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क्या जॉन अब्राहम ने कभी सड़कों पर कुत्तों की गंदगी साफ की है? जब अभिजात्य कार्यकर्ता बोलते हैं, तो आम जनता लहूलुहान होती है
अनुपम श्रीवास्तव
हमारे शहरों में एक भयावह पाखंड पनप रहा है—और उसकी दुर्गंध चारों ओर फैली है। वही सेलिब्रिटी जो सड़कों से आवारा कुत्तों को हटाए जाने का विरोध कर रहे हैं, असल गंदगी और खतरे से कोसों दूर हैं, जिसे उनकी तथाकथित “मानवता” बचाए रखती है।
हाल ही में जब सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली–एनसीआर के सार्वजनिक स्थलों से आवारा कुत्तों को हटाने की अनुमति दी, तो एक तयशुदा अंदाज़ में विरोध की आवाज़ें गूंजीं—जॉन अब्राहम सबसे आगे रहे। उन्होंने मुख्य न्यायाधीश को एक खुला पत्र लिखते हुए इस फैसले को “अमानवीय” कहा। उनका तर्क था कि ये “कम्युनिटी डॉग्स” हैं, और दिल्ली की सड़कों पर स्वतंत्र रूप से घूमने का अधिकार रखते हैं।
वे अकेले नहीं थे। पूरे सितारों का एक जमावड़ा उनके साथ खड़ा था—
जाह्नवी कपूर, वरुण धवन, रवीना टंडन, चिन्मयी श्रीपदा, वरुण ग्रोवर, वीर दास, सान्या मल्होत्रा और कई अन्य ने इस फैसले को “कुत्तों के लिए मौत का फरमान” बताते हुए सोशल मीडिया पोस्ट और बयान दिए।
शर्मिला टैगोर, रणदीप हुड्डा, रुपाली गांगुली और अदा शर्मा ने भी स्वर मिलाया। किसी ने इसे “बेआवाज़ों के लिए दरवाज़ा बंद करना” कहा, तो किसी ने यह कहकर भावुकता जताई कि “ये भी इसी देश के हैं,” और अदालत से दया दिखाने की अपील की।
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सच्चाई यह है: हर एक काटने का मामला मायने रखता है
जब ये अभिजात्य वर्ग ट्वीट करता है, आम लोगों की ज़िंदगी बिखर रही है।
उत्तर प्रदेश: एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल
सिर्फ पाँच महीनों (जनवरी–मई 2025) में गौतमबुद्ध नगर ज़िले में 74,550 पशु काटने के मामले दर्ज हुए, जिनमें से 52,714 सिर्फ आवारा कुत्तों के काटने से थे—यानि रोज़ाना लगभग 500 नए मामले।
पूरे यूपी में अनुमानित आंकड़े बताते हैं कि हर साल लगभग 27 लाख लोग कुत्तों के काटने का शिकार होते हैं—यानि हर ज़िले में रोज़ाना 100 से अधिक लोग।
पशु जन्म नियंत्रण (ABC) कार्यक्रम के तहत यूपी में 2023–24 और 2024–25 में 2.8 लाख आवारा कुत्तों की नसबंदी और टीकाकरण हुआ। इसके लिए राज्य में 17 स्थायी ABC केंद्र खोले गए (लखनऊ और गाज़ियाबाद में दो और मंज़ूर), और इस अभियान पर 34 करोड़ रुपये का बजट खर्च हुआ।
लखनऊ: मानव पीड़ा का सबसे बड़ा केंद्र
लखनऊ के बड़े अस्पतालों में रोज़ाना 120 नए कुत्ता काटने के मामले आते हैं, और फॉलो-अप मिलाकर यह संख्या 350 तक पहुंच जाती है। मतलब—हर 15 मिनट में एक नया केस।
ये सिर्फ आंकड़े नहीं हैं, बल्कि बजती हुई चेतावनी की घंटियां हैं। लोग काटे जा रहे हैं, अस्पताल पहुंच रहे हैं, आघात से जूझ रहे हैं—और इनकी आवाज़ सेलिब्रिटी बहसों में कहीं नहीं सुनाई देती।
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कैसे कर सकते हैं ये लोग वकालत—एसी कमरों से?
साफ़ बात है: कोई भी सेलिब्रिटी जो आवारा कुत्तों के अधिकारों के लिए सोशल मीडिया पर मोर्चा खोलता है, उसके हाथ में झाड़ू या फावड़ा नहीं होता।
उन्होंने कभी लखनऊ की गलियों में रात गुज़ारी?
उन्होंने कभी उन आक्रामक झुंडों का सामना किया जिन्हें बच्चे, सफाईकर्मी और डिलीवरी बॉय रोज़ झेलते हैं?
उनकी एक्टिविज़्म पोस्ट-फ़्री और रिस्क-फ़्री है।
लेकिन इसकी कीमत कौन चुका रहा है?
एक ड्राइवर जिसे काट लिया गया और जो कई दिनों की मज़दूरी खो बैठा।
एक बच्चा जिसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा, जबकि उसके माता-पिता टीके के लिए दौड़ते रहे।
एक पूरा मोहल्ला जो अपना रास्ता बदल देता है ताकि जान बची रहे।
ये दर्द कभी इंस्टाग्राम की चमकदार तस्वीरों या अख़बारों के चमकदार लेखों के साथ नहीं दिखता।
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एक न्यायसंगत प्रस्ताव: सेवा करो या चुप रहो
माननीय सर्वोच्च न्यायालय, एक सुझाव—
जॉन अब्राहम, जाह्नवी कपूर, वरुण धवन, रवीना टंडन और बाकी सेलिब्रिटी कार्यकर्ताओं को एक महीने के लिए कुत्ता-प्रभावित क्षेत्रों में सेवा करने भेजिए।
बिना पर्सनल स्टाफ।
बिना लग्ज़री गाड़ियाँ।
बिना सुरक्षा घेरे।
उन्हें खुद कुत्तों की गंदगी साफ़ करनी चाहिए, नसबंदी अभियानों में भाग लेना चाहिए, या रेबीज़ पीड़ितों को टीका लगाने वाले स्वास्थ्यकर्मियों के साथ काम करना चाहिए।
उन्हें उन गलियों में चलने दीजिए जिन्हें लोग “कुत्तों वाली गली” कहते हैं।
फिर उनसे पूछिए—क्या उनका एक्टिविज़्म सच्चा है, या सिर्फ दिखावा?
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अभिजात्यों की दया: इंसानों की कीमत पर
हर रेस्क्यू डॉग के साथ सेल्फ़ी के पीछे एक सफाईकर्मी है जिसे कुत्तों ने दौड़ाया।
हर भावुक पोस्ट के पीछे एक डिलीवरी बॉय है जिसकी ₹12,000 की आमदनी इलाज में चली गई।
हर अदालत को भेजे गए पत्र के पीछे अस्पतालों में रेबीज़ वैक्सीन की कमी है।
जो आवारा कुत्तों की वकालत करते हैं, वे उस बच्चे को बचाने के लिए वैक्सीन उपलब्ध नहीं कराते, जिसे स्कूल जाते समय काट लिया गया।
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सच्ची दया: इंसानों और जानवरों दोनों के लिए
अगर आप उन गलियों में नहीं चल सकते,
अगर आप उस डर को महसूस नहीं कर सकते,
अगर आप उन दांतों की पीड़ा नहीं झेल सकते—
तो चुप रहिए।
क्योंकि करुणा चुनिंदा नहीं हो सकती।
उसे जानवर और इंसान दोनों की रक्षा करनी होगी।
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अंतिम सवाल
आज आप इन चमकदार चेहरों का समर्थन कर सकते हैं।
लेकिन जब कोई कुत्ता आपके परिवार के सदस्य को नोच लेगा, तब इस मुद्दे की गंभीरता समझ आएगी।
कुत्तों की देखभाल होनी चाहिए—हाँ।
लेकिन सही बाड़ों और आश्रयों में, न कि सड़कों पर खुले घूमते हुए।
वरना हालात ऐसे हो जाएंगे कि कुत्ते पिंजरे में नहीं, इंसान अपने घरों में कैद होकर रह जाएंगे।
मुझे मालूम है कि इस सच्चाई को कहने पर मुझे गुस्से और आलोचना का सामना करना पड़ेगा—खासकर पशु प्रेमियों से।
लेकिन सच यह है: हमारे देश में इंसानी ज़िंदगियाँ एक खतरनाक सोच के नाम पर कुर्बान हो रही हैं।
बताइए—दुनिया में और कहाँ लोगों को खून बहाने, पीड़ा झेलने और मरने के लिए छोड़ दिया जाता है—सिर्फ इसलिए कि ताक़तवर लॉबी और ऊंची आवाज़ें कहती हैं कि आवारा कुत्तों को आज़ाद घूमना चाहिए?
और कहाँ बच्चे स्कूल जाने से डरते हैं, बुज़ुर्ग बाहर निकलने से घबराते हैं—क्योंकि सड़कों पर सुरक्षा या करुणा नहीं, बल्कि डर का शासन चलता है?
हम क्रूरता नहीं चाहते।
हम संतुलन चाहते हैं।
हम हर इंसान—हर बच्चे, हर माँ, हर नागरिक—को अपने ही मोहल्ले में सुरक्षित महसूस करने का अधिकार दिलाना चाहते हैं।
जानवरों की देखभाल ज़रूरी है,
पर इंसानों की जान की कीमत पर नहीं।
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