लड़कियाँ फँसती नहीं, फँसाई जाती हैं
शिकार को दोष देने की बजाय शिकारी का विरोध कीजिए...
दरअसल, हममें से अधिकांश लोग सच को स्वीकार करने से कतराते हैं। बोरे में, सूटकेस में या फ्रिज में मिली लड़कियों की लाशों पर हम जल्दी ही फैसला सुना देते हैं—“लड़की उदंड थी, परिवार की नहीं सुनी, अपनी करनी का फल भुगत रही??लेकिन 99% मामलों में यह आकलन पूरी तरह गलत होता है। सच यह है कि लड़की फँसती नहीं, फँसाई जाती है। उसके चारों ओर इतना मजबूत जाल बुन दिया जाता है कि बच निकलना लगभग असंभव हो जाता है।
शिकारी के पास सहयोगियों की फौज, शिकार के पास अज्ञानता का अंधेरा....
लड़के को हजारों सहयोगी मिलते हैं—दोस्त, रिश्तेदार, सोशल मीडिया के 'फ्रेंड्स', यहाँ तक कि कुछ पुलिसकर्मी और स्थानीय गुंडे भी।
लड़की को कोई बताता तक नहीं कि इन 'लुटेरों' से दूर रहना है।
गाँव-देहात की मैट्रिक-इंटर पढ़ने वाली 80% से ज्यादा लड़कियाँ न तो अखबार पढ़ती हैं, न टीवी न्यूज़ देखती हैं, न सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं (NFHS-5 डेटा के अनुसार, ग्रामीण किशोरियों में इंटरनेट उपयोग मात्र 25% है)। जो थोड़ी-बहुत ऑनलाइन हैं, वे गीत, शायरी, रील्स में डूबी रहती हैं। परिवार वाले कभी ढंग से समझाते नहीं। पड़ोस की किसी इंटर स्टूडेंट से पूछिए—“क्या तुम्हें सूटकेस वाली घटनाएँ पता हैं?” उत्तर 9 में से 10 बार 'नहीं' ही होगा।
लड़की का दोष क्या?
वह टीवी देखती है—जहाँ प्यार की चाशनी लिपटी दिखाई जाती है। इंस्टा-फेसबुक पर लव शायरी बिखरी पड़ी है। घरवाले मिलते हैं तो सिर्फ रिजल्ट की बात करते हैं। धर्म, नैतिकता, खतरे की पहचान—ये विषय कभी चर्चा का हिस्सा नहीं बनते। स्कूल-कॉलेज की किताबों से लेकर खेलकूद तक, हर जगह सेक्युलरिज्म की महिमा गाई जा रही है, लेकिन “सुरक्षा” का पाठ कहीं नहीं पढ़ाया जाता।
ऐसी लड़की को कोई आफताब मिलता है, जिसकी फेसबुक प्रोफाइल पर धर्म की जगह “मानवता” लिखा होता है, जो प्रेम की मूर्ति बनकर “तेरी दुनिया बदल दूँगा” का वादा करता है। उसके लिए यह सब सामान्य ही लगता है। बचना आसान है क्या?
फँसने के बाद बाहर निकलने का रास्ता शून्य
एक बार जाल में फँस जाए तो:
एक तरफ इमोशनल ब्लैकमेलिंग (“मैं मर जाऊँगा”, “सब छोड़ दूँगा”)
दूसरी तरफ फोटो-वीडियो वायरल करने का डर...
तीसरी तरफ परिवार-सम्मान का बोझ...
NCRB 2022 डेटा: 15-18 साल की 28,000+ लड़कियाँ “लव अफेयर” के नाम पर गायब हुईं, जिनमें से 60% के शव कभी नहीं मिले। जो मिले, वे बोरे, सूटकेस या जंगल में।
समाज को क्या करना चाहिए? — व्यावहारिक कदम
1. परिवार स्तर पर
हर रविवार 15 मिनट की “सुरक्षा वार्ता” अनिवार्य करें।
“अजनबी दोस्ती के 10 लाल झंडे” (Red Flags) की सूची दीवार पर चिपकाएँ।
लड़कियों को डिजिटल साक्षरता सिखाएँ—प्राइवेसी सेटिंग्स, फेक प्रोफाइल पहचान।
2. स्कूल-कॉलेज स्तर पर
कक्षा 8 से “पर्सनल सेफ्टी एंड साइबर अवेयरनेस” को अनिवार्य विषय बनाएँ (जैसे CBSE ने 2023 में पायलट शुरू किया)।
हर स्कूल में ‘मेंटर टीचर’ तैनात करें, जिससे लड़कियाँ बिना डर के बात कर सकें।
3. समुदाय स्तर पर
मोहल्ला समितियों में ‘लड़कियों की सुरक्षा चौपाल’ हर महीने।
स्थानीय थाने में ‘गर्ल्स हेल्प डेस्क’ —महिला कांस्टेबल के साथ।
व्हाट्सएप ग्रुप्स में सुरक्षा जागरूकता रील्स शेयर करें (जैसे दिल्ली पुलिस की “Himmat Plus” मॉडल)।
4. मीडिया और सोशल मीडिया पर
हर “लव जिहाद” या “सूटकेस कांड” की खबर के साथ ‘कैसे बचें’ इन्फोग्राफिक अनिवार्य।
इंस्टाग्राम/यूट्यूब इन्फ्लुएंसर्स को सुरक्षा कैंपेन के लिए प्रोत्साहित करें।
5. कानूनी स्तर पर
‘डिजिटल ब्लैकमेलिंग’ को अलग IPC सेक्शन बनाएँ (जैसे महाराष्ट्र ने 2022 में किया)।
फास्ट-ट्रैक कोर्ट हर जिले में—90 दिन में फैसला।
सूटकेस में लाश देखकर हँसना या लड़की को कोसना शिकारी का मनोबल बढ़ाता है।
शिकार को दोष देना बंद कीजिए, शिकारी का विरोध कीजिए।
अपने घर, पड़ोस, स्कूल में आज से ही बात शुरू कीजिए।
एक जागरूक लड़की एक सुरक्षित पीढ़ी।
यह बीमारी तभी खत्म होगी जब हम पीड़ित को गले लगाएँगे और शिकारी को फांसी देंगे।
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