लोक फाउंडेशन और ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी ने एक सैंपल सर्वे के जरिए भारत में अंग्रेजी की डेमोग्रैफी समझने की कोशिश की। यह वाकई रोचक है कि अंग्रेजी को लेकर जो निष्कर्ष सामने आए, वे समाज में इस भाषा को लेकर प्रचलित आम धारणा के अनुरूप ही हैं।
देश के सिर्फ 6 प्रतिशत लोग अंग्रेजी बोल सकते हैं, जबकि 2011 की जनगणना में 10 प्रतिशत लोगों ने कहा था कि वे अंग्रेजी बोल लेते हैं। अंग्रेजी अभी भी मुख्यत: शहरों की भाषा है। सर्वे में शामिल 12 प्रतिशत शहरी लोग अंग्रेजी बोलने वाले थे जबकि सिर्फ 3 फीसदी ग्रामीण अंग्रेजी बोलने में सक्षम थे।
अंग्रेजी का सीधा संबंध वर्ग से है
सर्वे में शामिल 41 पर्सेंट अमीर लोग अंग्रेजी बोल सकते थे जबकि सिर्फ 2 फीसदी गरीबों को अंग्रेजी आती थी।इसका संबंध शिक्षा से भी है। सर्वे में शामिल ग्रेजुएट्स में से एक तिहाई ही इसे बोल सकते थे। इसके जातीय और धार्मिक आयाम भी हैं। 15 फीसदी ईसाई अंग्रेजी बोल सकते हैं जबकि 6 प्रतिशत हिंदू और सिर्फ 4 प्रतिशत मुस्लिम अंग्रेजी बोल लेते हैं।
अंग्रेजी बोलने वाले अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की संख्या ऊंची जाति के लोगों की एक तिहाई है। यानी अगर ऊंची जाति के 10 लोग अंग्रेजी बोलते हैं तो एस/एसटी समुदाय के सिर्फ 3 लोग अंग्रेजी बोलते हैं। इसी तरह महिलाओं से ज्यादा पुरुष और अधेड़ों से ज्यादा युवा अंग्रेजी बोलते हैं। दिल्ली और हरियाणा जैसे समृद्ध राज्य में अंग्रेजी बोलने वाले ज्यादा हैं। उसी तरह गोवा और मेघालय जैसे ईसाई राज्यों में। असम इसका अपवाद है जहां कम आय और कम ईसाई जनसंख्या के बावजूद अंग्रेजी बोलने वाले ठीकठाक संख्या में हैं।शहरों में रहने वाले ऊंची जाति के शिक्षित और अमीर लोग हमारी व्यवस्था में लगातार आगे बढ़ रहे हैं। उनके बच्चे उच्च शिक्षा, अच्छी नौकरी या व्यवसाय में तमाम अवसर हासिल कर रहे हैं। उनकी तुलना में गांवों के लोगों को खासकर गरीब, पिछड़े, दलित और आदिवासियों को कम मौके मिल रहे हैं। वे अंग्रेजी शिक्षा से वंचित इसलिए हैं कि यह शिक्षा महंगी है।
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