना सामने आई।



आशंका किस तरह जताई गई और वैज्ञानिकों में शोर


शोधकर्ताओं ने कहा कि इतने बड़े समूह में एक जैसी प्रवृत्ति दिखना महज संयोग नहीं हो सकता। उनका मानना है कि यह “स्वास्थ्य नीति-निर्माताओं के लिए चेतावनी की घंटी” है और आगे गहन जैविक अध्ययनों की आवश्यकता है।

इस अध्ययन के प्रकाशन के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहस छिड़ गई। वैक्सीन समर्थक वैज्ञानिकों का कहना है कि यह केवल सांख्यिकीय सहसंबंध है, कारण-परिणाम का प्रमाण नहीं। जबकि आलोचक इसे अब तक का “सबसे ठोस जनसंख्या-आधारित संकेत” मान रहे हैं और कैंसर जैसी गंभीर बीमारी पर और अधिक सतर्कता बरतने की मांग कर रहे हैं।



शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

संजय गांधी पीजीआई का न्यूरो सर्जरी विभाग: देश में नई तकनीकों का शिखर

 


   


संजय गांधी पीजीआई का न्यूरो सर्जरी विभाग: देश में नई तकनीकों का शिखर


 देश के दूसरे संस्थान का दर्जा प्राप्त संजय गांधी पीजीआई का न्यूरो सर्जरी विभाग


आंख के बगल से दिमाग के स्कल बेस के ट्यूमर की  सर्जरी तकनीक स्थापित


जटिल स्कल बेस के अंदर भी सर्जरी की नई तकनीक स्थापित  


 


संजय गांधी पीजीआई का न्यूरो सर्जरी विभाग ने एक महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। यह विभाग देश का दूसरा ऐसा संस्थान बन गया है, जहां दिमाग के निचले हिस्से (स्कल बेस) के ट्यूमर और एनीऑरिज्म की सर्जरी बिना सिर खोले, आंख के किनारे से दिमाग के अंदर पहुंच कर करने की तकनीक स्थापित की गई है। इस तकनीक को "ट्रांस आर्बिटल एप्रोच" कहा जाता है, जो एडवांस इंडोस्कोपी के माध्यम से संभव हो पाई है। इस तकनीक को दो साल पहले स्थापित किया गया था और अब तक लगभग 25 मरीजों में सफल सर्जरी हो चुकी है। दूसरी तकनीक, "ट्रांस केवरनेस एप्रोच" के जरिए कान के पास स्थित केवरनेस साइनस से स्कल बेस की जटिल सर्जरी की जा सकती है।


विभाग के  प्रो. कुंतल कांति दास ने कहा, "यह सम्मान केवल एक सर्जन का नहीं बल्कि विभाग के सभी सर्जनों की मेहनत का परिणाम है। यह हमें और काम करने के लिए प्रेरित करता है और संस्थान निदेशक के सहयोग के बिना यह संभव नहीं हो सकता था।"


 


संजय गांधी पीजीआई को प्रतिष्ठित रैंकिंग


 


प्रमुख शोध एजेंसी द्वारा संजय गांधी पीजीआई के न्यूरो सर्जरी विभाग को भारत में दूसरा सर्वश्रेष्ठ और एशिया में 9वां स्थान दिया गया है। वैश्विक स्तर पर यह विभाग 65वें स्थान पर है। यह उपलब्धि रोगी देखभाल, शोध प्रकाशनों और पूर्व छात्रों के सामाजिक योगदान की वजह से मानी जाती है।


 


गामा नाइफ की बडे  ट्यूमर के इलाज होगी भूमिका


प्रो. कुंतल ने बताया कि अब तक माना जाता रहा है कि गामा नाइप का की जरूरत छोटे ट्यूमर में होती है लेकिन अब बडे ट्यूमर में इसकी जरूरत है। बडे ट्यूमर को पूरा निकलाने में कई बार दिमाग को नुकसान होने की आशंका रहती है ऐसे में हम लोग नीयर टोटल रीमूवल करते है बचे हिस्से को गामा नाइफ से रेडियन देकर नष्ट करते है।  जागरूकता के कारण अब छोटे ट्यूमरे के मरीज भी आने लगे कई बार लक्षण के आधार पर भी छोटे ट्यूमर पकड़ में आ जाते है।





सालाना शोध कार्य और परियोजनाएं


 


प्रति वर्ष 40 से 45 उच्च गुणवत्ता वाले शोध पत्र प्रकाशित किए जाते हैं।


 


30 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की जा चुकी हैं।


 


6 करोड़ रुपये से अधिक के शोध परियोजनाएं चल रही हैं।


 


मल्टी-सेंट्रिक शोध परियोजनाओं का संचालन हो रहा है।


15 फीसदी लोग वैरिकोज वेन और डीवीटी से हो सकते हैं प्रभावित

 











पीजीआई में वीनस डिजीज में सीएमई


ड्राइवर, ऑफिस कर्मचारी, गर्भवती महिलाएं और बुजुर्ग में पैर की नसों में रुकावट की आशंका 



15 फीसदी लोग वैरिकोज वेन और डीवीटी से हो सकते हैं प्रभावित


 इलाज की नई तकनीक से पैर काटने की दर में आई है कमी


 


 10-15 फीसदी में वैरिकोज वेन की समस्या होती है।  डीप वेन थ्रोम्बोसिस  लगभग 1-2 फीसदी लोगों को प्रभावित करता है। ये दोनों नसों से जुड़ी गंभीर बीमारियां हैं जिसका सही समय पर  सही इलाज न मिलने पर खतरा बन सकती हैं। खासकर उन लोगों में जोखिम अधिक होता है, जिनका काम लंबे समय तक खड़े रहने या बैठने वाला होता है, जैसे ड्राइवर, ऑफिस कर्मचारी, गर्भवती महिलाएं और बुजुर्ग। यह बात इंडियन सोसाइटी ऑफ़ वीनस डिजीज द्वारा आयोजित सीएमई के आयोजक सामान्य अस्पताल के सर्जन डॉ. वृजेश सिंह और प्लास्टिक सर्जरी विभाग के प्रो. अंकुर भटनागर ने कही। उद्घाटन प्रमुख सचिव चिकित्सा शिक्षा अमित कुमार घोष ने किया था, जिसमें संस्थान के निदेशक और कई संकाय सदस्य भी मौजूद थे।





इलाज न होने पर पैर काटने की नौबत आती है


 


प्रो. अंकुर भटनागर के अनुसार, वैरिकोज वेंस अल्सर और डीवीटी का समय पर इलाज न होने पर घाव और संक्रमण गहराते हैं, जिससे सेप्सिस (संक्रमण) के कारण कभी-कभी पैर काटने की जरूरत पड़ सकती है। गंभीर और अनदेखे वेरिकोज अल्सर के कारण पैरों की कटाई (अंपुटेशन) की दर लगभग 1-3 फीसदी तक देखी गई है। पहले यह दर 4-6 फीसदी तक थी, लेकिन तकनीक और जागरूकता के कारण इसमें कमी आई है। 







 


क्या है वैरिकोज वेंस और डीवीटी


 


इसमें टांगों की नसों के वाल्व कमजोर हो जाते हैं और रक्त वापस सही दिशा में नहीं पहुंच पाता। इससे नसें फैल जाती हैं, सूज जाती हैं और त्वचा पर अल्सर या घाव बनने लगते हैं।डीवीटी में गहरी नसों में खून का थक्का जम जाता है, जिससे रक्त प्रवाह बाधित होता है।








 शुरूआत में दवा से भी इलाज संभव


 


इसमें शुरुआती इलाज दवाओं से होता है। वैरिकोज वेंस में दर्द निवारक, सूजन कम करने वाली दवाएं और रक्त परिसंचरण सुधारने वाली दवाएं दी जाती हैं। डीवीटी में रक्त पतला करने वाली दवाएं थक्कों को बढ़ने से रोकती हैं।जब दवाएं काम नहीं करतीं, घाव गहरा हो या थक्का बड़ा हो जाए, तब इंटरवेंशन प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं, जिनमें शामिल 


 


फोम स्क्लेरोथेरेपी: दवा को झाग के रूप में प्रभावित नस में डाला जाता है, जिससे नस सिकुड़ जाती है।


 


लेजर एब्लेशन: लेजर किरणों से नस को अंदर से बंद किया जाता है, जिससे सूजन कम होती है और घाव जल्दी भरते हैं।


 


मैकेनिकल थ्रोम्बेक्टोमी: डीवीटी के थक्के को कैथेटर से हटाने की प्रक्रिया, जो तुरंत राहत देती है।


 



 


यह परेशानी तो तुरंत लें सलाह


 


-टांगों में लगातार दर्द


 


-सूजन या गर्माहट महसूस होना


 


-त्वचा पर नीले या गहरे रंग के धब्बे


 


-टांगों में गांठ या सूजी हुई नसें दिखना


 


-टांगों में घाव या अल्सर होना


 


-पैरों में कमजोरी या भारीपन महसूस होना


 


यह करके कम कर सकते हैं आशंका:


 


-वजन नियंत्रित रखें


 


-लंबे समय तक बिना हिले-डुले न बैठें और न खड़े रहें


प्रो अंकुर भटनागर

डॉ बृजेश सिंह