राहत-पांच फीसदी नहीं भारतीयों के केवल एक से दो फीसदी पड़ रही है वेंटीलेटर की जरूरत
कुमार संजय़। लखनऊ
सार्स-सीओवी 2 जैसे विषाणु फेफड़ों को क्षतिग्रस्त करते हैं , जिससे व्यक्ति को साँस लेने में मुश्किल होने लगती है राहत की बात है कि भारत में केवल एक से दो फीसदी लोगों में वेटीलेटर की जरूरत पड़ रही है जबकि दूसरे देशों में पांच फीसदी लोगों में वेंटीलेटर की जरूरत पड़ रही है। रिसर्च सोसाइटी आफ एनेस्थेसिया एंड फार्माकोलाजी के प्रदेश सचिव प्रो.संदीप साहू के मुताबिक हमारे यहां संक्रमित होने वाले के फेफडे मजबूत है क्योंकि 40 से कम उम्र लोग संक्रमित हो रहे हैं। दूसरे देशों में अधिक उम्र और दूसरी सह बीमारियों के कारण वेंटीलेटर की जरूरत अधिक पड़ रही है। वेंटीलेटर क्या है क्या काम करता है तमाम सवालों के जबाव दिया। आरडीएस होने पर वेंटीलेटर की उपयोगिता बढ़ जातीहै। वेंटिलेटर से रोगी के बीमार फेफड़े ठीक नहीं होते। वेंटिलेटर बीमार फेफड़ों को ठीक होने की मोहलत देता है। ठीक उन्हें दवाएँ करती हैं या फिर शरीर स्वयं। पर इस स्वास्थ्य-लाभ के लिए भी तो समय चाहिए न ! वह समय वेंटिलेटर थके बीमार फेफड़ों को उपलब्ध कराता है। वह फेफड़ों का काम करता है , उनके श्रम में हिस्सेदारी करता है।
क्या है वेंटीलेटर
मेकैनिकल वेंटिलेटर एक मशीन है। एक ऐसा यन्त्र जिसके द्वारा रोगी के फेफड़ों में वायु का आवागमन सुनिश्चित किया जाता है। इसका प्रयोग डॉक्टर उन रोगियों में करते हैं , जो स्वयं साँस ले पाने में अक्षम हो रहे होते हैं। ऐसी परिस्थति में एक खोखली नली ( ट्यूब ) को रोगी की श्वासनली ( ट्रेकिया ) में मुँह द्वारा पहुँचाया और स्थित किया जाता है। फिर इस ट्यूब से वेंटिलेटर मशीन को जोड़ दिया जाता है। यह मशीन सुनिश्चित कराती है कि रोगी के फेफड़ों में ऑक्सीजन सुचारु रूप से पहुँचे और कार्बन डायऑक्साइड को वहाँ से निकाला जा सके।
क्या है एआरडीएस
एक्यूट रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिण्ड्रोम ( एआरडीएस ) अनेक रोगों के दुष्प्रभाव के कारण फेफड़ों की कार्यक्षमता को घटा सकता है। यह किसी एक रोग का नाम नहीं है , यह अनेक गम्भीर रोगों के कारण बीमार पड़े फेफड़ों की अन्तिम स्थिति है। एआरडीएस गम्भीर न्यूमोनिया के कारण भी हो सकता है , रक्त व शरीर में व्यापक संक्रमण ( सेप्सिस ) के बाद भी। अत्यधिक जल जाने के कारण भी एआरडीएस की स्थिति पैदा हो सकती है , अनेक दवाओं के घातक दुष्प्रभाव भी इसे उत्पन्न कर सकते यहीं। साँस ले पाने में अक्षमता ( डिस्निया ) , तेज़ी से साँस लेना ( टैकिप्निया ) , तेज़ हृदय-गति ( टैकीकार्डिया ) , चक्कर आना ( डिज़ीनेस ) एआरडीएस के महत्त्वपूर्ण लक्षण होते हैं। कई बार खाँसी और सीने में दर्द भी पैदा हो सकते हैं। फेफड़ों के भीतर एल्वियोलाई और रक्तवाहिनियों की दीवारों के नष्ट होने से और वहाँ द्रव द्रव भरने से रोगी को साँस लेने पर भी ऑक्सीजन ठीक से नहीं मिल पाती। वह थकने लगता है और थकने पर और कम साँस ले पाता है। कम साँस लेने से उसके ख़ून में ऑक्सीजन की मात्रा और घटने लगती है। ऑक्सीजन की मात्रा घटने की इस स्थिति को हाइपॉक्सीमिया कहा जाता है।
एआरडीएस में कैसे फायदा पहुचाता है वेंटीलेटर
विषाणु-जन्य न्यूमोनिया हुआ और उस न्यूमोनिया के कारण वह एआरडीएस में एक या दो दिन में पहुँच गया। वेंटिलेटर पर डालते हैं ताकि श्वसन-श्रम से उसे बचा सकें। साथ में कुछ जीवन-रक्षक व सहायक दवाओं का प्रयोग करते हैं। वेंटिलेटर की ट्यूब व रोगी के मुँह-गले में जमा हो रहे बलगम को सक्शन-विधि से खींच कर हटाते हैं। कोई विशिष्ट शोधसम्मत एंटीवायरल अब-तक उनके पास है नहीं। पर फिर भी जितनी भी उन्हें जानकारी प्राप्त है , उसके अनुसार वे कोविड-19-रोगी के प्राण बचाने में जुट जाते हैं।
वेंटीलेटर से भी है परेशानी
मेकैनिकल वेंटिलेशन की अपनी समस्याएँ भी हैं। इसके कारण भी फेफड़े चोटिल हो सकते हैं। लम्बे समय तक वेंटिलेटर पर रहने के कारण ख़ुद इस मशीन के कारण भी न्यूमोनिया हो सकता है। इस स्थिति को वेंटिलेटर-एसोशियेटेड-न्यूमोनि या ( वीएपी ) कहते हैं। डॉक्टरों के लिए इन सबसे भी जूझना होता है। मशीन से मनुष्य के प्राण बचाने हैं , मशीन से भी मनुष्य को यथासम्भव बचाना है।
सर कल के
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