सपा : कम से कम डिप्टी सीएम बनने का सपना तो दिखाइए
नेताओं को सम्मान और शक्ति दीजिए।
“यादवों की ‘सामाजिक न्याय ठेकेदारी’ का मिथक: उत्तर भारत की राजनीति को नई दिशा देने का समय”
“सामाजिक न्याय की राजनीति में यादवों की भूमिका पर पुनर्विचार: सपा–राजद के लिए तीन कड़वी लेकिन जरूरी सलाह”
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बिहार में राजद की चुनावी हार के बाद यादव समुदाय में भारी निराशा देखी गई। कई यादव बंधुओं ने कहा कि “हम ओबीसी के लिए लड़ते हैं, सामाजिक न्याय के लिए खड़े होते हैं, और हर बार निशाने पर आ जाते हैं। शायद हमें सामाजिक न्याय की लड़ाई छोड़ देनी चाहिए।”
पर सच्चाई यह है कि बिहार और यूपी के यादवों को सामाजिक न्याय की ठेकेदारी तुरंत छोड़ देने की जरूरत है। आखिर एक ही जाति क्यों सामाजिक न्याय का ठेका ले? और वह भी तब, जब जिन्हें आप अपना नेतृत्व देकर आगे बढ़ाना चाहते हैं, वही वर्ग आपको पूरी तरह स्वीकार ही नहीं करता?
मुलायम सिंह यादव समाजवादी नेता थे। पर उन्होंने कभी सामाजिक न्याय यानी आरक्षण की लड़ाई नहीं लड़ी। जिनके नाम पर सोशल जस्टिस का नैरेटिव खड़ा किया गया, वे खुद जाति-आधारित राजनीति के धुर विरोधी थे।
आज हालत यह है कि सपा में कुछ “जय भीम” विचारधारा के लोग घुस आए हैं, जो प्रभावी हुए तो सपा का पतन 2027 के चुनाव में तय है—ठीक वैसे ही जैसे वामपंथी विचारधारा ने कांग्रेस को एनजीओ में बदल दिया।
एक युवा भीमवादी ब्राह्मण ने लिखा—“जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी।”
लेकिन यह आधा ज्ञान है। ओबीसी आरक्षण का पहला आयोग काका कालेलकर आयोग था, जिसमें बैरिस्टर शिव दयाल सिंह चौरसिया ने 64 पन्ने का असहमति नोट देकर कहा था कि “ओबीसी की संख्या जितनी है, उतना प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए।”
यह विचार कांशीराम का नहीं था। इसे लेकर बहुत भ्रम फैलाया गया।
✦ ओबीसी आरक्षण का वास्तविक इतिहास
आज जो लोग सोशल जस्टिस की राजनीति का श्रेय यादवों को देते हैं, उन्हें वास्तविक इतिहास जान लेना चाहिए—
शुरू में केवल बीसी (Backward Class) आरक्षण की मांग चल रही थी।
अंग्रेजों ने जब बीसी में से दलित/अछूत को अलग कर SC-ST आरक्षण दिया, तब डॉ. अंबेडकर अपने वर्ग को लेकर अलग हो गए।
बचे वर्ग के लिए OBC शब्द बना।
महाराष्ट्र में पंजाबराव देशमुख के नेतृत्व में इसकी सबसे बड़ी लड़ाई चली।
उत्तर भारत के यादव नेताओं को जोड़ने के लिए चौधरी ब्रह्म प्रकाश और फिर बीपी मंडल को सामने लाया गया।
यूपी में शिव दयाल सिंह चौरसिया और रामस्वरूप वर्मा बड़ा आंदोलन चला चुके थे।
बिहार में कर्पूरी ठाकुर और जगदेव प्रसाद कुशवाहा ने अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी।
इसलिए साफ़ है कि मुलायम, लालू, नीतीश ने इस आंदोलन में सहयोग तो दिया, पर लड़ाई नहीं लड़ी।
इन बातों को जानने के लिए “जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण” पुस्तक पर्याप्त है।
✦ यादवों को सामाजिक न्याय की ठेकेदारी क्यों छोड़नी चाहिए?
बीपी, कर्पूरी, jagdev, चौरसिया और वर्मा जैसे नेताओं ने 90% संघर्ष किया। यादव समाज ने बहुत कम।
इसलिए आज सबसे पहला काम है—
“यादव समुदाय यह स्वीकार करे कि सामाजिक न्याय की लड़ाई में उनका योगदान सीमित रहा है।”
इसके बाद ही बिहार–यूपी की राजनीति साफ़ होगी और सपा–राजद का भविष्य सुधरेगा।
✦ यादवों की सबसे बड़ी समस्या: तीन चेहरे, तीन चेहरे ही
यूपी–बिहार में यादव सामाजिक न्यायवादी बन जाते हैं, लेकिन हरियाणा, एमपी, राजस्थान में वही लोग पूर्ण संघी बन जाते हैं।
इससे जनता कैसे मान ले कि आप सामाजिक न्याय के अवतार हैं?
यदि यादवों को राजनीतिक शक्ति बढ़ानी है, तो सबसे पहले राजद और सपा का एकीकरण कर एक राष्ट्रीय स्तर की यादव पार्टी बनानी चाहिए।
अन्यथा “सामाजिक न्याय का नेता” कहना हास्यास्पद ही लगेगा।
✦ सपा के लिए तीन सबसे महत्वपूर्ण सलाह
1. सामाजिक न्याय की ठेकेदारी बंद कीजिए।
यादवों का योगदान सीमित रहा है—इसे स्वीकार करिए। अन्य जातियों के योगदान को सम्मान दीजिए।
2. समाजवादी बने रहिए, भीमवादी नहीं।
मनुस्मृति लेकर समाज को ब्राह्मण–क्षत्रिय–वैश्य–शूद्र बांटना बंद कीजिए।
कुर्मी, अहीर, काछी, लोहार, बढ़ई, नाई, धोबी, कहार, कुम्हार—इन जातियों को कोई शूद्र नहीं मानता, न समाज मानता है, न ये खुद।
3. पार्टी में दूसरों को स्पेस दीजिए।
सपा में मुलायम परिवार के अलावा कोई सीएम नहीं बन सकता—यह धारणा तोड़िए।
कम से कम डिप्टी सीएम बनने का सपना तो दिखाइए।
नेताओं को सम्मान और शक्ति दीजिए।
✦ अंतिम नोट
एमेज़ॉन से “जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण” पुस्तक लेकर पढ़ सकते है।
वहीं वास्तविक मार्गदर्शन मिलेगा।
#भवतु_सब्ब_मंगलम

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