शनिवार, 30 अगस्त 2025

करियर की दौड़ में छूट गए माँ-बाप, सहारा बना ओल्ड एज होम




करियर की दौड़ में छूट गए माँ-बाप, सहारा बना ओल्ड एज होम


लखनऊ।

जिन माता-पिता ने अपने बच्चों की परवरिश में दिन-रात एक कर दिए, उनकी खुशियों के लिए अपनी हर इच्छा कुर्बान कर दी, वही आज बुढ़ापे में अकेलेपन की सजा काटने को मजबूर हैं। ओल्ड एज होम में बढ़ती भीड़ सिर्फ बुजुर्गों का दर्द ही नहीं, बल्कि समाज में घटती संवेदनाओं और कमजोर पड़ते रिश्तों की तस्वीर भी पेश कर रही है।



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अकेलापन सबसे बड़ा दर्द


ओल्ड एज होम में रहने वाले बुजुर्गों का कहना है—

"हमें रोटी-कपड़े की चिंता नहीं, सबसे ज्यादा दर्द है अकेलेपन का।"

परिवार कभी-कभार मिलने आता है, थोड़ी देर बातें करता है और चला जाता है। उसके बाद रह जाता है सिर्फ सन्नाटा और इंतजार।



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बुजुर्गों की दर्द भरी कहानियां


कहानी 1 : नौकरी की दौड़ और माँ का अकेलापन

76 साल की शांति देवी बताती हैं—

"बेटे ने कहा कि उसके छोटे से घर में बच्चों की पढ़ाई के लिए जगह चाहिए, मेरे लिए नहीं। आज मैं ओल्ड एज होम में हूँ। खाना और दवा सब मिलती है, लेकिन बेटा-बेटी की हंसी और पोते-पोतियों की खिलखिलाहट कहाँ?"


कहानी 2 : पिता की कुर्बानी भूले बच्चे

80 वर्षीय राम प्रसाद की आंखें नम हो जाती हैं—

"जिंदगी भर खून-पसीना बहाकर बच्चों को इंजीनियर बनाया। आज वही बच्चे कहते हैं कि हम उनके लिए बोझ हैं। कभी लगता है, अगर यही देखना था तो हमें बच्चे पैदा ही नहीं करने चाहिए थे।"


कहानी 3 : 46 साल की नौकरी का इनाम—ओल्ड एज होम

लखनऊ के रमेश चंद्र 46 साल तक सरकारी सेवा में रहे।

"रिटायर होने के बाद सोचा था कि बच्चों और पोते-पोतियों के साथ वक्त बिताऊंगा। लेकिन बच्चों ने साफ कह दिया—‘पापा, आप अब ओल्ड एज होम में ही रहिए।’ उस दिन जिंदगी का सबसे बड़ा धोखा महसूस हुआ।"



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करियर के आगे धुंधले होते रिश्ते


आज की पीढ़ी करियर बनाने में इतनी व्यस्त है कि उसे पैरेंट्स का साथ जिम्मेदारी से ज्यादा बोझ लगने लगा है। कई केस में बच्चों ने साफ कहा—

"घर छोटा है, पढ़ाई का दबाव है, माँ-बाप के लिए जगह नहीं।"

इसी मजबूरी में बुजुर्गों को ओल्ड एज होम में आना पड़ता है।



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एक जिम्मेदारी, जो हर बच्चे की है


हेप्टे पैरेंट्स होम के डायरेक्टर डॉ. संजीव कपूर कहते हैं—

"करियर जरूरी है, लेकिन माता-पिता की सेवा और उनका सहारा बनना सबसे बड़ा धर्म है। वे पैसा नहीं, सिर्फ अपनापन और साथ चाहते हैं।"



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समाज के लिए संदेश


सोशियोलॉजी की प्रोफेसर मनीषा श्रीवास्तव कहती हैं—

"समाज बदल रहा है। नौकरियां और करियर जरूरी हैं, लेकिन रिश्तों को नजरअंदाज करना सबसे बड़ी गलती है। माता-पिता कभी बोझ नहीं होते।"



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👉 यह रिपोर्ट हमें आईना दिखाती है। सवाल यह है कि क्या हम अपने सपनों के पीछे भागते-भागते उस छांव को खो रहे हैं, जिसने हमें जीवन दिया?



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