प्रत्यारोपित किडनी की खराबी का पता अब बिना दर्द के संभव
किडनी ट्रांसप्लांट के बाद होने वाली जटिलताओं की जांच अब इलास्टोग्राफी से संभव
पीजीआई के विशेषज्ञों ने शोध में बताया — यह तकनीक होगी ट्रांसप्लांट की निगरानी में कारगर
संजय गांधी पीजीआई के विशेषज्ञों ने अपने शोध में पाया है कि इलास्टोग्राफी नामक तकनीक से किडनी ट्रांसप्लांट के बाद होने वाली इंटरस्टिशियल फाइब्रोसिस एंड ट्यूबूलर एंट्रॉफी (आईएफटीए) का पता आसानी से और बिना किसी सर्जरी या बायोप्सी के लगाया जा सकता है। किडनी की इस खराबी का पता लगाने के लिए बायोप्सी किया जाता रहा है जिसमें मरीज को दर्द होता है। किडनी बायोप्सी से डरते भी है । कंपलिकेशन की भी आशंका रहती है। विशेषज्ञों ने शोध में 61 किडनी ट्रांसप्लांट मरीजों को शामिल किया गया, जो क्रोनिक किडनी इंजरी से पीड़ित थे। मरीजों का चयन उनकी क्लीनिक स्थिति, क्रिएटिनिन स्तर और GFR रिपोर्ट के आधार पर किया गया। सभी मरीजों की बायोप्सी और इलास्टोग्राफी टेस्ट किए गए और उनके परिणामों की तुलना की गई।बायोप्सी में देखा गया कि
10 मरीजों में कोई फाइब्रोसिस नहीं। 33 मरीजों में हल्का फाइब्रोसिस। 16 में मध्यम। 2 में गंभीर फाइब्रोसिस पाया गया। इलास्टोग्राफी से जब किडनी के ऊतक (टिशू) की कठोरता मापी गई, तो पाया गया कि जैसे-जैसे फाइब्रोसिस बढ़ता गया, कठोरता भी बढ़ती गई।जिनमें फाइब्रोसिस नहीं था, उनमें कठोरता: 39.86 केपीए। जबकि गंभीर फाइब्रोसिस में: 53.83 केपीए मिला। इलास्टोग्राफी और बायोप्सी के नतीजे लगभग समान पाए गए।
इलास्टोग्राफी क्यों है भरोसेमंद?
विशेषज्ञों का कहना है कि इलास्टोग्राफी इतनी सटीक है कि इससे हल्का, मध्यम और गंभीर फाइब्रोसिस के बीच भी स्पष्ट अंतर किया जा सकता है। यह तकनीक सस्ती,सुरक्षित,और बिना दर्द के है। इसे किडनी ट्रांसप्लांट मरीजों की नियमित निगरानी के लिए सामान्य फॉलोअप स्कैनिंग में शामिल किया जाए, तो यह मरीजों के लिए बड़ी राहत बन सकती है।
इलास्टोग्राफी से फायदे:
यह एक पेन-फ्री और गैर-सर्जिकल तकनीक है। मरीजों को बार-बार बायोप्सी जैसी इनवेसिव प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ेगा। बीमारी का जल्दी और सटीक पता चलता है।
क्या है इंटरस्टिशियल फाइब्रोसिस एंड ट्यूबूलर एंट्रॉफी
इंटरस्टिशियल फाइब्रोसिस: जब किडनी के ऊतकों में सामान्य कोशिकाओं की जगह कठोर रेशेदार टिशू बनने लगते हैं।
ट्यूब्यूलर एट्रॉफी: किडनी की सूक्ष्म नलिकाएं (ट्यूब्स) सिकुड़ने या खराब होने लगती हैं जिससे वो खून छानने का काम ठीक से नहीं कर पातीं। इसे पूरी तरह ठीक नहीं की जा सकती, लेकिन इसका फैलाव रोका जा सकता है।
इलास्टोग्राफी कैसे काम करती है?
यह एक खास अल्ट्रासाउंड तकनीक है। इसमें शरीर पर एक प्रोब रखा जाता है। प्रोब से हल्की तरंगें भेजी जाती हैं जो ऊतक से टकराकर लौटती हैं। इन तरंगों की गति से टिशू की नरमी या कठोरता का आकलन किया जाता है।
शोधकर्ताओं की टीम:
शीयर वेव इलास्टोग्राफी की भूमिका: किडनी ट्रांसप्लांट में फाइब्रोसिस की जांच और बायोप्सी से तुलना विषय पर शोध किया जिसमें रेडियोलॉजी विभाग के डा. सुरोजित रुइदास, प्रो, हीरा लाल, डा. रघुनंदन प्रसाद,डा. सृष्टि शर्मा डा. सुरभी अग्रवाल, डा. रणविजय सिंह, नेफ्रोलॉजी विभाग के प्रो, नारायण प्रसाद, प्रो, मानस रंजन पटेल, प्रो. रवि शंकर कुशवाहा, पैथोलॉजी विभाग के प्रो.. मनोज जैन शामिल हुए। शोध जर्नल ऑफ अल्ट्रासाउंड मेडिसिन ने हाल में ही स्वीकार किया है।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें