माता-पिता सलाखों के पीछे, कैद में बच्चों के सपने
– प्रोफेसर विनीता काचर के अध्ययन ने खोली जेलों के भीतर दबे रिश्तों की पीड़ा
जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों के पार सिर्फ एक कैदी नहीं, उसके साथ उसके परिवार की हँसी, उम्मीदें और सपने भी बंद हो जाते हैं। अदालत सजा माता-पिता को देती है, लेकिन सबसे बड़ी सजा तो उनके बच्चे झेलते हैं — जो हर दिन बिना किसी अपराध के दंडित होते हैं।
लखनऊ विश्वविद्यालय के विधि विभाग की प्रोफेसर विनीता काचर के निर्देशन में हुए एक भावनात्मक अध्ययन ने इस अनकही सच्चाई को सामने रखा है। इस रिपोर्ट को शासन को भेजा जा रहा है ताकि इन मासूम बच्चों की आवाज़ सिस्टम तक पहुँच सके।
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🔹 लखनऊ की जेलों में 115 कैदियों पर अध्ययन
“लखनऊ जिले के विशेष संदर्भ में बाल प्रतिकूलता एवं बाल स्वास्थ्य पर कारावास के प्रभाव पर एक सामाजिक-वैधानिक अध्ययन” शीर्षक से यह शोध सेंटर ऑफ एक्सीलेंस के तहत किया गया।
राजधानी की केंद्रीय कारागार मोहनलालगंज और जिला जेल लखनऊ में बंद 115 कैदियों (महिला और पुरुष दोनों) को इसमें शामिल किया गया।
इनमें से 67 प्रतिशत विचाराधीन कैदी थे — यानी जिन पर अभी फैसला बाकी है, पर उनके बच्चे पहले ही समाज की बेरुखी और तानों की सजा भुगत रहे हैं।
33 प्रतिशत सजायाफ्ता कैदियों के घरों में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं।
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🔹 मुलाकातें जो दिल में दर्द छोड़ जाती हैं
अध्ययन में पाया गया कि 98 प्रतिशत कैदियों को बच्चों से मिलने की अनुमति तो है, पर ये मुलाकातें अक्सर शीशे की दीवारों के पीछे होती हैं।
मां की आँखों में आँसू और बच्चे के चेहरे पर सवाल — “मां, तुम कब घर आओगी?”
समय सीमित होता है, शब्द औपचारिक, और प्यार भी रोक दिया जाता है… बस इतनी देर में मुलाकात खत्म हो जाती है।
और सबसे पीड़ादायक बात — सिर्फ 18 प्रतिशत कैदी ही जानते हैं कि उनके बच्चों के लिए कोई सरकारी सहायता या योजना भी है।
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🔹 भावनात्मक आघात से टूट रहे हैं मासूम दिल
रिपोर्ट बताती है कि 78 प्रतिशत कैदियों के बच्चे भावनात्मक आघात (Emotional Trauma) से गुजर रहे हैं।
कई बच्चों ने कहा — “लोग हमें अपराधी का बेटा या बेटी कहते हैं।”
इनमें से 64 प्रतिशत बच्चों की पढ़ाई बाधित हो गई है।
कई बच्चे आर्थिक तंगी और सामाजिक तिरस्कार के कारण स्कूल छोड़ने पर मजबूर हैं।
एक पिता के जेल में जाने से सिर्फ रोटी नहीं, बल्कि बचपन की मुस्कान भी छिन जाती है।
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🔹 कुपोषण और बीमारी की दोहरी मार
अध्ययन में सामने आया कि 59 प्रतिशत बच्चे बीमारियों और कुपोषण से जूझ रहे हैं।
वहीं, 52 प्रतिशत बच्चे समाज के तिरस्कार से अकेलेपन की गहरी खाई में धकेले जा रहे हैं।
“अपराधी का बच्चा” कहे जाने का कलंक, इन मासूम चेहरों पर गहरे घाव छोड़ रहा है।
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🔹 सरकार से नई नीति की अपील
प्रो. विनीता काचर का कहना है —
> “ये बच्चे अपराधी नहीं हैं, ये तो न्याय व्यवस्था के अनदेखे शिकार हैं। इन्हें दया नहीं, अवसर चाहिए — पढ़ाई का, जीने का, और समाज में अपना स्थान पाने का।”
उन्होंने सुझाव दिया है कि सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए जो कैदियों के बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य, शिक्षा और पुनर्वास पर केंद्रित हो।
अध्ययन का अगला चरण उन बच्चों और परिवारों के प्रत्यक्ष साक्षात्कार पर केंद्रित होगा, जो फिलहाल रिश्तेदारों या बाल देखभाल गृहों में रह रहे हैं।
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🕊️ हर सलाख के उस पार कोई सपना अब भी धड़कता है…
यह अध्ययन हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि जब कोई अपराध करता है, तो सजा सिर्फ उसे नहीं — उसके पूरे परिवार को मिलती है।
जेल की दीवारों के बाहर रह रहे ये बच्चे हर दिन न्याय की उम्मीद में आसमान की ओर देखते हैं — कि शायद एक दिन उनका बचपन आज़ाद साँस ले सके।

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