वी. पी. सिंह: आरोपों की राजनीति और राजीव गांधी की बदनाम की गई विरासत
भारतीय राजनीति में विश्वनाथ प्रताप सिंह (वी. पी. सिंह) का नाम उस दौर के प्रतीक के रूप में लिया जाता है जब “भ्रष्टाचार विरोधी अभियान” की आड़ में आरोप और अफवाहें राजनीतिक हथियार बन गईं।
बोफोर्स घोटाले को लेकर लगाए गए आरोपों ने उस समय की राजनीति को हिला दिया — पर अदालतों ने बाद में स्पष्ट कहा कि इन आरोपों का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला।
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बोफोर्स मामला: अदालतों ने कहा — कोई घोटाला सिद्ध नहीं हुआ
1987 में स्वीडन के रेडियो ने रिपोर्ट दी कि बोफोर्स कंपनी ने भारत को तोपों के सौदे में रिश्वत दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनके करीबी इस सौदे में निशाने पर आए।
यहीं से वी. पी. सिंह ने “भ्रष्टाचार विरोधी नायक” के रूप में खुद को प्रस्तुत किया और राजीव गांधी के खिलाफ खुला अभियान चलाया।
परंतु बाद की न्यायिक प्रक्रिया ने यह साबित किया कि आरोप अधूरे और प्रमाणहीन थे।
दिल्ली उच्च न्यायालय (2004) ने स्पष्ट कहा कि राजीव गांधी के खिलाफ कोई ठोस साक्ष्य नहीं हैं कि उन्होंने रिश्वत ली या सौदे में कोई निजी लाभ पाया।
अदालत ने “public servant” के रूप में राजीव गांधी पर लगे सभी आरोपों को खारिज किया।
हिंदुजा भाइयों और अन्य अभियुक्तों को भी अदालत ने क्लीन चिट दी, यह कहते हुए कि सीबीआई आरोप सिद्ध करने में विफल रही।
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की अपील भी खारिज कर दी, यह कहते हुए कि मामला न केवल साक्ष्यहीन है, बल्कि प्रक्रिया की समय-सीमा भी समाप्त हो चुकी थी।
अर्थात, अदालतों ने साफ कहा कि बोफोर्स सौदे में किसी भी भारतीय राजनेता द्वारा रिश्वत लेने का प्रमाण नहीं मिला।
फिर भी उस समय की राजनीति में यह आरोप इतना बड़ा मुद्दा बन गया कि राजीव गांधी की “मिस्टर क्लीन” वाली छवि पूरी तरह ध्वस्त हो गई और जनता ने वी. पी. सिंह को “ईमानदार योद्धा” मान लिया।
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सत्ता की सीढ़ी: आरोपों के सहारे सिंहासन
राजीव गांधी के साथ वित्त मंत्री रहे वी. पी. सिंह ने पहले वित्त मंत्रालय में टैक्स और भ्रष्टाचार के मामलों में सख्ती दिखाई। बाद में रक्षा मंत्रालय में सौदों पर सवाल उठाए। कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने जनता दल बनाया और भाजपा तथा वामदलों के समर्थन से 1989 में प्रधानमंत्री बने।
यह सत्ता दरअसल बोफोर्स के आरोपों के सहारे हासिल की गई थी। जनता में यह धारणा बैठ चुकी थी कि राजीव गांधी ने भ्रष्टाचार किया है, जबकि अदालत ने बाद में इसे गलत ठहराया।
विश्लेषकों के अनुसार, यही वह मोड़ था जब भारतीय राजनीति में “झूठे या अप्रमाणित आरोपों” की प्रवृत्ति शुरू हुई।
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मंडल बनाम कमंडल: जब राजनीति जाति और धर्म में बंटी
प्रधानमंत्री बनने के बाद वी. पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं, जिनके तहत ओबीसी वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण मिला।
यह फैसला ऐतिहासिक था, लेकिन देशभर में भारी विरोध हुआ। सैकड़ों जगह छात्र सड़कों पर उतरे, आत्मदाह करने लगे — कई युवा अपनी जान गंवा बैठे।
उस समय भाजपा बाहर से वी. पी. सिंह सरकार को समर्थन दे रही थी, लेकिन जब देशभर में छात्र आग में झुलस रहे थे, तब भाजपा ने समर्थन वापस नहीं लिया।
पार्टी का ध्यान अपने “राम मंदिर आंदोलन” की तरफ था, जो तेजी से धार्मिक जनभावना का केंद्र बन रहा था।
जब लालकृष्ण आडवाणी ने राम रथ यात्रा शुरू की और आंदोलन अपने चरम पर पहुंच गया — तब भाजपा ने राजनीतिक रूप से यह महसूस किया कि अब जनता की भावनाएं “राम मंदिर” के मुद्दे पर उनके पक्ष में हैं।
ठीक उसी समय, मंडल से उपजे जातीय संघर्ष के बीच, भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया।
इस प्रकार सरकार गिराने का कारण “छात्रों की पीड़ा” नहीं बल्कि राम मंदिर की राजनीति से सत्ता प्राप्ति की रणनीति थी।
इस निर्णय ने भारतीय राजनीति में यह भी स्पष्ट कर दिया कि सामाजिक न्याय और धार्मिक भावनाओं के बीच टकराव को सत्ता के लिए साधन की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है।
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प्रतीकवाद, तुष्टिकरण और जनता दल का विखंडन
वी. पी. सिंह ने अपने कार्यकाल में सामाजिक न्याय को मजबूत करने के लिए कई प्रतीकात्मक फैसले लिए — जिनमें डॉ. भीमराव आंबेडकर को मरणोपरांत भारत रत्न देना ऐतिहासिक कदम था।
लेकिन राजनीतिक रूप से यह भी कहा गया कि वे विभिन्न वर्गों को खुश करने के लिए तुष्टिकरण की राह पर चल पड़े थे।
उनकी सरकार लंबी नहीं चली।
जनता दल शीघ्र ही कई भागों में टूट गया — लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, देवगौड़ा और अजित सिंह जैसे नेता अलग-अलग दिशाओं में निकल गए।
आज इन्हीं में से कुछ दल भाजपा के साथ हैं, कुछ कांग्रेस के साथ — जबकि उसी दौर की राजनीति ने भारत को स्थायी रूप से गठबंधन युग में पहुंचा दिया।
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निष्कर्ष: आरोपों से बनी सत्ता, सच्चाई से टूटी छवि
वी. पी. सिंह ने ईमानदारी और पारदर्शिता की बात की, लेकिन उनकी राजनीति अदालत में असत्य सिद्ध हुए आरोपों पर खड़ी थी।
राजीव गांधी को भ्रष्ट सिद्ध करने का जो अभियान उन्होंने चलाया, वह इतिहास में राजनीतिक अवसरवाद का प्रतीक बन गया।
अदालतों ने बोफोर्स मामले में कहा —
> “राजीव गांधी के खिलाफ कोई ठोस साक्ष्य नहीं है। रिश्वत या भ्रष्टाचार का कोई प्रमाण नहीं मिला।”
फिर भी इस अप्रमाणित आरोप ने न केवल एक प्रधानमंत्री की छवि मिटा दी, बल्कि भारतीय राजनीति को उस राह पर डाल दिया जहाँ सत्य से अधिक प्रचार और धारणा निर्णायक बन गई।
मंडल और कमंडल की राजनीति ने तब जो विभाजन पैदा किया, वह आज तक जारी है।
वी. पी. सिंह ने जिस “ईमानदारी” के नाम पर सत्ता पाई, उसी के परिणामस्वरूप देश में आरोपों, वर्गीय विभाजनों और अवसरवादी गठबंधनों की परंपरा स्थायी हो गई।
इस दृष्टि से वी. पी. सिंह वह नेता थे जिन्होंने सत्ता पाने के लिए झूठ और अवसर का उपयोग किया — और देश को सिखा गए कि राजनीतिक लाभ के लिए असत्य कितना विनाशकारी हो सकता है।
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