सोमवार, 1 दिसंबर 2025

महाकुंभ मेला 2025: आस्था के साथ-साथ स्वास्थ्य पर शोध का केंद्र भी

 



 महाकुंभ मेला 2025: आस्था के साथ-साथ स्वास्थ्य पर शोध का केंद्र भी


61 फीसदी दिल के मरीज दवा खाना जाते है भूल


डायबिटीज ग्रस्त  50 फीसदी लोग हाई बीपी से ग्रस्त




29 फीसदी लोग किसी न किसी गैर-संक्रामक रोग से थे ग्रस्त 


 


कुंभ में आए 27 हजार पर हुआ शोध


 


 


 


 


 


 


 कुमार संजय


 


महाकुंभ मेला, जो भारत में आस्था और पुण्य कमाने के लिए लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है, 2025 में एक और विशेष रूप से चर्चा में आया। जहां लाखों लोग धार्मिक अनुष्ठान और स्नान करने के लिए एकत्रित होते हैं, वहीं यह मेला डॉक्टर बिरादरी के लिए भी एक शोध का बड़ा केंद्र बनकर उभरा। शोध विज्ञानियों ने  गैर-संक्रामक रोगों जैसे डायबिटीज, हाइपरटेंशन और मोटापे जानने के लिए शोध किया । महाकुंभ में आए विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों से आए लोगों पर आधारित था। इस अध्ययन का उद्देश्य महाकुंभ मेला में उपस्थित लोगों में गैर-संक्रामक रोगों की प्रचलन दर  का आकलन करना था और यह समझना था कि इन रोगों के उपचार में दवाइयों का अनुपालन  किस हद तक हो रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि महाकुंभ मेला में धार्मिक आयोजन के साथ-साथ अब यह स्वास्थ्य जागरूकता का भी बड़ा केंद्र भी साबित हुआ।


 


 


 


 


 


 


 


कैसे हुआ शोध


  


महाकुंभ मेला के दौरान किंग जॉर्ज मेडिकल विश्वविद्यालय के डॉक्टरों ने  27,045 लोगों की स्वास्थ्य जांच किया। इस दौरान, शोधकर्ताओं ने रक्तचाप, शरीर का वजन, बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई), और रैंडम ब्लड शुगर  के आंकड़े एकत्रित किए।


 


 


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शोध के परिणाम


 —25 फीसदी लोग टाइप 2 डायबिटीज


- 16 फीसदी लोग हाइपरटेंशन (उच्च रक्तचाप)


- 5 फीसदी लोग हृदय रोग  से प्रभावित थे।


- कुल 29 फीसदी लोग किसी न किसी गैर-संक्रामक रोग से ग्रसित थे।


-डायबिटीज वाले मरीजों में 50 फीसदी लोग हाइपरटेंशन से भी पीड़ित थे।


 


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दवा खाना ही जाते भूल


 


 


अध्ययन ने यह भी उजागर किया कि मरीजों में दवाइयों का अनुपालन एक गंभीर चिंता का विषय बन चुका है।  डायबिटीज के 28.5 फीसदी, हाइपरटेंशन के 43.6 फीसदी और हृदय रोग के 61.4 फीसदी मरीजों ने यह बताया कि वे अक्सर अपनी दवाइयाँ भूल जाते हैं। 26.2 फीसदी डायबिटीज़ मरीज और 37.6 फीसदी हाइपरटेंशन वाले व्यक्तियों ने तंबाकू का सेवन किया।


 


 


 


 


 


 


 


 


 


शोधकर्ताओं की टीम


 


 


 



 किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी  से प्रो. नरसिंह वर्मा ।

हिंद इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज से प्रो. अनुज महेश्वरी, डॉ. अरविंद जे., डॉ. मनोज एस. चौला, डॉ. सुनील एस. गुप्ता, डॉ. प्रहलाद चौला, डॉ. पुरवी एम. चौला, डॉ. शुभाश्री एम. पटिल, और डॉ. अनीता नांबियार शामिल रहे।

हिंद मेडिकल कॉलेज से डॉ. राजेश केसरी,

रूबी हॉल क्लिनिक (पुणे) से डॉ. अमित गुप्ता और डॉ. संजय अग्रवाल,

ओस्मानिया मेडिकल कॉलेज (हैदराबाद) से डॉ. राकेश साहय,

डायबिटीज़ एंड हार्ट रिसर्च सेंटर (धनबाद) से डॉ. नगेन्द्र कुमार सिंह,

जबकि अन्य सहयोगी संस्थानों से डॉ. बंशी डी. साबू और डॉ. सुबोध जैन इस शोध का हिस्सा रहे। शोध को डायबिटीज़ मेडिकल जर्नल ने स्वीकार किया है।





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शनिवार, 29 नवंबर 2025

पीजीआई में फ्रेशर पार्टी, मानवेंद्र बने छात्रसंघ के अध्यक्ष

 

पीजीआई में फ्रेशर पार्टी, मानवेंद्र बने छात्रसंघ के अध्यक्ष


कॉलेज ऑफ मेडिकल टेक्नोलॉजी एंड एलाइड हेल्थ साइंसेज (सीएमटी व एएचएससी), एसजीपीजीआई में बीएससी पाठ्यक्रमों के विद्यार्थियों के लिए बहुप्रतीक्षित फ्रेशर्स पार्टी ‘शुभारंभ’ का आयोजन 28 नवंबर 2025 को दोपहर 2 बजे सी.वी. रमन ऑडिटोरियम में हुआ। कार्यक्रम की तैयारी छात्रों ने पूरी निष्ठा से की और इसे यादगार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


कार्यक्रम के मुख्य अतिथि निदेशक  प्रो. आर.के. धीमन थे, जिन्होंने प्रेरक संदेश देते हुए शुभारंभ का उद्घाटन किया। इस अवसर पर डीन  प्रो. मनोज जैन, सब-डीन एवं कालेज ऑफ नर्सिंग व कालेज ऑफ मेडिकल टेक्नोलॉजी प्रो. अंकुर भटनागर, कार्यकारी रजिस्ट्रार लेफ्टिनेंट कर्नल वरुण बाजपेयी, नोडल अधिकारी, सीएमटी डॉ. लोकेंद्र शर्मा तथा प्रोवोस्ट, सीएमटी डॉ. ज़फ़र नेयाज़ उपस्थित रहे। उनके मार्गदर्शन और सहयोग से कार्यक्रम को शानदार सफलता मिली।


फ्रेशर्स पार्टी में नृत्य, संगीत और फैशन शो जैसी आकर्षक प्रस्तुतियों ने माहौल को जीवंत बना दिया। नए छात्रों का उत्साहपूर्वक स्वागत किया गया और ‘शुभारंभ’ नई शुरुआत का उत्सव बनकर सामने आया।


इस मौके पर बैचलर ऑफ फिजियोथेरेपी (बीपीटी), सातवें सेमेस्टर के छात्र मानवेंद्र त्रिपाठी को छात्रसंघ का अध्यक्ष चुना गया, जो पूरे बीएससी बैच के लिए गौरव का क्षण रहा। वहीं बीएससी रेडियोडायग्नोसिस के छात्र नूर मोहम्मद को मिस्टर फ्रेशर और बीएससी रीनल डायलिसिस की छात्रा शाम्भवी रस्तोगी को मिस फ्रेशर चुना गया।


कार्यक्रम का समापन सीएमटी संकाय सदस्य डॉ. कृष्णकांत मिश्रा और डॉ. सुधांशु यादव द्वारा धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ, जिसमें उन्होंने अतिथियों, आयोजकों और छात्रों के प्रति आभार व्यक्त किया।

गुरुवार, 27 नवंबर 2025

सर्वाइकल कैंसर के लिए समर्पित डॉक्टर कुट्टी



**प्रो. डी. कुट्टी किंग जॉर्ज मेडिकल कलेज की स्त्री रोग विशेषज्ञ जिन्होंने सर्वाइकल कैंसर के लिए पूरा जीवन समर्पित किया उनको याद करने का दिन



सर्वाइकल कैंसर—टीकाकरण और समय पर जांच से बच सकती है जान**


प्रोफेसर देवकी कुट्टी मूल रूप से केरल की थीं। उन्होंने अपनी मेडिकल शिक्षा मद्रास मेडिकल कॉलेज से पूरी की। लेकिन उनका वास्तविक कार्यक्षेत्र और कर्मभूमि बनी लखनऊ की किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज (केजीएमसी)। किस्मत और हमारे लिए सौभाग्य की बात थी कि वह केजीएमसी आईं और प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग (Obstetrics & Gynaecology) की प्रमुख बनीं।


प्रो. कुट्टी न सिर्फ एक उत्कृष्ट डॉक्टर थीं, बल्कि संवेदनशील हृदय वाली इंसान भी थीं। गरीब से गरीब मरीज के लिए उनका दरवाज़ा हमेशा खुला रहता था। ऑपरेशन थिएटर की सूची भले ही भरी हो, लेकिन वे जरूरतमंद मरीज का ऑपरेशन करने में कभी पीछे नहीं हटती थीं।


उनकी करुणा और सेवा भावना यहीं तक सीमित नहीं थीं—वे अक्सर हरिद्वार स्थित अपने आध्यात्मिक गुरु स्वामी शिवानंद महाराज के अस्पताल में जाकर गरीबों की सेवा करती थीं। सेवा उनके जीवन का मूल था। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने स्थायी रूप से हरिद्वार में ही रहने का फैसला किया और उसी समर्पण एवं ऊर्जा के साथ शिवानंद चैरिटेबल अस्पताल में कार्य करती रहीं।



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चार दशक पहले की भयावह स्थिति


लगभग 40 साल पहले सर्वाइकल कैंसर (गर्भाशय ग्रीवा कैंसर) महिलाओं में मृत्यु का एक प्रमुख कारण था। कारण स्पष्ट था—यह कैंसर शुरुआती अवस्था में लगभग बिना किसी लक्षण के आगे बढ़ता है, और जब तक पता चलता है, तब तक बीमारी काफी बढ़ चुकी होती थी।


 प्रो. डी. कुट्टी हमें सर्वाइकल कैंसर के बारे में पढ़ाया करती थीं। उस समय का परिदृश्य बहुत चिंताजनक था।


लेकिन आज हालात पहले जैसे नहीं रहे।



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अब स्थिति उम्मीदभरी है—क्योंकि जांच और जागरूकता बढ़ी है


आज के समय में, यह कैंसर बहुत जल्दी और आसानी से पहचाना जा सकता है।


पैप स्मीयर टेस्ट


वीआईए टेस्ट (Visual Inspection with Acetic Acid)


एचपीवी टेस्ट



जैसे साधारण लेकिन प्रभावी परीक्षणों ने लाखों महिलाओं की जान बचाई है।


साथ ही, चेतावनी संकेतों के बारे में जागरूकता बढ़ने से इस बीमारी से होने वाली मौतों में लगातार गिरावट आ रही है।


पिछले 45 वर्षों में सर्वाइकल कैंसर से जुड़ी लगभग हर जानकारी और उपचार में बड़ा बदलाव आया है। इसी कारण मैं भी अपने पुराने क्लास नोट्स को नए शोध और चिकित्सा साहित्य के आधार पर अद्यतन कर रहा हूँ।


इसके बावजूद, भारत में यह अभी भी


स्त्रियों में दूसरा सबसे सामान्य कैंसर (22.8%)


और स्तन कैंसर (27%) के ठीक बाद दूसरे स्थान पर है।




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सर्वाइकल कैंसर से बचाव—सबसे प्रभावी रास्ता


1. एचपीवी वैक्सीन – जीवनरक्षक सुरक्षा कवच


मानव पैपिलोमा वायरस (HPV) इस कैंसर का मुख्य कारण है।

12–26 वर्ष तक की लड़कियों को यह टीका समय पर लग जाए, तो वे लगभग 90% तक सुरक्षित हो सकती हैं।

अब यह टीका भारत में भी आसानी से उपलब्ध है।


2. हर महिला को नियमित जांच


भले ही कोई लक्षण न हों, हर महिला को 30 वर्ष की उम्र के बाद नियमित रूप से पैप स्मीयर या एचपीवी टेस्ट कराना चाहिए।


3. शुरुआती लक्षणों को नजरअंदाज न करें


मासिक धर्म के अलावा अनियमित रक्तस्राव


सहवास के बाद खून आना


दुर्गंधयुक्त पानी जैसा स्राव

ऐसे संकेतों को तुरंत डॉक्टर को दिखाना चाहिए।



4. सचेतन जीवनशैली


तंबाकू का सेवन न करें


स्वच्छता का ध्यान


शुरुआती उम्र में विवाह/गर्भधारण से बचाव


एक से अधिक यौन साथी से परहेज़



इनसे भी जोखिम काफी घटता है।



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प्रो. कुट्टी की सीख और विरासत


प्रो. देवकी कुट्टी सिर्फ एक शिक्षक नहीं थीं— वे एक विचार थीं, सेवा की एक प्रेरणा थीं।

उन्होंने हमें यह सिखाया कि डॉक्टर सिर्फ इलाज करने वाला नहीं होता, बल्कि सामाजिक चेतना और मानवीय संवेदनाओं का भी वाहक होता है।


आज जब सर्वाइकल कैंसर से लड़ने में दुनिया एक नए युग में प्रवेश कर चुकी है—टीकाकरण, शुरुआती जांच और आधुनिक उपचारों के साथ—तो प्रो. कुट्टी जैसे शिक्षकों की याद और भी प्रासंगिक हो जाती है।


उनकी स्मृति हमें प्रेरित करती है कि

हर महिला को इस कैंसर से बचाया जा सकता है, यदि हम समय पर जांच कराएं और टीकाकरण अपनाएं।




सोमवार, 24 नवंबर 2025

बुजुर्गों महिलाओं और विधवाओं में अधिक है मानसिक बीमारी

 


ग्रामीण बुजुर्गों में याददाश्त खोने की बीमारी बढ़ी

महिलाओं और विधवाओं में अधिक पाई गई मानसिक कमजोरी

सैफई यूनिवर्सिटी, केजीएमयू और एसजीपीजीआई के संयुक्त अध्ययन में बड़ा खुलासा


लखनऊ | कुमार संजय


ग्रामीण इलाकों में रहने वाले बुजुर्गों में याददाश्त और सोचने-समझने की क्षमता में गिरावट की समस्या बढ़ती जा रही है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन में पता चला है कि हर चार में से एक बुजुर्ग मानसिक कमजोरी यानी कॉग्निटिव इम्पेयरमेंट  से पीड़ित है।


अध्ययन में ग्रामीण क्षेत्रों के 350 बुजुर्गों को शामिल किया गया। चयन के लिए थ्री-स्टेज क्लस्टर सैम्पलिंग मैथड अपनाई गई।

बुजुर्गों की मानसिक स्थिति की जांच हिंदी मेंटल स्टेट एग्जामिनेशन (एच.एम.एस.ई.) के माध्यम से की गई। जिनका स्कोर 23 या उससे कम पाया गया, उन्हें मानसिक रूप से कमजोर माना गया।

अध्ययनकर्ताओं ने बताया कि ग्रामीण समाज में महिलाएं और विधवाएं सबसे अधिक प्रभावित हैं, क्योंकि उन्हें पर्याप्त सामाजिक सहयोग और पोषण नहीं मिल पता है।

डॉ. आदर्श त्रिपाठी का कहना है, “मानसिक गिरावट धीरे-धीरे बढ़ती है, लेकिन इसे अक्सर सामान्य बुढ़ापा मानकर नजरअंदाज कर दिया जाता है। जबकि समय पर जांच और देखभाल से स्थिति को सुधारा जा सकता है




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 अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष


कुल 24.9 प्रतिशत बुजुर्गों में मानसिक कमजोरी पाई गई।


87 प्रतिशत मरीजों में यह समस्या हल्के स्तर की थी।


महिलाओं में यह दर 33.9 प्रतिशत रही, जो पुरुषों की तुलना में काफी अधिक थी।


अधिक आयु, विधवा होना, और दैनिक कार्य करने में असमर्थता इसके प्रमुख कारण पाए गए।


शरीर की लंबाई और वजन का भी मानसिक क्षमता से सीधा संबंध मिला — जिनकी कद-काठी कमजोर थी, उनमें याददाश्त की समस्या अधिक पाई गई।




 ऐसे बचाव संभव


शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बुजुर्गों की नियमित मानसिक जांच (स्क्रीनिंग) की व्यवस्था होनी चाहिए।

साथ ही शारीरिक गतिविधि, सामाजिक मेलजोल और संतुलित आहार जैसी जीवनशैली अपनाने से इस समस्या को काफी हद तक रोका जा सकता है।



इन्होंने ने किया शोध



डॉ. प्रत्यक्षा पंडित – कम्युनिटी मेडिसिन विभाग, उत्तर प्रदेश यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिकल साइंसेज, सैफई


डॉ. सुगंधी शर्मा – कम्युनिटी मेडिसिन विभाग, सैफई


डॉ. रीमा कुमारी – कम्युनिटी मेडिसिन एंड पब्लिक हेल्थ विभाग, केजीएमयू


डॉ. आदर्श त्रिपाठी – मनोचिकित्सा विभाग, केजीएमयू,


डॉ. प्रभाकर मिश्रा – बायोस्टैटिस्टिक्स एंड हेल्थ इन्फॉरमैटिक्स विभाग, एसजीपीजीआई, ने 

 “अनरेवलिंग कॉग्निटिव डिक्लाइन अमंग एल्डरली इन रूरल कम्युनिटीज़ – ए क्रॉस सेक्शनल स्टडी” शीर्षक से  शोध किया जिसे  इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री  के अक्टूबर 2025 अंक में प्रकाशित हुआ है। ।


यह होती है परेशानी


बुढ़ापे में याददाश्त कम होना आम समस्या है, लेकिन इससे रोज़मर्रा की ज़िंदगी काफी प्रभावित हो जाती है। बुज़ुर्ग बार-बार चीजें भूलने लगते हैं—दवाइयाँ समय पर लेना, घर का सामान कहाँ रखा है, दरवाज़ा बंद किया या नहीं, जैसी साधारण बातें भी याद नहीं रहतीं। कभी-कभी पास के रास्ते या परिचित चेहरे भी पहचान में नहीं आते। दवाइयाँ मिस होने से बीपी, शुगर जैसी बीमारियाँ बिगड़ सकती हैं और गिरने-फिसलने का खतरा बढ़ जाता है। बार-बार भूलने से चिड़चिड़ापन भी बढ़ता है और व्यक्ति सामाजिक तौर पर अलग-थलग पड़ने लगता है। समय रहते जाँच और देखभाल से स्थिति संभाली जा सकती है।



शनिवार, 22 नवंबर 2025

इंटर कास्ट और इंटर रिलिजन विवाह करने से है कई फायदे




मानव शरीर की आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) बिल्कुल सरल गणित पर चलती है। हर व्यक्ति अपने भीतर कई “कमज़ोर” या “फॉल्टी” जीन लेकर चलता है। यह बिल्कुल सामान्य है और दुनिया के हर इंसान में पाया जाता है। लेकिन अधिकतर ऐसे जीन शांत अवस्था में रहते हैं और बीमारी का कारण नहीं बनते। समस्या तब पैदा होती है जब दोनों माता-पिता एक जैसे फॉल्टी रिसेसिव (दब्बू) जीन लेकर चल रहे हों — और वही जीन संयोग से बच्चे में एक साथ पहुँच जाए।



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🔬 रिसेसिव जीन की भूमिका: सरल भाषा में समझें


1. यदि पति-पत्नी में से केवल एक ही व्यक्ति रिसेसिव फॉल्टी जीन का कैरियर है →

👉 0% संभावना कि बच्चे को बीमारी होगी

👉 बच्चा केवल कैरियर बन सकता है, लेकिन पूरी तरह स्वस्थ रहेगा


2. यदि दोनों पति-पत्नी एक ही फॉल्टी रिसेसिव जीन के कैरियर हों →

हर गर्भधारण में संभावना:


25% बच्चा बीमारी से प्रभावित


50% बच्चा कैरियर (स्वस्थ, लेकिन जीन आगे ले जाएगा)


25% बच्चा पूरी तरह सामान्य



यह गणित दुनिया की हर मेडिकल किताब में लिखा है और जीन के व्यवहार का मूल आधार है।



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🔍 **तो समस्या कहाँ बढ़ती है?


एक ही जाति-समुदाय, या सीमित समूह में विवाह**


जो लोग लगातार एक ही जाति, समुदाय या छोटे सामाजिक समूह में पीढ़ियों तक शादी करते हैं, वे वास्तव में एक सीमित जीन पूल (Limited Gene Pool) में रहते हैं।

इसका मतलब—

👉 उस समूह में एक जैसे फॉल्टी जीन पीढ़ी दर पीढ़ी घूमते रह सकते हैं।

👉 ऐसे में दोनों पार्टनर में एक ही रिसेसिव जीन होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है।


इसीलिए सीमित समुदाय/कजिन मैरिज वाले देशों में आनुवंशिक बीमारियों की दर अधिक पाई जाती है, जैसे—


थैलेसीमिया


जन्मजात बहरापन


अंधापन या कमजोर दृष्टि


दिल के जन्मजात रोग


विकास में देरी


मानसिक अक्षमता


बांझपन


चयापचय संबंधी बीमारियाँ



कई बार लोग कहते हैं कि “हमारे खानदान में तो इतनी पीढ़ियों से अंदर शादी हुई, कुछ नहीं हुआ।”

यह बात प्रायिकता (probability) को न समझ पाने का उदाहरण है।

👉 जोखिम बढ़ता है, उसका मतलब यह नहीं कि हर बार बीमारी होगी।

👉 लेकिन लंबी अवधि में नुकसान तय होता है।



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🌏 इंटर-कास्ट, इंटर-कम्युनिटी और इंटर-रेस विवाह क्यों फायदेमंद?


जब शादी बड़े और विविध जीन पूल में होती है—

👉 समान फॉल्टी रिसेसिव जीन होने की संभावना बहुत कम हो जाती है।

👉 बच्चे में बीमारी की आशंका घट जाती है।

👉 बच्चा अधिक स्वस्थ, ऊर्जावान, और कई मामलों में ज़्यादा बुद्धिमान पाया जाता है।


यह कोई सामाजिक तर्क नहीं, बल्कि पॉपुलेशन जेनेटिक्स का वैज्ञानिक सिद्धांत है।


वैज्ञानिक लाभ


✔ आनुवंशिक बीमारियों का जोखिम कम

✔ बच्चे का इम्यून सिस्टम अधिक मजबूत

✔ संक्रमणों और पर्यावरणीय प्रभावों से बेहतर सुरक्षा

✔ बेहतर विकास—शारीरिक, मानसिक और न्यूरोलॉजिकल

✔ जनसंख्या में “हाइब्रिड विगर” (Hybrid Vigor) बढ़ना, जिससे नए जीन का समावेश और बेहतर अनुकूलन क्षमता


दुनिया के विकसित देशों में मिश्रित विवाहों की दर बढ़ने से कई आनुवंशिक बीमारियों में गिरावट आई है।



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🧬 जनता के लिए वैज्ञानिक संदेश


विविधता (Diversity) कोई खतरा नहीं, बल्कि एक सुरक्षा कवच है।

जितना बड़ा और विविध जीन पूल होगा, आने वाली पीढ़ियाँ उतनी ही स्वस्थ, सुरक्षित और सक्षम होंगी।


सामाजिक समझदारी का अर्थ यही है कि हम अपने अगली पीढ़ियों को एक बेहतर जैविक भविष्य दें—

और यह तभी संभव है जब विवाह सीमित दायरे से बाहर निकलकर व्यापक समाज में हों।




"दूध पीती बच्ची थीं क्या? — अब झूठे आरोपों का खेल !"

 





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"दूध पीती बच्ची थीं क्या? — अब झूठे आरोपों का खेल 


!"


सुनते-सुनते अब कान पक गए—

“लड़के ने शादी का झांसा दिया, झूठा वादा किया, कई साल मेरा शोषण किया…”


अरे एक बात बताओ—


**क्या तुम सच में ऐसी मासूम थीं कि कोई तुम्हें उंगली पकड़कर घुमा ले गया?


क्या तुम 5 साल की बच्ची थीं?

क्या तुम समझदार, पढ़ी-लिखी, मोबाइल चलाने वाली, फैसले लेने वाली इंसान नहीं थीं?**


रिश्ता बनाया किसने?

मुलाक़ातें कौन करता था?

सालों तक साथ कौन रहता था?

होटल कौन जाता था?

वीडियो कॉल, चैट, घूमना—ये सब किसकी मर्जी से होता था?


और जब सबकुछ मन-मुताबिक चलता रहा,

तो वो प्यार था…

और जब बात शादी तक नहीं पहुँची,

तो वो अचानक शोषण कैसे बन गया?


चलो सीधी बात करते हैं—


रज़ामंदी से चले रिश्ते को बाद में “शोषण” नाम देना पुरुषों की ज़िंदगी तबाह करने का आसान हथियार बन चुका है।


कई लड़कों का करियर, इज्जत, परिवार—सब खत्म,

सिर्फ इसलिए कि रिश्ता टूटते ही कहानी उलट दी जाती है।


क्योंकि पता है न—

समाज सुनता लड़की की है, सबूत माँगे जाते लड़के से हैं।


लेकिन अब ज़माना बदल रहा है।

अब लोग समझ रहे हैं कि

हर आरोप सच नहीं होता।

हर लड़की पीड़िता नहीं होती।

और हर लड़का अपराधी नहीं होता।


अब बस!


पुरुषों को भी सुरक्षा चाहिए।

पुरुषों के लिए भी कानून चाहिए।

क्योंकि निर्दोष मर्दों की बर्बादी किसी भी सभ्य समाज की निशानी नहीं है।


और हाँ—


जो रिश्ते सालों तक

दोनों की मर्जी,

दोनों की इच्छा,

दोनों की भागीदारी से चलते हैं,


उनका ठीकरा एकतरफा किसी एक इंसान के सिर फोड़ देना—

ये न तो न्याय है,

न सच्चाई है,

न ईमानदारी है।


**सावधान रहो।


सतर्क रहो।

अब झूठे आरोपों से पुरुषों को बचाना ही समय की सबसे बड़ी जरूरत है।**



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सपा : कम से कम डिप्टी सीएम बनने का सपना तो दिखाइए

 

सपा :  कम से कम डिप्टी सीएम बनने का सपना तो दिखाइए

नेताओं को सम्मान और शक्ति दीजिए।

“यादवों की ‘सामाजिक न्याय ठेकेदारी’ का मिथक: उत्तर भारत की राजनीति को नई दिशा देने का समय”


“सामाजिक न्याय की राजनीति में यादवों की भूमिका पर पुनर्विचार: सपा–राजद के लिए तीन कड़वी लेकिन जरूरी सलाह”



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बिहार में राजद की चुनावी हार के बाद यादव समुदाय में भारी निराशा देखी गई। कई यादव बंधुओं ने कहा कि “हम ओबीसी के लिए लड़ते हैं, सामाजिक न्याय के लिए खड़े होते हैं, और हर बार निशाने पर आ जाते हैं। शायद हमें सामाजिक न्याय की लड़ाई छोड़ देनी चाहिए।”

पर सच्चाई यह है कि बिहार और यूपी के यादवों को सामाजिक न्याय की ठेकेदारी तुरंत छोड़ देने की जरूरत है। आखिर एक ही जाति क्यों सामाजिक न्याय का ठेका ले? और वह भी तब, जब जिन्हें आप अपना नेतृत्व देकर आगे बढ़ाना चाहते हैं, वही वर्ग आपको पूरी तरह स्वीकार ही नहीं करता?


मुलायम सिंह यादव समाजवादी नेता थे। पर उन्होंने कभी सामाजिक न्याय यानी आरक्षण की लड़ाई नहीं लड़ी। जिनके नाम पर सोशल जस्टिस का नैरेटिव खड़ा किया गया, वे खुद जाति-आधारित राजनीति के धुर विरोधी थे।

आज हालत यह है कि सपा में कुछ “जय भीम” विचारधारा के लोग घुस आए हैं, जो प्रभावी हुए तो सपा का पतन 2027 के चुनाव में तय है—ठीक वैसे ही जैसे वामपंथी विचारधारा ने कांग्रेस को एनजीओ में बदल दिया।


एक युवा भीमवादी ब्राह्मण ने लिखा—“जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी।”

लेकिन यह आधा ज्ञान है। ओबीसी आरक्षण का पहला आयोग काका कालेलकर आयोग था, जिसमें बैरिस्टर शिव दयाल सिंह चौरसिया ने 64 पन्ने का असहमति नोट देकर कहा था कि “ओबीसी की संख्या जितनी है, उतना प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए।”

यह विचार कांशीराम का नहीं था। इसे लेकर बहुत भ्रम फैलाया गया।


✦ ओबीसी आरक्षण का वास्तविक इतिहास


आज जो लोग सोशल जस्टिस की राजनीति का श्रेय यादवों को देते हैं, उन्हें वास्तविक इतिहास जान लेना चाहिए—


शुरू में केवल बीसी (Backward Class) आरक्षण की मांग चल रही थी।


अंग्रेजों ने जब बीसी में से दलित/अछूत को अलग कर SC-ST आरक्षण दिया, तब डॉ. अंबेडकर अपने वर्ग को लेकर अलग हो गए।


बचे वर्ग के लिए OBC शब्द बना।


महाराष्ट्र में पंजाबराव देशमुख के नेतृत्व में इसकी सबसे बड़ी लड़ाई चली।


उत्तर भारत के यादव नेताओं को जोड़ने के लिए चौधरी ब्रह्म प्रकाश और फिर बीपी मंडल को सामने लाया गया।


यूपी में शिव दयाल सिंह चौरसिया और रामस्वरूप वर्मा बड़ा आंदोलन चला चुके थे।


बिहार में कर्पूरी ठाकुर और जगदेव प्रसाद कुशवाहा ने अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी।



इसलिए साफ़ है कि मुलायम, लालू, नीतीश ने इस आंदोलन में सहयोग तो दिया, पर लड़ाई नहीं लड़ी।

इन बातों को जानने के लिए “जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण” पुस्तक पर्याप्त है।


✦ यादवों को सामाजिक न्याय की ठेकेदारी क्यों छोड़नी चाहिए?


बीपी, कर्पूरी, jagdev, चौरसिया और वर्मा जैसे नेताओं ने 90% संघर्ष किया। यादव समाज ने बहुत कम।

इसलिए आज सबसे पहला काम है—

“यादव समुदाय यह स्वीकार करे कि सामाजिक न्याय की लड़ाई में उनका योगदान सीमित रहा है।”


इसके बाद ही बिहार–यूपी की राजनीति साफ़ होगी और सपा–राजद का भविष्य सुधरेगा।


✦ यादवों की सबसे बड़ी समस्या: तीन चेहरे, तीन चेहरे ही


यूपी–बिहार में यादव सामाजिक न्यायवादी बन जाते हैं, लेकिन हरियाणा, एमपी, राजस्थान में वही लोग पूर्ण संघी बन जाते हैं।

इससे जनता कैसे मान ले कि आप सामाजिक न्याय के अवतार हैं?


यदि यादवों को राजनीतिक शक्ति बढ़ानी है, तो सबसे पहले राजद और सपा का एकीकरण कर एक राष्ट्रीय स्तर की यादव पार्टी बनानी चाहिए।

अन्यथा “सामाजिक न्याय का नेता” कहना हास्यास्पद ही लगेगा।


✦ सपा के लिए तीन सबसे महत्वपूर्ण सलाह


1. सामाजिक न्याय की ठेकेदारी बंद कीजिए।

यादवों का योगदान सीमित रहा है—इसे स्वीकार करिए। अन्य जातियों के योगदान को सम्मान दीजिए।


2. समाजवादी बने रहिए, भीमवादी नहीं।

मनुस्मृति लेकर समाज को ब्राह्मण–क्षत्रिय–वैश्य–शूद्र बांटना बंद कीजिए।

कुर्मी, अहीर, काछी, लोहार, बढ़ई, नाई, धोबी, कहार, कुम्हार—इन जातियों को कोई शूद्र नहीं मानता, न समाज मानता है, न ये खुद।


3. पार्टी में दूसरों को स्पेस दीजिए।

सपा में मुलायम परिवार के अलावा कोई सीएम नहीं बन सकता—यह धारणा तोड़िए।

कम से कम डिप्टी सीएम बनने का सपना तो दिखाइए।

नेताओं को सम्मान और शक्ति दीजिए।


✦ अंतिम नोट

 एमेज़ॉन से “जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण” पुस्तक लेकर पढ़ सकते  है।

वहीं वास्तविक मार्गदर्शन मिलेगा।



#भवतु_सब्ब_मंगलम

दो जगह अगर आप लगातार जाते रहें—




“आईसीयू की खामोशी में टूटती उम्मीदें… 









दो जगह अगर आप लगातार जाते रहें—

एक अस्पताल का गहन चिकित्सा कक्ष (आईसीयू) और दूसरा श्मशान घाट,

तो जिंदगी का हर पल आपको एक उपहार सा लगने लगेगा।

न कोई घमंड रह जाएगा,

न किसी चीज़ का लालच बच पाएगा।


किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (केजीएमयू) के गहन चिकित्सा कक्ष (आईसीयू) में तैनात डॉ. विपिन सिंह बताते हैं कि दो दिन पहले उनके गहन चिकित्सा कक्ष में सिर्फ 25 वर्ष का एक युवक भर्ती हुआ।

तीन महीने से वह बाहर इलाज कराता रहा, लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ।

अल्कोहॉलिक पैनक्रियाटाइटिस (अग्न्याशय की शराबजनित सूजन) के लिए उसका एक प्रक्रिया हुआ था, लेकिन मामला बिगड़ गया।

पैसे खत्म हुए तो आख़िर में एक ही आशा बची—सरकारी अस्पताल का गहन चिकित्सा कक्ष।


जब सीटी स्कैन कराया गया तो पता चला कि उसके मस्तिष्क में भारी मात्रा में रक्तस्राव है और वह अब मस्तिष्क-मृत हो चुका है।

घरवालों को यह बताया गया तो पूरा परिवार डॉक्टर के सामने फूट-फूटकर रोने लगा।

डॉ. विपिन सिंह बताते हैं—

“मैं लगभग 30 मिनट उनके साथ खड़ा रहा। अब इलाज की कोई संभावना नहीं थी, लेकिन कम से कम मानवता के नाते सहानुभूति तो दे ही सकता था।”


अंगदान के लिए पूछा गया, लेकिन परिवार ने साफ़ मना कर दिया।


युवक की तीन बड़ी बहनें थीं, माता-पिता और उसकी होने वाली मंगेतर।

हर कोई अपने ढंग से रो रहा था, बोल रहा था—

माँ: “बहुत मनौतियों के बाद यह बेटा हुआ था…”

बहनें: “अब हमारे माँ-बाप का सहारा कौन बनेगा बुढ़ापे में…”

मंगेतर: “मेरी तो जिंदगी ही उजड़ गई… और ऊपर से बाहर के डॉक्टरों की गलतियाँ ये हाल कर गईं…”

लेकिन एक व्यक्ति चुप था—पिता।

वह सबको ढांढस बँधा रहा था, जैसे जीवन के उतार-चढ़ाव ने उसे सबसे ज्यादा सिखाया था।

वह स्वीकार कर चुका था… और शायद कर भी क्या सकता था।


डॉ. विपिन सिंह बताते हैं—

“ऐसे मामलों से मुझे हर दिन दो-चार होना पड़ता है। इसलिए मैं आप सबके साथ वास्तविक घटनाएँ साझा करता हूँ। किसी को अच्छा लगे या बुरा, उससे मुझे फर्क नहीं पड़ता।”



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कुछ सवाल और दर्दभरी सीखें – डॉ. विपिन सिंह (आईसीयू, केजीएमयू)


1. क्या शराब पीना इतना ज़रूरी है?

सभी में अग्न्याशय की सूजन नहीं होती, लेकिन शराब शरीर को धीरे-धीरे खोखला अवश्य कर देती है।


2. शरीर मिला है, उसका ख्याल रखना भी हमारी ही जिम्मेदारी है।

यह शरीर एक बेहद जटिल मशीन है—डॉक्टर चाहे कितना भी कुशल क्यों न हो, इसकी पूरी गारंटी कोई नहीं ले सकता।


3. क्या सिर्फ लड़का ही परिवार का सहारा होता है? लड़की नहीं?

ये सोच बदलनी होगी, और यह घटना इसका बड़ा उदाहरण है।


4. क्या सारे डॉक्टर अच्छे होते हैं?

नहीं, क्योंकि डॉक्टरी की उपाधि ईमानदारी की गारंटी नहीं होती।

लेकिन फिर भी, अन्य पेशों की तुलना में यह पेशा अधिक ईमानदार है।


5. क्या निजी और सरकारी दोनों अस्पताल भ्रष्ट हैं?

अगर ऐसा होता, तो दोनों जगह इतनी भीड़ क्यों रहती?


6. मेरा अनुभव:

गंभीर आपात स्थिति में निजी अस्पताल जाइए,

और नियोजित उपचार के लिए सरकारी अस्पताल पर्याप्त हैं।


7. स्वास्थ्य बीमा हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य है।



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और आखिर में…

यह छोटी सी जिंदगी सुख से कम, दुख से ज्यादा भरी है।

इसे जीना तभी आसान होता है,

जब हम अपने भीतर आनंद ढूंढना सीख जाएं।


शराब और नशा आपको कभी खुशहाल जीवन नहीं दे सकते…

मैंने आईसीयू में अपनी आंखों से यह सच हजारों बार देख लिया है।


(यह पूरा अनुभव किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के आईसीयू में कार्यरत डॉक्टर विपिन सिंह द्वारा साझा किया गया है।)

बुधवार, 19 नवंबर 2025

ट्रामा का शिकार, आधी मौतें पहले घंटे में

 


हर साल 50 लाख लोग ट्रामा का शिकार, आधी मौतें पहले घंटे में—जान बचाने की तकनीक सिखाने वाला देश का पहला ‘टीम’ कोर्स एसजीपीजीआई में आयोजित

लखनऊ। भारत में ट्रामा एक बढ़ता हुआ संकट बन चुका है। हर वर्ष लगभग 50 लाख लोग गंभीर चोटों की वजह से अस्पताल पहुँचते हैं और करीब 1.5 लाख लोगों की मौत केवल सड़क हादसों में हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार कुल मौतों का लगभग आधा हिस्सा घटना के पहले एक घंटे, जिसे स्वर्णिम घड़ी कहा जाता है, में हो जाता है। यदि इसी अवधि में सही कदम उठा लिए जाएँ—जैसे खून रोकना, वायुमार्ग साफ रखना, और मरीज को स्थिर स्थिति में रखना—तो 70 से 80 प्रतिशत मरीजों की जान बचाई जा सकती है।

इन्हीं जीवनरक्षक तकनीकों को व्यवस्थित रूप से सिखाने के लिए संजय गांधी आयुर्विज्ञान  संस्थान में देश का पहला ट्रामा इवैल्युएशन ऐंड मैनेजमेंट  कोर्स आयोजित किया गया। यह प्रशिक्षण अमेरिकन कालेज आफ सर्जन्स, यूएसए से प्रमाणित है और 18 नवम्बर 2025 को सम्पन्न हुआ।



ट्रामा से बचने के जरूरी उपाय 

खून बह रहा हो तो तुरंत कपड़ा दबाकर रक्तस्राव रोकें

मरीज को हिलाएँ-डुलाएँ नहीं, रीढ़ की हड्डी को नुकसान बढ़ सकता है

साँस में दिक्कत हो तो वायुमार्ग साफ करें और करवट देकर रखें

आसपास भीड़ न होने दें, 108/112 को तुरंत कॉल करें

घटना के पहले 10 मिनट जीवन बचाने में निर्णायक होते हैं







 चिकित्सक-नर्स-तकनीशियन को मिला जीवनरक्षक प्रशिक्षण

एसजीपीजीआई के इस पहले बैच में 36 चिकित्सकों, नर्सों और तकनीशियनों को अंतरराष्ट्रीय मानक अनुसार प्रशिक्षण दिया गया।

प्रमुख प्रशिक्षकों में शामिल रहे—

प्रो. मयूर नारायण (यूएसए) – कोर्स निदेशक

प्रो. अजय मल्होत्रा (यूएसए)

प्रो. देवाशीष अंजारिया (यूएसए)

प्रो. संदीप साहू – कोर्स संयोजक

प्रो. समीर मिश्रा

प्रो. मदन मिश्रा

प्रो. वेद प्रकाश


प्रशिक्षण में प्रतिभागियों को घायल व्यक्ति के प्राथमिक मूल्यांकन, खून रोकने की विधियाँ, श्वास-मार्ग प्रबंधन, पुनर्जीवन प्रक्रिया और अस्पताल-पूर्व देखभाल के वैज्ञानिक तरीके सिखाए गए।




एटीएलएस इंडिया के मार्गदर्शन में सफल आयोजन

इस कोर्स को आयोजन में एटीएलएस इंडिया के चेयर प्रो. एम.सी. मिश्रा का महत्वपूर्ण मार्गदर्शन मिला।

कोर्स संयोजक प्रो. संदीप साहू ने कहा, “ट्रामा मरीजों की जान बचाने के लिए प्रशिक्षित टीम का होना बेहद जरूरी है।

सोमवार, 17 नवंबर 2025

एसजीपीजीआई नर्सिंग स्टाफ एसोसिएशन की आम सभा

 



एसजीपीजीआई नर्सिंग स्टाफ एसोसिएशन की आम सभा 


लंबित मांगों, दिल्ली रैली और आंदोलन पर बनी सहमत


संजय गांधी पीजीआई की नर्सिंग स्टाफ एसोसिएशन  ने शनिवार, 17 नवंबर 2025 को संस्थान परिसर स्थित एडम ब्लॉक प्लाज़ा में आम सभा आयोजित की। बैठक की अध्यक्षता एनएसए अध्यक्ष लता सचान ने की, जबकि संचालन एवं संगठनात्मक प्रस्तावों पर महामंत्री विवेक शर्मा ने मार्गदर्शन दिया।


आम सभा में नर्सिंग कैडर की लंबे समय से शासन स्तर पर लंबित मांगों पर विस्तार से चर्चा की गई। लता सचान ने कहा कि नर्सिंग स्टाफ की समस्याएँ वर्षों से समाधान की प्रतीक्षा कर रही हैं, ऐसे में इन्हें प्राथमिकता से निस्तारित करना आवश्यक है।


महामंत्री विवेक शर्मा ने बताया कि एसोसिएशन एनएमओपीएस (नेशनल मूवमेंट फॉर ओल्ड पेंशन स्कीम) के आह्वान पर 25 नवंबर 2025 को दिल्ली में आयोजित रैली में सक्रिय रूप से भाग लेगी। उन्होंने कहा कि पुरानी पेंशन बहाली का मुद्दा नर्सिंग कर्मचारियों के हित से सीधा जुड़ा है, इसलिए अधिकतम संख्या में सदस्य रैली में हिस्सा लेंगे।


सभा में यूनियन के विधान संशोधन के प्रस्तावों पर भी विचार किया गया और आगे की आवश्यक कार्यवाही सुनिश्चित की गई।


लता सचान और विवेक शर्मा दोनों ने साफ कहा कि यदि शासन स्तर पर मांगों का समयबद्ध समाधान नहीं होता है, तो एसोसिएशन आंदोलन की रूपरेखा पर आगे बढ़ने को बाध्य होगी।


आम सभा में सभी पदाधिकारियों के साथ बड़ी संख्या में नर्सिंग कर्मचारियों ने भाग लेकर कार्यक्रम को सफल बनाया।

रविवार, 16 नवंबर 2025

समय से पहले जन्म लेने वाले बच्चों को अधिक देखरेख की जरूरत, सांस-हृदय व संक्रमण का खतरा ज्यादा

 





समय से पहले जन्म लेने वाले बच्चों को अधिक देखरेख की जरूरत, सांस-हृदय व संक्रमण का खतरा ज्यादा


संजय गांधी पीजीआई में राष्ट्रीय नवजात शिशु सप्ताह और विभाग के फ़ाउंडेशन डे के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में समयपूर्व जन्म लेकर जीवन की गंभीर चुनौतियों को मात देने वाले, फिल्म हक़ के बाल कलाकार और प्रेरक  हेदर अली (मास्टर हेदर) विशेष रूप से भाग लेने आए। उनके माता-पिता ने

ने   कहा कि डॉक्टरों की सतत देखभाल, माता-पिता के धैर्य और नियमित फॉलो-अप ने ही उन्हें स्वस्थ जीवन दिया है। उन्होंने अपने उपचार और निगरानी के लिए डॉ. अनीता सिंह का विशेष आभार व्यक्त किया।


विशेषज्ञों ने बताया कि समय से पहले जन्म लेने वाले शिशुओं में सांस रुकने (एपनिया), फेफड़ों के अधूरे विकास, कम वजन, संक्रमण, पीलिया, तापमान गिरने, आँखों की बीमारी (रेटिनोपैथी) और मस्तिष्क में रक्तस्राव जैसी समस्याओं का खतरा अधिक रहता है। ऐसे बच्चों को जन्म के तुरंत बाद एनआईसीयू में उच्च स्तरीय देखभाल, संक्रमण से सुरक्षा, स्तनपान को बढ़ावा और नियमित फॉलो-अप की आवश्यकता होती है। साइक्लो-वॉकाथन में बड़ी संख्या में प्रतिभागी शामिल हुए।  विभागाध्यक्ष डॉ. किर्ति नरंजे  मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉ. आर. हर्षवर्धन ने नवजात स्वास्थ्य को लेकर सामुदायिक जागरूकता की आवश्यकता पर बल दिया।

 आयोजन के समन्वय में डॉ. अकांक्षा, डॉ. सुशील, डॉ. फौजिया और डॉ. अभिषेक पॉल की भूमिका सराहनीय रही।

पीजीआई की डॉ पूजा को प्रथम पुरस्कार

 पीजीआई के डॉक्टर्स ने राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में लहराया परचम






उड़ीसा के पुरी में छह से नौ नवंबर तक हुई इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीडियाट्रिक सर्जन्स की कॉन्फ्रेंस में संजय गांधी पीजीआई के डॉक्टरों और रेजिडेंट्स ने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया।


कॉन्फ्रेंस में एमसीएच द्वितीय वर्ष की रेज़िडेंट डॉ. पूजा प्रजापति को केके शर्मा अवॉर्ड में प्रथम पुरस्कार मिला। इसके साथ ही “अर्ली जीआई ब्लीड पोस्ट कसाई पोर्टोएन्टरोस्टॉमी” विषय पर उन्हें गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल श्रेणी में द्वितीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।


एमसीएच तृतीय वर्ष के डॉ. तरुण कुमार को मिनिमली इनवेसिव सर्जरी श्रेणी में प्रथम पुरस्कार मिला। वहीं द्वितीय वर्ष के एमसीएच रेजिडेंट डॉ. राहुल गोयल ने लैप्रोस्कोपिक मैनेजमेंट पर अपना शोध प्रस्तुत किया।


विभागाध्यक्ष प्रो. डॉ. बसंत कुमार ने सम्मेलन में विशेषज्ञ व्याख्यान दिया। इसके अलावा प्रो. डॉ. अंकुर मंडेलिया और प्रो. डॉ. विजय दत्त उपाध्याय ने भी अपने व्याख्यान प्रस्तुत किए।

डायबिटीज़ पीड़ित पुरुष जरूर कराएं प्रोस्टेट कैंसर की जांच





डायबिटीज़ से बढ़ता है प्रोस्टेट कैंसर का खतरा,


 शुगर नियंत्रण से घट सकता है जोखिम


वैज्ञानिकों ने दी चेतावनी – डायबिटीज़ पीड़ित पुरुष जरूर कराएं प्रोस्टेट कैंसर की जांच


लखनऊ | कुमार संजय


डायबिटीज़ से ग्रस्त पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर का खतरा सामान्य पुरुषों की तुलना में काफी अधिक पाया गया है। इतना ही नहीं, इन मरीजों में कैंसर का रूप भी अधिक आक्रामक (एग्रेसिव) होता है। किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (केजीएमयू) के वैज्ञानिकों ने अपने नवीनतम शोध में यह बड़ा खुलासा किया है। अध्ययन में पाया गया कि डायबिटीज़ शरीर के मेटाबॉलिक और हार्मोनल संतुलन को प्रभावित करती है, जिससे कैंसर कोशिकाओं को बढ़ने और फैलने का अनुकूल माहौल मिल जाता है।



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कैंसर को बढ़ावा देने वाले तत्व पाए गए अधिक


शोध में पाया गया कि जिन पुरुषों को डायबिटीज़ है, उनके शरीर में इंसुलिन, आईजीएफ-वन (इंसुलिन लाइक ग्रोथ फैक्टर-1), एचबीए1सी (ब्लड शुगर का औसत स्तर) और पीएसए (प्रोस्टेट स्पेसिफिक एंटीजन) का स्तर सामान्य से अधिक होता है। इन तत्वों की अधिकता कैंसर कोशिकाओं को तेजी से बढ़ने और अधिक खतरनाक बनने में मदद करती है।



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हर डायबिटीज़ रोगी को कैंसर नहीं होता


विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया कि हर डायबिटीज़ रोगी को प्रोस्टेट कैंसर नहीं होता, लेकिन जोखिम बढ़ जाता है। यदि ब्लड शुगर को नियंत्रित रखा जाए, वजन सामान्य हो, नियमित व्यायाम किया जाए और स्वस्थ जीवनशैली अपनाई जाए, तो इस खतरे को काफी हद तक कम किया जा सकता है।



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क्यों तेजी से बढ़ता है कैंसर


अध्ययन में यह पाया गया कि डायबिटीज़ और प्रोस्टेट कैंसर दोनों से पीड़ित मरीजों में इंसुलिन और आईजीएफ-वन का स्तर सामान्य से काफी अधिक था। यही कारण है कि इन मरीजों में कैंसर कोशिकाएं तेज़ी से विभाजित होकर फैलती हैं। इसके साथ ही एचबीए1सी और लिपिड प्रोफाइल का सीधा संबंध कैंसर की गंभीरता से पाया गया।



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300 मरीजों पर किया गया अध्ययन


यह अध्ययन 300 पुरुष मरीजों पर किया गया — जिनमें 100 मरीजों को बेनाइन प्रोस्टेटिक हाइपरप्लासिया (बीपीएच), 100 को प्रोस्टेट कैंसर और 100 को डायबिटीज़ के साथ प्रोस्टेट कैंसर था। इन सभी की मेटाबॉलिक और हार्मोनल प्रोफाइल का तुलनात्मक विश्लेषण किया गया।



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शोध टीम में रहे विशेषज्ञ


केजीएमयू के पैथोलॉजी विभाग से डॉ. प्रीति अग्रवाल, यूरोलॉजी विभाग से डॉ. अवनीत गुप्ता व प्रो. सत्य एन. संखवार, बायोकैमेस्ट्री विभाग से डा. अब्बास ए. महदी, ईरा मेडिकल कॉलेज से डा. अफरीन खान, डा. अनु चंद्रा और डा. सैयद तस्लीम रज़ा शामिल रहे।

शोध “इन्फ्लुएंस ऑफ डायबिटीज़ मेलिटस ऑन मेटाबॉलिक एंड हार्मोनल इंटरैक्शन प्रमोटिंग एग्रेसिव प्रोस्टेट कैंसर” शीर्षक से किया गया है, जिसे अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा पत्रिका क्यूरियस  में प्रकाशित किया गया है।



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विशेषज्ञों की राय


संजय गांधी पीजीआई, लखनऊ के प्रो. सुभाष यादव का कहना है


> “डायबिटीज़ को नियंत्रित रखना केवल हृदय या किडनी की बीमारियों से बचने के लिए ही नहीं, बल्कि कैंसर के जोखिम को घटाने के लिए भी जरूरी है। मरीजों को चाहिए कि वे नियमित रूप से ब्लड शुगर की जांच कराएं, मीठे और तले भोजन से परहेज करें, प्रतिदिन कम से कम 30 मिनट टहलें और वजन नियंत्रित रखें।

लड़कियाँ फँसती नहीं, फँसाई जाती हैं

 



लड़कियाँ फँसती नहीं, फँसाई जाती हैं

शिकार को दोष देने की बजाय शिकारी का विरोध कीजिए...


दरअसल, हममें से अधिकांश लोग सच को स्वीकार करने से कतराते हैं। बोरे में, सूटकेस में या फ्रिज में मिली लड़कियों की लाशों पर हम जल्दी ही फैसला सुना देते हैं—“लड़की उदंड थी, परिवार की नहीं सुनी, अपनी करनी का फल भुगत रही??लेकिन 99% मामलों में यह आकलन पूरी तरह गलत होता है। सच यह है कि लड़की फँसती नहीं, फँसाई जाती है। उसके चारों ओर इतना मजबूत जाल बुन दिया जाता है कि बच निकलना लगभग असंभव हो जाता है।


शिकारी के पास सहयोगियों की फौज, शिकार के पास अज्ञानता का अंधेरा....

लड़के को हजारों सहयोगी मिलते हैं—दोस्त, रिश्तेदार, सोशल मीडिया के 'फ्रेंड्स', यहाँ तक कि कुछ पुलिसकर्मी और स्थानीय गुंडे भी।  

लड़की को कोई बताता तक नहीं कि इन 'लुटेरों' से दूर रहना है।  

गाँव-देहात की मैट्रिक-इंटर पढ़ने वाली 80% से ज्यादा लड़कियाँ न तो अखबार पढ़ती हैं, न टीवी न्यूज़ देखती हैं, न सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं (NFHS-5 डेटा के अनुसार, ग्रामीण किशोरियों में इंटरनेट उपयोग मात्र 25% है)। जो थोड़ी-बहुत ऑनलाइन हैं, वे गीत, शायरी, रील्स में डूबी रहती हैं। परिवार वाले कभी ढंग से समझाते नहीं। पड़ोस की किसी इंटर स्टूडेंट से पूछिए—“क्या तुम्हें सूटकेस वाली घटनाएँ पता हैं?” उत्तर 9 में से 10 बार 'नहीं' ही होगा।


लड़की का दोष क्या?

वह टीवी देखती है—जहाँ प्यार की चाशनी लिपटी दिखाई जाती है। इंस्टा-फेसबुक पर लव शायरी बिखरी पड़ी है। घरवाले मिलते हैं तो सिर्फ रिजल्ट की बात करते हैं। धर्म, नैतिकता, खतरे की पहचान—ये विषय कभी चर्चा का हिस्सा नहीं बनते। स्कूल-कॉलेज की किताबों से लेकर खेलकूद तक, हर जगह सेक्युलरिज्म की महिमा गाई जा रही है, लेकिन “सुरक्षा” का पाठ कहीं नहीं पढ़ाया जाता।


ऐसी लड़की को कोई आफताब मिलता है, जिसकी फेसबुक प्रोफाइल पर धर्म की जगह “मानवता” लिखा होता है, जो प्रेम की मूर्ति बनकर “तेरी दुनिया बदल दूँगा” का वादा करता है। उसके लिए यह सब सामान्य ही लगता है। बचना आसान है क्या?


फँसने के बाद बाहर निकलने का रास्ता शून्य

एक बार जाल में फँस जाए तो:  

 एक तरफ इमोशनल ब्लैकमेलिंग (“मैं मर जाऊँगा”, “सब छोड़ दूँगा”)  

 दूसरी तरफ फोटो-वीडियो वायरल करने का डर...

तीसरी तरफ परिवार-सम्मान का बोझ...


NCRB 2022 डेटा: 15-18 साल की 28,000+ लड़कियाँ “लव अफेयर” के नाम पर गायब हुईं, जिनमें से 60% के शव कभी नहीं मिले। जो मिले, वे बोरे, सूटकेस या जंगल में।


समाज को क्या करना चाहिए? — व्यावहारिक कदम

1. परिवार स्तर पर

 हर रविवार 15 मिनट की “सुरक्षा वार्ता” अनिवार्य करें।  

  “अजनबी दोस्ती के 10 लाल झंडे” (Red Flags) की सूची दीवार पर चिपकाएँ।  

 लड़कियों को डिजिटल साक्षरता सिखाएँ—प्राइवेसी सेटिंग्स, फेक प्रोफाइल पहचान।  


2. स्कूल-कॉलेज स्तर पर

  कक्षा 8 से “पर्सनल सेफ्टी एंड साइबर अवेयरनेस” को अनिवार्य विषय बनाएँ (जैसे CBSE ने 2023 में पायलट शुरू किया)।  

 हर स्कूल में ‘मेंटर टीचर’ तैनात करें, जिससे लड़कियाँ बिना डर के बात कर सकें।  


3. समुदाय स्तर पर

  मोहल्ला समितियों में ‘लड़कियों की सुरक्षा चौपाल’ हर महीने।  


स्थानीय थाने में ‘गर्ल्स हेल्प डेस्क’ —महिला कांस्टेबल के साथ।  

व्हाट्सएप ग्रुप्स में सुरक्षा जागरूकता रील्स शेयर करें (जैसे दिल्ली पुलिस की “Himmat Plus” मॉडल)।  


4. मीडिया और सोशल मीडिया पर

 हर “लव जिहाद” या “सूटकेस कांड” की खबर के साथ ‘कैसे बचें’ इन्फोग्राफिक अनिवार्य।  

 इंस्टाग्राम/यूट्यूब इन्फ्लुएंसर्स को सुरक्षा कैंपेन के लिए प्रोत्साहित करें।  


5. कानूनी स्तर पर

  ‘डिजिटल ब्लैकमेलिंग’ को अलग IPC सेक्शन बनाएँ (जैसे महाराष्ट्र ने 2022 में किया)।  

 फास्ट-ट्रैक कोर्ट हर जिले में—90 दिन में फैसला।  



सूटकेस में लाश देखकर हँसना या लड़की को कोसना शिकारी का मनोबल बढ़ाता है।  

शिकार को दोष देना बंद कीजिए, शिकारी का विरोध कीजिए।

अपने घर, पड़ोस, स्कूल में आज से ही बात शुरू कीजिए।  

एक जागरूक लड़की एक सुरक्षित पीढ़ी।

यह बीमारी तभी खत्म होगी जब हम पीड़ित को गले लगाएँगे और शिकारी को फांसी देंगे।



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शनिवार, 15 नवंबर 2025

न्यूरो-मॉड्यूलेशन कमर और गर्दन दर्द से राहत की नई उम्मीद

 



न्यूरो-मॉड्यूलेशन  कमर और गर्दन दर्द से राहत की नई उम्मीद

इंडियन सोसायटी ऑफ पेन क्लिनिशियंस कॉन्फ्रेंस  2025 में विशेषज्ञों ने बताया—दवाओं से राहत न मिले तो यह तकनीक बड़ा सहारा



संजय गांधी पीजीआई   में आयोजित इंडियन सोसायटी ऑफ पेन क्लिनिशियंस कॉन्फ्रेंस (आईएसपीसीकॉन) 2025 में विशेषज्ञों ने न्यूरो-मॉड्यूलेशन  को कमर दर्द व गर्दन दर्द में राहत देने वाली सबसे उन्नत तकनीक बताया। पेन मेडिसिन विशेषज्ञ प्रो. संदीप खूबा और प्रो. सुजीत गौतम ने कहा कि जब लंबे समय तक दवाओं से आराम नहीं मिलता या दर्द बार-बार लौट आता है, तब न्यूरो-मॉड्यूलेशन अत्यंत प्रभावी विकल्प है।


उन्होंने बताया कि इस तकनीक में नसों पर हल्के इलेक्ट्रिक सिग्नल  दिए जाते हैं, जिससे दर्द के संकेत दिमाग तक कम पहुँचते हैं। इसके लिए एक छोटा डिवाइस लगाया जाता है, जो लगातार या जरूरत के अनुसार विद्युत तरंगें  भेजता है। इसमें बड़ी सर्जरी की आवश्यकता नहीं पड़ती और मरीज जल्दी सामान्य जीवन में लौट आता है। एनेस्थीसिया विभाग के प्रमुख प्रोफेसर संजय धीराज ने बताया कि  लाइफस्टाइल में गलत पोस्चर, लंबे समय तक बैठने और उम्र बढ़ने से कमर-गर्दन दर्द आम हो गया है—ऐसे में न्यूरो-मॉड्यूलेशन सुरक्षित और लंबे समय तक राहत देने वाला उपचार है।



डीएम इन पेन मैनेजमेंट पाठ्यक्रम की है जरूरत


सम्मेलन की थीम “डीनर्वेशन टू रेजेनरेशन  रही। उद्घाटन प्रो. पी.के. सिंह (पूर्व निदेशक, एम्स पटना – ऐम्-स) और प्रो. शालीन कुमार, डीन एसजीपीजीआईएमएस ने किया।

प्रो. सिंह ने एसजीपीजीआई में पेन मेडिसिन के विकास और डॉ. अनिल अग्रवाल के योगदान को सराहा। प्रो. शालीन कुमार ने कठिन दर्द स्थितियों और कैंसर रोगियों की देखभाल में पेन मेडिसिन यूनिट की भूमिका की प्रशंसा की।


आईएसपीसी के अध्यक्ष डॉ. सुजीत गौतम ने पेन मेडिसिन में संरचित प्रशिक्षण और मान्यता प्राप्त पाठ्यक्रम शुरू करने की जरूरत पर जोर दिया। सचिव डॉ. अजीत कुमार ने डी.एम. पेन मेडिसिन  कार्यक्रम शुरू किए जाने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।


वैज्ञानिक सत्रों में प्लेटलेट रिच प्लाज़्मा  थेरेपी, रेजेनरेटिव मेडिसिन , उन्नत डीनर्वेशन  तकनीकें, ट्राइजे़मिनल  इंटरवेंशन और अल्ट्रासाउंड-गाइडेड  प्रक्रियाओं के लाइव प्रदर्शन हुए।





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शुक्रवार, 14 नवंबर 2025

पीआरपी थेरेपी से घुटने के दर्द से लंबे समय तक राहत

 



पीजीआई में इंडियन सोसाइटी ऑफ पेन क्लीनिक का अधिवेशन आज



पीआरपी  थेरेपी  से घुटने के दर्द से लंबे समय तक राहत


लखनऊ।  ओस्टियोआर्थराइटिस तेजी से बढ़ रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार यह समस्या 40 साल की उम्र के बाद अधिक पाई जाती है और लगभग हर दूसरा मध्यम व बुज़ुर्ग व्यक्ति इससे किसी न किसी रूप में प्रभावित मिलता है। ऐसे समय में संजय गांधी पीजीआई में शुरू हुई प्लाज़्मा आधारित उन्नत तकनीक घुटने के दर्द से जूझ रहे मरीजों के लिए बड़ी उम्मीद बनकर सामने आई है।


संस्थान ने प्लेटलेट-रिच प्लाज़्मा (पीआरपी) थेरेपी से घुटने के दर्द से राहत देने की तकनीक स्थापित की है और अब तक 50 से अधिक मरीजों पर इसका परीक्षण कर चुका है। विशेषज्ञों के अनुसार इस थेरेपी के बाद मरीजों को 80 से 90 प्रतिशत तक दर्द में आराम, चलने-फिरने में सुगमता और वेट-बियरिंग एक्सरसाइज करने की क्षमता बढ़ जाती है, जिससे मांसपेशियों में मजबूती आती है।


सबसे महत्वपूर्ण बात—यह थेरेपी  5 हजार रुपये में उपलब्ध है और इसका असर एक से डेढ़ साल तक बना रहता है। इससे घुटना प्रत्यारोपण की आवश्यकता भी कई मामलों में टल सकती है। जिसमें दो से ढाई लाख खर्च आता है।


यह जानकारी विभाग के प्रमुख प्रो. संजय धीरज, प्रो. सुजीत गौतम, प्रो. संदीप खूबा और प्रो. चेतना शमशेरी ने दी। विभाग दो दिवसीय इंडियन एसोसिएशन ऑफ पेन क्लीनिक का आयोजन कर रहा है, जिसमें लो बैक पेन , गर्दन दर्द तथा कैंसर मरीजों में दर्द से राहत देने वाली आधुनिक तकनीकों पर चर्चा होगी।


उन्नत तकनीकें भी स्थापित


विशेषज्ञों ने बताया कि विभाग कई ऐसी उन्नत तकनीकें भी स्थापित कर चुका है जो दर्द में लंबी राहत देती हैं। इनमें रेडियो फ्रीक्वेंसी एब्लेशन , नर्व ब्लॉक  और न्यूरो मॉड्यूलेशन शामिल हैं। सम्मेलन में इन तकनीकों के विस्तार और नए छात्रों को प्रशिक्षण देने पर विशेष सत्र होंगे।


ओस्टियोआर्थराइटिस क्या है


ओस्टियोआर्थराइटिस जोड़ों का एक अपक्षयी रोग है जिसमें कार्टिलेज घिसने लगता है। इससे घुटनों, कमर और गर्दन में दर्द, सूजन और अकड़न होती है। सही व्यायाम, वजन नियंत्रण और पीआरपी थेरेपी से इसके लक्षणों में राहत मिल सकती है।


सोमवार से शुक्रवार तक मिलती है सलाह


विशेषज्ञों ने बताया कि न्यू ओपीडी भवन में सोमवार से शुक्रवार तक रोज पेन क्लीनिक ओपीडी होती है जहां पर मरीजों को सलाह दी जाती है। जरूरत पड़ने पर  भर्ती करने के लिए वार्ड और डे-केयर वार्ड की सुविधा उपलब्ध है।

बुधवार, 12 नवंबर 2025

दो महीने तक मौत से जंग, अब मिली नई ज़िंदगी

 



दो महीने तक मौत से जंग, अब मिली नई ज़िंदगी





महज़ 25 साल की ननका, गोंडा ज़िले की रहने वाली युवती, लगभग दो महीने तक लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) के आईसीयू (सीसीयू-2) में ज़िंदगी और मौत के बीच झूलती रही। जिस बीमारी ने उसे लगभग खत्म कर दिया था, वही अब उसकी जिद और डॉक्टरों के समर्पण के आगे हार मान गई। बुधवार को आखिरकार डॉक्टरों ने उसे आईसीयू से डिस्चार्ज कर दिया।


चार महीने की गर्भावस्था टूटने के बाद शुरू हुआ दर्द


पिछले साल दिसंबर 2024 में गर्भ के चार महीने पूरे होने पर गर्भपात (एबॉर्शन) के बाद से ननका को बार-बार पेट में पानी भरने की समस्या होने लगी। हर महीने डॉक्टर उसके पेट से पानी निकालते थे, लेकिन कुछ दिनों में फिर भर जाता था। जब हालत लगातार बिगड़ती गई तो सितंबर 2025 में उसे केजीएमयू रेफर किया गया।


रेडियोलॉजी विभाग में जांच में पाया गया कि उसके लिवर की नसों (हेपेटिक वेन) में थक्का (क्लॉट) जम गया है — इसे बड-चियारी सिंड्रोम कहा जाता है।


नसों में स्टेंट डालकर बचाई गई जान


मरीज़ की हालत इतनी गंभीर थी कि नसों की सर्जरी संभव नहीं थी। इंटरवेंशन रेडियोलॉजी विभाग के डॉ नितिन ने जोखिम उठाते हुए नसों में स्टेंट डालने की प्रक्रिया (स्टेंटिंग) की। लेकिन इसके बाद भी लिवर ने काम करना बंद कर दिया।


करीब 45 दिन तक ननका वेंटिलेटर पर रही। इस दौरान हर दिन उसके दोनों फेफड़ों से करीब एक लीटर और पेट से 1.5 से 2 लीटर पानी निकाला जाता था। यह सिलसिला डेढ़ महीने तक चला।


धीरे-धीरे स्थिति सुधरने लगी, लिवर ने काम शुरू किया और शरीर से पानी भरना बंद हुआ। करीब 20 दिन वह कोमा में रही, लेकिन अब पूरी तरह से होश में है और बोलने-चलने लगी है।


डॉक्टरों ने कहा – यह चमत्कार से कम नहीं


आईसीयू की टीम के अनुसार, ननका का जीवित बच पाना “मेडिकल मिरेकल” से कम नहीं है। एनेस्थीसिया विभाग की प्रमुख प्रो. मोनिका कोहली ने बताया कि “इतनी लंबी अवधि तक वेंटिलेटर पर रहने के बाद किसी मरीज का स्वस्थ होकर डिस्चार्ज होना बहुत दुर्लभ है। यह टीमवर्क और मरीज की हिम्मत दोनों का नतीजा है।”






 क्या है बड-चियारी सिंड्रोम


बड-चियारी सिंड्रोम लिवर से जुड़ी एक दुर्लभ लेकिन गंभीर बीमारी है। इसमें लिवर की नसों (हेपेटिक वेन) में खून का थक्का जम जाता है, जिससे खून का बहाव रुक जाता है।

नतीजा— लिवर सूज जाता है, पेट और फेफड़ों में पानी भरने लगता है, और धीरे-धीरे लिवर फेल होने की स्थिति आ जाती है।

मुख्य कारण –


गर्भावस्था या हाल का गर्भपात


रक्त में थक्का बनने की प्रवृत्ति (क्लॉटिंग डिसऑर्डर)


लिवर की अन्य बीमारियाँ

इसका इलाज आमतौर पर इंटरवेंशन रेडियोलॉजी से स्टेंटिंग या लिवर ट्रांसप्लांट के ज़रिए किया जाता है।




 इलाज करने वाली टीम


प्रमुख चिकित्सक:


प्रो. मोनिका कोहली – हेड, एनेस्थीसिया विभाग


डॉ. विपिन सिंह – आईसीयू इंचार्ज


डॉ. विनोद, डॉ. मयंक – एनेस्थीसिया विभाग


डॉ. नितिन – इंटरवेंशन रेडियोलॉजी विभाग (स्टेंटिंग विशेषज्ञ)



नर्सिंग टीम:


निशा (आईसीयू इंचार्ज)


ममता और पूरी नर्सिंग टीम का विशेष योगदान


सोमवार, 10 नवंबर 2025

प्रो. संदीप साहू को नेशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज की फेलोशिप

 


प्रो. संदीप साहू को नेशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज की फेलोशिप


लखनऊ। एसजीपीजीआई  के एनेस्थीसियोलॉजी विभाग के प्रोफेसर संदीप साहू को “नेशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज, इंडिया” की प्रतिष्ठित फेलोशिप से सम्मानित किया गया है। यह फेलोशिप उन्हें 8 नवम्बर 2025 को पीजीआईएमईआर, चंडीगढ़ में आयोजित दीक्षांत समारोह में प्रदान की गई।


यह सम्मान हरियाणा के राज्यपाल प्रो. आशीम घोष तथा नीति आयोग, भारत सरकार के सदस्य प्रो. वी.के. पॉल द्वारा प्रदान किया गया।


प्रो. साहू को यह फेलोशिप चिकित्सा शिक्षा, अनुसंधान और एनेस्थीसिया के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए दी गई है। उन्होंने कहा कि यह सम्मान न केवल उनके लिए बल्कि पूरे एसजीपीजीआई परिवार के लिए गर्व की बात है।


रविवार, 2 नवंबर 2025

पीजीआई कर्मियों की सेवानिवृत्ति आयु 60 से बढ़ाकर 65 वर्ष करने की

 

पीजीआई कर्मियों की सेवानिवृत्ति आयु 60 से बढ़ाकर 65 वर्ष करने की मांग


एसजीपीजीआई ऑल एम्प्लाइज वेलफेयर एसोसिएशन ने निदेशक को सौंपा ज्ञापन


लखनऊ। संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआई) के कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति आयु 60 वर्ष से बढ़ाकर 65 वर्ष करने की मांग को लेकर एसजीपीजीआई ऑल एम्प्लाइज वेलफेयर एसोसिएशन ने निदेशक को एक ज्ञापन सौंपा है। इस ज्ञापन पर एसोसिएशन के अध्यक्ष धर्मेश कुमार और महामंत्री सीमा शुक्ला के हस्ताक्षर हैं। ज्ञापन में कहा गया है कि देश के कई प्रमुख शैक्षणिक एवं चिकित्सा संस्थानों जैसे आईआईटी, आईआईएम, एम्स और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों व अधिकारियों की सेवानिवृत्ति आयु पहले ही 65 से 68 वर्ष तक की जा चुकी है। ऐसे में एसजीपीजीआई जैसे सुपर स्पेशियलिटी संस्थान में भी समान नीति अपनाई जानी चाहिए ताकि संस्थान को अनुभवी मानव संसाधन का लाभ लंबे समय तक मिल सके।


एसोसिएशन ने तर्क दिया है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में विशेषज्ञ कर्मियों की संख्या सीमित है और बीते तीन वर्षों में बड़ी संख्या में वरिष्ठ कर्मचारियों के सेवानिवृत्त हो जाने से संस्थान के कई विभागों पर कार्यभार बढ़ा है। ऐसे में सेवा अवधि बढ़ाने से न केवल संस्थान को विशेषज्ञता की निरंतरता मिलेगी बल्कि नए कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने में भी सुविधा होगी। पत्र में यह भी कहा गया है कि 60 वर्ष की आयु में अधिकांश कर्मचारी पूर्णतः स्वस्थ और सक्रिय रहते हैं तथा अपने अनुभव और दक्षता से संस्थान को लाभ पहुंचा सकते हैं। आज जीवन प्रत्याशा बढ़ी है, कार्य का स्वरूप बदला है और 65 वर्ष की आयु तक कर्मचारी समान ऊर्जा के साथ कार्य करने में सक्षम हैं।


एसोसिएशन का कहना है कि अनुभवी कर्मचारियों की सेवाएं संस्थान की गुणवत्ता और स्थिरता बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती हैं। वरिष्ठ कर्मियों की उपस्थिति से कार्यप्रणाली में निरंतरता बनी रहती है और संस्थान को नए स्टाफ को तैयार करने का समय मिलता है। साथ ही अन्य राज्यों और केंद्रीय संस्थानों में पहले से ही 65 वर्ष की सेवानिवृत्ति नीति लागू है, इसलिए समानता के दृष्टिकोण से एसजीपीजीआई में भी यह नीति लागू की जानी चाहिए।


ज्ञापन में निदेशक से आग्रह किया गया है कि इस प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार कर शासन को सिफारिश भेजी जाए, जिससे टीचिंग और नॉन-टीचिंग दोनों वर्गों के कर्मचारियों को समान रूप से लाभ मिल सके और संस्थान को उनके अनुभव का उपयोग लंबे समय तक प्राप्त हो सके।

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

सजा माता-पिता को ही नहीं उनके बच्चों को भी मिलती है

 

माता-पिता सलाखों के पीछे, कैद में बच्चों के सपने


– प्रोफेसर विनीता काचर के अध्ययन ने खोली जेलों के भीतर दबे रिश्तों की पीड़ा


जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों के पार सिर्फ एक कैदी नहीं, उसके साथ उसके परिवार की हँसी, उम्मीदें और सपने भी बंद हो जाते हैं। अदालत सजा माता-पिता को देती है, लेकिन सबसे बड़ी सजा तो उनके बच्चे झेलते हैं — जो हर दिन बिना किसी अपराध के दंडित होते हैं।


लखनऊ विश्वविद्यालय के विधि विभाग की प्रोफेसर विनीता काचर के निर्देशन में हुए एक भावनात्मक अध्ययन ने इस अनकही सच्चाई को सामने रखा है। इस रिपोर्ट को शासन को भेजा जा रहा है ताकि इन मासूम बच्चों की आवाज़ सिस्टम तक पहुँच सके।



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🔹 लखनऊ की जेलों में 115 कैदियों पर अध्ययन


“लखनऊ जिले के विशेष संदर्भ में बाल प्रतिकूलता एवं बाल स्वास्थ्य पर कारावास के प्रभाव पर एक सामाजिक-वैधानिक अध्ययन” शीर्षक से यह शोध सेंटर ऑफ एक्सीलेंस के तहत किया गया।

राजधानी की केंद्रीय कारागार मोहनलालगंज और जिला जेल लखनऊ में बंद 115 कैदियों (महिला और पुरुष दोनों) को इसमें शामिल किया गया।


इनमें से 67 प्रतिशत विचाराधीन कैदी थे — यानी जिन पर अभी फैसला बाकी है, पर उनके बच्चे पहले ही समाज की बेरुखी और तानों की सजा भुगत रहे हैं।

33 प्रतिशत सजायाफ्ता कैदियों के घरों में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं।



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🔹 मुलाकातें जो दिल में दर्द छोड़ जाती हैं


अध्ययन में पाया गया कि 98 प्रतिशत कैदियों को बच्चों से मिलने की अनुमति तो है, पर ये मुलाकातें अक्सर शीशे की दीवारों के पीछे होती हैं।

मां की आँखों में आँसू और बच्चे के चेहरे पर सवाल — “मां, तुम कब घर आओगी?”

समय सीमित होता है, शब्द औपचारिक, और प्यार भी रोक दिया जाता है… बस इतनी देर में मुलाकात खत्म हो जाती है।


और सबसे पीड़ादायक बात — सिर्फ 18 प्रतिशत कैदी ही जानते हैं कि उनके बच्चों के लिए कोई सरकारी सहायता या योजना भी है।



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🔹 भावनात्मक आघात से टूट रहे हैं मासूम दिल


रिपोर्ट बताती है कि 78 प्रतिशत कैदियों के बच्चे भावनात्मक आघात (Emotional Trauma) से गुजर रहे हैं।

कई बच्चों ने कहा — “लोग हमें अपराधी का बेटा या बेटी कहते हैं।”

इनमें से 64 प्रतिशत बच्चों की पढ़ाई बाधित हो गई है।

कई बच्चे आर्थिक तंगी और सामाजिक तिरस्कार के कारण स्कूल छोड़ने पर मजबूर हैं।

एक पिता के जेल में जाने से सिर्फ रोटी नहीं, बल्कि बचपन की मुस्कान भी छिन जाती है।



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🔹 कुपोषण और बीमारी की दोहरी मार


अध्ययन में सामने आया कि 59 प्रतिशत बच्चे बीमारियों और कुपोषण से जूझ रहे हैं।

वहीं, 52 प्रतिशत बच्चे समाज के तिरस्कार से अकेलेपन की गहरी खाई में धकेले जा रहे हैं।

“अपराधी का बच्चा” कहे जाने का कलंक, इन मासूम चेहरों पर गहरे घाव छोड़ रहा है।



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🔹 सरकार से नई नीति की अपील


प्रो. विनीता काचर का कहना है —


> “ये बच्चे अपराधी नहीं हैं, ये तो न्याय व्यवस्था के अनदेखे शिकार हैं। इन्हें दया नहीं, अवसर चाहिए — पढ़ाई का, जीने का, और समाज में अपना स्थान पाने का।”




उन्होंने सुझाव दिया है कि सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए जो कैदियों के बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य, शिक्षा और पुनर्वास पर केंद्रित हो।

अध्ययन का अगला चरण उन बच्चों और परिवारों के प्रत्यक्ष साक्षात्कार पर केंद्रित होगा, जो फिलहाल रिश्तेदारों या बाल देखभाल गृहों में रह रहे हैं।



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🕊️ हर सलाख के उस पार कोई सपना अब भी धड़कता है…


यह अध्ययन हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि जब कोई अपराध करता है, तो सजा सिर्फ उसे नहीं — उसके पूरे परिवार को मिलती है।

जेल की दीवारों के बाहर रह रहे ये बच्चे हर दिन न्याय की उम्मीद में आसमान की ओर देखते हैं — कि शायद एक दिन उनका बचपन आज़ाद साँस ले सके।