बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

िबना इलाज के मरने को लोग है मजबूर


  कहा है इलाज





कुमार संजय


विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी विश्व स्वास्थ्य रिपोर्ट-2013 (युनिवर्सल हेल्थ कवरेज) में कहा है प्रतिवर्ष डेंगू, मस्तिष्क ज्वर, कालाजार, स्वाइन फ्लू, टीबी से लाखों मौतें हो जाती हैं। प्रसव के दौरान होने वाली मौतों का आंकड़ा भी चौंकाने वाला है।
 देश में हर साल केवल दस्त से ही मरने वाले बच्चों की संख्या लगभग 5 लाख है।
 तपेदिक हर साल पांच लाख लोगों की जान लेता है। एक लाख माताएं हर साल प्रसव के समय मौत का शिकार होती हैं।
पांच करोड़ अस्सी लाख मधुमेह के रोगियों के साथ भारत मधुमेह की विश्व राजधानी बनने की ओर अग्रसर है। नौ लाख से भी अधिक लोग हर साल पानी से पैदा होने वाले रोगों के कारण मौत का शिकार होते हैं।डब्लयूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार जहां देश में बीस से तीस लाख लोग एड्स जैसी महामारी का शिकार हैं। दुनिया की एक महाशक्ति बनने का दंभ भरने वाले भारत की उपलब्धियां यदि स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में देखें तो इसमें लगातार विफलता ही उसकी एकमात्र उपलब्धि कही जाएगी।
 शहरों मे प्राइवेट और निजी अस्पतालों की सुविधाएं उपलब्ध हैं लेकिन गांवों की स्थिति चिंताजनक है। देश की 73 फीसद आबादी गांवों में रहती है, फिर भी वहां उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाएं शहरों के मुकाबले 15 प्रतिशत भी नहीं हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश में 2083 लोगों पर एक चिकित्सक ओर प्रति छह हजार लोगों पर एक स्वास्थ्य सेवक उपलब्ध होना चाहिए, लेकिन 70 से 80 प्रतिशत चिकित्सक और 90 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवक शहरी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। इन केंद्रों में 62 फीसद विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49 फीसद प्रयोगशाला सहायकों और 20 फीसद फार्मासिस्टों की कमी है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार 68 फीसद देशवासी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को नहीं लेते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि यहां ठीक ढंग से इलाज नहीं होगा। सरकारी स्वास्थ्य सेवा की तुलना में अत्यधिक महंगी होने के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय निजी चिकित्सालयों की सेवा लेते हैं। इससे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की हकीकत क्या है?
भारत में प्रत्येक वर्ष करीब 15 करोड़ टीबी रोगियों की पहचान होती है और सालाना तीन लाख की मौत होती है। कुष्ठ रोगियों की संख्या 10 लाख से भी ज्यादा है, जो दुनिया के कुष्ठ रोगियों का एक तिहाई है।
 देश में 13 से 20 करोड़ ऐसे लोग हैं, जो अपना इलाज पैसे देकर करा सकने की स्थिति में नहीं हैं।
 स्वास्थ्य सेवाओं में मुनाफा ढूंढा जाने लगे, तो वहा सामाजिक और नैतिक दायित्वों की अहमियत नहीं रह जाती है। सेवा के नाम पर लगभग मुफ्त की जमीन पर खड़े पांच सितारा अस्पतालों को अब शेयर मार्केट में देख सकते हैं। इस पृष्ठभूमि मेें आम लोगों की सेहत और लोगों के स्वास्थ्य के प्रति सरकार की जवाबदेही की बात बेमानी लगती है।

, 2012 में देश भर में डेंगू के लगभग 37 हजार मामले प्रकाश में आये और देश में 216 मौतें रिकार्ड की गयी। सवा सौ करोड़ की आबादी के लिहाज ये आंकड़ा एक फीसद भी नहीं है लेकिन डेंगू और स्वाइन फ्लू का हौव्वा खड़ा करके हर साल करोड़ों-अरबों का वारा न्यारा दवा कंपनिया करती है।
पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16 फीसद की वृद्धि हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की संख्या में 66 फीसद है। इस दौरान प्रति हजार जनसंख्या पर अस्पताल में बेडों की संख्या मात्र 5.1 फीसद बढ़ी। देश में औसत बेड घनत्व (प्रति हजार जनसंख्या पर बेड की उपलब्धता) 0.86 है जो कि विश्व औसत का एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही बेड वर्ष भर खाली पड़े रहते हैं। इससे वास्तविक बेड घनत्व और भी कम हो जाता है।
1983 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने चिकित्सा क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया। इसके बाद निजी स्वास्थ्य सेवा का तेजी से विस्तार हुआ। आज देश में 15 लाख स्वास्थ्य प्रदाता हैं जिनमें से 13 लाख निजी क्षेत्र में हैं। समुचित मानक और नियम-विनिमय की कमी ने निजी स्वास्थ्य सेवा को पैर फैलाने का अवसर दिया। चूंकि निजी स्वास्थ्य सुविधाएं अधिकतर नगरीय क्षेत्रों में स्थित हैं इसलिए ग्रामीण एवं नगरीय स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई और चौड़ी हुई। महंगी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ग्रामीण वर्ग चिकित्सा खर्च के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के औसतन 41 फीसद भर्ती होने वाले और 17 फीसद वाह्य रोगी कर्ज लेकर इलाज कराते हैं। इस प्रकार ग्रामीण गरीबी का एक बड़ा कारण सरकारी चिकित्सालयों की अव्यवस्था भी है। इसके लिए चिकित्सा पाठयक्रम को भी उत्तरदायी मानते हैं। उनके अनुसार, चिकित्सा पाठयक्रमों में रोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। असल में मेडिकल शिक्षा का मुख्य बल इस बात पर रहता है कि बीमारी हो जाने पर उसका इलाज कैसे किया जाय। जो रोग गरीबी की देन हैं उनकी या तो उपेक्षा कर दी जाती है या कामचलाऊ इलाज किया जाता है। उदाहरण के लिए महिलाओं में खून की कमी या बच्चों के कुपोषण को इलाज इंजेक्शन या विटामिन की गोली से किया जाता है न कि इनके सामाजिक हालात को समझने की कोशिश।
आजादी के फौरन बाद देशवासियों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था की बात की गई। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केन्द्र, तहसील एवं जिला अस्पताल और राज्य स्तरीय स्वास्थ्य संस्थानों के नेटवर्क रूपी तर्कसंगत रेफरल व्यवस्था स्थापित करने के साथ बेहतर काम की शुरुआत हुई। तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों ने इस व्यवस्था के तहत स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में काफी हद तक सफलता भी पायी। मगर साठ का दशक आते-आते सरकारी प्रोत्साहन से निजी क्षेत्र ने अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया और नब्बे के दशक तक पंहुचते-पहुंचते सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था लगभग निष्क्रिय हो गई। हालांकि पिछली सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाकर और स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर होने वाले खर्च को तीन प्रतिशत करने की बात तो कही मगर स्थिति जस की तस बनी हुई है। तमाम दावों और आश्वासनों के बाद भी पिछले बजट में स्वास्थ्य सेवाओं पर महज 0.9 प्रतिशत ही खर्च का प्रावधान था।
जहां दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाएं अपनी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर सकल घरेलू उत्पाद का बड़ा हिस्सा खर्च करती हैं, वही सकल घरेलू उत्पाद की ऊंची वृद्धि दर का दावा करने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था का खर्च नियोजित, गैर नियोजित, सार्वजनिक, निजी, राज्य और केन्द्र सभी मिलाकर जीडीपी का पांच प्रतिशत से भी कम है। जबकि अमेरिका अपने सकल घरेलू उत्पाद का 16, फ्रांस 11 और जर्मनी 10.4 फीसद खर्च करते हैं। सोशल एक्टिविस्ट सुनील कुमार के अनुसार, निगमित विकास के इस दौर में सरकार को नागरिकों के स्वास्थ्य से अधिक चिंता बड़े निगमों के मुनाफे की है। स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था के निष्क्रिय होने पर सरकार की खामोशी उसकी बदनीयती और वर्ग चरित्र को जाहिर करती है।Ó
फिलहाल देश में स्वास्थ्य सेवाओं का व्यवसाय 360 करोड़ डॉलर प्रतिवर्ष का है और एक अनुमान के अनुसार 2012 तक उसके 700 करोड़ और 2022 तक 2800 करोड़ हो जाने की आशा है। परन्तु 360 करोड़ डॉलर के इस व्यवसाय में सरकार की भागीदारी महज 19 फीसद है जो लगातार घटती जा रही है, और इसके विपरित आम आदमी की मुसीबतें दोगुनी गति से बढ़ रही हैं।
नब्बे के दशक के बाद स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था लगातार सरकार के इसी दृष्टिकोण के कारण अव्यवस्थित एवं लचर हो रही है और इस अव्यवस्था की कीमत देश की गरीब आबादी को चुकानी पड़ रही है। चंडीगढ़ पीजीआई के डाक्टर शिव बग्गा के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं में बजट की बढ़ोतरी के अर्थ अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे बड़े संस्थान खड़े करना नहीं बल्कि बेहतर रेफरल व्यवस्था पर आधारित तीन स्तरीय स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था का निर्माण होना चाहिए। जिसमें इकाई स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केन्द्र, माध्यमिक स्तर पर जिला अस्पताल और राज्यों के स्तर आयुर्विज्ञान संस्थान सरीखी सुविधाओं की व्यवस्था हो। अन्यथा मरीजो के बोझ से दबे एम्स, पीजीआई और बढ़ते महंगे निजी अस्पतालो के बीच देश बीमार लोगो की वैश्विक राजधानी बनकर रह जाएगा।’

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

लड़का या लड़की जंम के कई साल चलता है पता


लड़का या लड़की जंम के कई साल चलता है पता

दस हजार में से एक में लिंग का सही नही होता विकास


कुमार संजय
 २८ वर्षीय सुनीता ने शिशु को जन्म दिया तो बेटा समझकर परिवार वालों ने खूब खुशियां मनाई। बेटे की तरह उसका पालन-पोषण भी किया। १४ वर्ष की उम्र में पता चला कि उसका लिंग लड़कों की तरह नहीं है। दरअसल वह जन्म से ही लड़की थी लेकिन लिंग का सही विकास न होने के कारण परिवार वाले समझ नहीं पाए कि वह लड़की है। इसी तरह एक परिवार में चार शिशुओं का पालन-पोषण लड़कियों की तरह हुआ। जब लड़कियों की उम्र तेरह वर्ष की हुई तो उनका शारीरिक विकास लड़कियोंं की तरह नहीं हुआ दरअसल यह जन्म से ही लड़के थे। इस तरह की दुविधा केवल इन्ही शिशुओं में नहीं होती है। दस हजार में से एक बच्चा एैसा पैदा होता है जिनका लिंग  स्पष्ट नहीं होता है। लिंग की बनावट स्पष्ट न  होने के कारण परिवार के लोग लड़के को लड़की व लड़की को लड़का समझ कर पालन-पोषण करते रहते है। इस बीमारी को चिकित्सकीय भाषा में एम्बीगुअस जेनिटेलिआ कहते हैं। यह जानकारी एच.एन.हास्पिटल मुंम्बई की विख्यात बाल रोग शल्य चिकित्सका डा.ईला बी.मेसरी ने दी।
डा.मेसरी ने बताया कि जन्म लेने वाले शिशु का लिंग स्पष्ट न होने पर तुरंत चिकित्सक से सलाह लेना चाहिए। अपने आप अंदाजा लगा कर लिंग निर्धारण करना शिशु के समाजिक जीवन को तबाह कर सकता है। एक साल के अंदर शिशु का सही लिंग निर्धारित करने के लिए की जाने वाले इलाज की सफलता दर बढ़ जाती है। व्यस्क होने पर सही लिंग निर्धारित करने में परेशानी होती है। बच्चे का मानसिक परिवर्तन करना मुश्किल होता है। उन्होंने बताया कि शिशु के सही लिंग का पता न लगने की दशा में उसका जीन परीक्षण, एस्ट्रोजन ,टेस्ट्रोट्रान,एफएसएच व एलएसएच सहित कई हारमोन परीक्षण किया जाता है। इसके अलावा वेजाइनोस्कोप,जेनिटोस्कोप,लेप्रोस्कोप व इंडोस्कोप से शिशु के लिंग की बनावट अंदर से देखी जाती है। इन परीक्षणों के आधार पर तय किया जाता है कि वह लड़का है या लड़की। सर्जरी कर उसका सही लिंग बना दिया जाता है। ६५ प्रतिशत शिशु ऐसे पैदा होते है जिनका लिंग लड़कों की तरह दिखता लेकिन वह होते हैं लड़की। २५ से ३० प्रतिशत शिशु ऐसे पैदा होते है जिनका लिंग लड़की की तरह दिखता है लेकिन वह होते हैं लड़के।
संजय गांधी पीजीआई की अंत:स्रावी रोग विशेषज्ञ प्रो.विजय लक्ष्मी भाटिया ने बताया कि जागरूकता के आभाव में लोग ऐसे बच्चों का इलाज नहीं कराते हंै। कई लोग ऐसे बच्चो को किन्नर समझ कर उन्हें सौंप देते हैं। अभी तक यहां पर केवल सौ बच्चे इलाज के लिए पहुंचे। इन बच्चों के इलाज के लिए अंत:स्रावी रोग विभाग व यूरोलांजी विभाग मिल कर काम करते हैं। सर्जरी के बाद सही लिंग तय करने के बाद भी इन्हें हारमोन की दवाएं दी  जाती है। लड़कियों फीमेल हारमोन व लड़कों को मेल हारमोन की दवाएं दी जाती है।
 प्रो. अमित अग्रवाल ने बताया कि थायरायड ग्रंथि का कैंसर मेड्युलरी थायरायड कार्सीनोमा का इलाज केवल सर्जरी से ही संभव है। सर्जरी के दौरान पूरा थायरायड निकालना चाहिए साथ ही आगल-बगल स्थित गांठों को भी निकाल देना चाहिए। दूसरे कैंसर के मुकाबले यह काफी तेजी से फैलता है। शल्य चिकित्सकों को अल्ट्रासाउंड परीक्षण का तरीका सिखाया गया। एसजीपीजीआई के यूरोलाजिस्ट प्रो.राकेश कपूर ने बताया कि व्यस्क होने पर भी लिंग स्पष्ट न होने पर लिंग तय करने की जाने वाली सर्जरी के परिणाम भी बेहतर मिल रहे हैं। उन्होंने अब तक इसके लिए किए गए अपने  २० सर्जरी का अनुभïव बताया।

सावधान: हर तीसरी महिला एवं छठां पुरूष की हड्डी खोखली



सावधान: हर तीसरी महिला एवं  छठां पुरूष की हड्डी खोखली


क्रासर-जरा से चोट पर टूट जाती है हड्डी
क्रासर- खामोश बीमारी की पोल खोलता है बीएमडी
कुमार संजय
लखनऊ। ४४ ïवर्षीय संध्या शुक्ला देखने में  यूं तो स्वस्थ्य है लेकिन किचन में पैर फिसलने के कारण उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई। आपरेशन के बाद लंबे समय तक बिस्तर पर पड़ी रही अब सामान्य जिंदगी शुरु होने वाली थी कि हाथ की हड्डी टूट गई। डाक्टर ने बार-बार हड्डी टूटने की वजह आस्टियोपोरोसिस बताया। इस बीमारी की वजह से हड्डी भुर-भुरी एवं कमजोर हो जाती है जिससे जरा सा भी झटका या आघात लगने पर फ्रैक्चर हो जाता है।
संजय गांधी पीजीआई में आयोजित डायबटिक अंडोक्राइनोलाजी अपडेट में भाग लेने आए विशेषज्ञों ने बताया कि इस बीमारी का कोई लक्षण तब तक प्रकट नहीं होती जब तक कि फ्रैक्चर नहीं हो जाता है। इस बीमारी से बचने के लिए  चालिस की उम्र पार करने के बाद बोन मिनिरल डेंसटी का परीक्षण  कराना चाहिए। इस परीक्षण से बीमारी का पता लग जाता है। एहतियात बरत कर फ्रैक्टर से बचा  सकता है। संजय गांधी पीजीआई के अत:स्रावी रोग विशेषज्ञ प्रो.सुशील गुप्ता बताते हैं कि पचास की उम्र पार कर चुके ५० फीसदी महिलाएं एवं ३६ फीसदी पुरूष इस बीमारी के चपेट में हैं। २९.८ फीसदी महिलाएं एवं २४.३ फीसदी पुरूष मुहाने पर खड़े हैं। हर तीसरी महिला एवं हर छठां पुरूष इस बीमारी के चपेट में है। इस बीमारी की वजह से सात लाख लोगो के रीढ़ की हड्डी,तीन लाख लोगो के कूल्हे,दो लाख लोगों को कलाई एवं तीस हजार लोगों के दूसरी अन्य हड्डीयों में फ्रैक्चर होता है। कूल्हे में फ्रैक्चर के शिकार २० लोगों की मौत संक्रमण ,बेड शोर के कारण हो जाती है बाकी ५० फीसदी लोग विकलांग हो जाते हैं। बच्चों में इस बीमारी को रिकेट के नाम से जाना जाता है। प्रो.गुप्ता बताते हैं कि हड्डीयां कोलेजन नामक प्रोटीन के जाल पर एकत्रित कैल्शियम के हाइड्रोआक्सापेटाइड लवण से बनी होती है। यदि कोलेजन का मैट्रिक्स सामान्य हो कैल्शियम कम हो जाए तो इसे आस्टोमलेसिया (मुलायम हड्डी) हो जाता है। यह बीमारी विटामिन डी की कमी से होती है। जब कोलेजन एवं कैल्शियम होने कम हो जाता है तो इस बीमारी को आस्टियोपोरोसिस कहते हैं।
३० साल की उम्र तक हड्डी में कैल्शियम जमा होता है इसके बाद क्षरण शुरू हो जाता है। इसलिए कैल्शियम युक्त खाद्यपदार्थो का सेवन खूब करना चाहिए ताकि बोन मास बढ़ जाए। उन्होंने बताया कि कैल्शीटोनिन एवं वायोफास्फोनेट दो नई दवाएं आ गई जिससे बीमारी के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है। कैल्शीटोनिन बोन मास बढ़ता है जबकि वायोफास्फोनेट कैल्शियम का क्षरण कम करता है। 
बाक्स--
ताकि खोखली न हो हड्डियां
--बीएमडी जांच कराना चाहिए
--वजन सहन करने वाले व्यायाम करना चाहिए
-- दूध और धूप का सेवन करना चाहिए
-- कैल्शियम एवं विटामिन डी का सेवन करना चाहिए
--शराब एवं धूम्रपान से बचना चाहिए
बाक्स-----
बीमारी से बचने के आवश्यक कैल्शियम की मात्रा का सेवन
उम्र एवं लिंग              कैल्शियम की मात्रा (प्रतिदिन)
जंमजात -६ माह              ४०० मिली ग्राम
६माह से एक साल              ६०० मिली ग्राम
एक साल से दस साल           ८०००-१२०० मिली ग्राम
११ से २४ साल                   १२००-१५०० मिली ग्राम
गर्भवती महिला                   १२००-१५०० मिली ग्राम
मीनोपाज के बाद २५ से ४९       १००० मिली ग्राम
(महिला)
५० से ६४ महिला                  १५०० मिली ग्राम
६५ से अधिक महिला              १५०० मिली ग्राम
२५ से ६४ आयु के पुरूष            १००० मिली ग्राम
६५ से अधिक  आयु के पुरूष       १५०० मिली ग्राम  े

बुधवार, 24 जुलाई 2013


गंगा के किनारे रहने वालों में अधिक हो रहा है पित्ताशय कैंसर
पित्ताशय में पथरी तो पांच गुना कैंसर की आशंका

गंगा मइया के पानी से पित्ताशय कैंसर
कुमार संजय
लखनऊ। गंगा को गंदा करने का असर दिखने लगा है। गंगा अपना असर कैंसर के रूप में दिखा रही है। विज्ञानियों ने देखा है कि गंगा के किनारे रहने वाले पित्ताशय कैंसर का शिकार दूसरे इलाकों में रहने वाले की तुलना में अधिक हो रहे हैं। कैंसर का कारण पानी में पाये जाने वाला हैवी मेटल है जो मानव शरीर में जाकर कैंसर पैदा करता है। इंटनेशनल हिपेटो पैक्रियोटोविलिरी एसोसिएशन इस तथ्य का खुलासा गंगा के किनारे बसे उत्तर प्रदेश एवं विहार के ६० गांवों में २२ हजार लोगों पर शोध के बाद किया है।
एसोसिएशन के मुताबिक हालात इतने बदतर हैं कि पित्ताशय कैंसर के मामले में यह इलाका पूरे विश्व को पीछे छोड़ दिया है। विज्ञानियों ने देखा कि गांगा के किनारे बसे इलाकों में रहने वाले एक लाख में २० से २५ लोग पित्ताशय कैंसर की चपेट में हैं। बंगलौर और दिल्ली में पित्ताशय कैंसर की दर ०.५ प्रति लाख और १२.५ प्रति लाख है। पित्ताशय कैंसर के कारण का पता लगाने के विज्ञानियों ने इल इलाकों में इस बीमारी से ग्रस्त लोगों के बाल और ऊतक का नमूना लेकर आच्ची कैंसर सेंटर निगोया जापान भेजा गया जहां पर नमूनों का परीक्षण हुआ तो पता चला कि इनके बाल और ऊतक में कैडमियम, सीस और पारा की मात्रा सामान्य से अधिक है जो पित्ताशय कैंसर का एक बड़ा कारण है। यह तत्व इनके शरीर में पानी के जरिए आया। गंगा के पानी में यह तत्व नदी के पास स्थित उद्योग से निकले कचरे से आया। विज्ञानियों ने बताया है कि नार्थ इंडिया में पित्ताशय कैंसर की दर साउथ इंडिया के मुकाबले १५ गुना अधिक है।
संजय गांधी पीजीआई के पेट रोग विशेषज्ञ प्रो. यू सी घोषाल कहते हैं कि विश्व में चिली के बाद पित्ताशय कैंसर के मामले में यूपी और बिहार सबसे आगे हैं। कहते हैं कि पेस्टीसाइड, विनायल क्लोराइड भी कैंसर का बड़ा कारण है। देखा गया है कि पेट्रोलियम, शू मेकिंग, पेपर मिल में काम करने वाले लोगों में पित्ताशय कैंसर की आशंका अधिक होती है। कैंसर का पता लगाने के लिए अल्ट्रासाउंड, सीटी स्कैन सहित अन्य परीक्षण किया जाता है। संजय गांधी पीजीआई के  पेट शल्य चिकित्सक प्रो. अशोक कुमार के मुताबिक  इलाज के लिए कैंसर युक्त पित्ताशय को निकाल कर बचे हुए सेल को मारने के लिए कीमोथिरेपी और रेडियोथिरेपी दी जाती है। पित्ताशय में पथरी होने पर कैंसर की आशंका पांच से छ: गुना बढ़ जाती है। इस लिए पथरी होने पर तुंरत पित्ताशय को निकलवाना देना चाहिए। 
यह परेशानी तो सावधान
पेट के ऊपरी भाग में दर्द
भूख में कमी
शरीर के भार में कमी
पीलिया
कमजोरी 
      


युवाओं को रक्तदान करने के लिए  जा"रूक करे"ा डब्लूएचओ
तीस लाख में दस  करते हैं रक्तदान
कुमार संजय
लखनऊ।  खून की जरूरत पडऩे पर ९० फीसदी लो"ों की पहली प्राथमिकता होती है कि बाजार से पैसा दने पर खून किसी तरह मिल जाए बदले में खून न देना पड़े। इस हकीकत को बदने के लिए विश्व रक्त दान दिवस (१४ जून) पर विश्व स्वास्थ्य सं"ठन ने युवाओं के रक्त दान के लिए जा"रूक करने के लिए नारा दिया है न्यू ब्लड फार द र्वल्ड यानि विश्व के लिए नया खून।
संजय "ांधी पीजीआई के ट्रांसफ्यूजन मेडिसिन विभा" के प्रो. अतुल के मुताबिक आज भी सबसे अधिक रक्त दान युवा ही कर रहा है। ५७.७ फीसदी रक्तदान २१ से ३० आयुवर्" के लो"ों से आता है। कुल रक्तदान करने वालों में से ५२.४४ फीसदी लो" पहली बार रक्तदान करते हैं। उ"ा शिक्षित ३२.०१ फीसदी, स्तानतक ३८.४१ एवं अनपढ़ ३.३५ फीसदी रक्तदान करते हैं कहने का मतलब यह है कि पढ़े लिखे लो"ों के बीच रक्तदान के प्रति जा"रूकता आ रही है।
विशेषज्ञों के मुताबिक स्वैछिक रक्त दान के प्रति लो"ों में जा"रूकता का आलम यह है कि राजधानी के ३० लाख की आबादी में से हर माह केवल तीन लो" अपने मन से खून देने पीजीआई आते हैं। कुछ सं"ठन रक्तदान केलिए कैम्प ल"वाते हैं वहां से जरूर रक्त मिल जता है। लेकिन इसे पूर्ण स्वैछिक रक्त दान नहीं कहा जा सकता है। इसी तरह सिविल हास्पिटल केब्लड बैंक के जे.एन.तिवारी कहते हैं कि यहां पर भी महीने में कोई एक-दो खून दान करने आता है। यही हाल किं" जार्ज मेडिकल विश्वविद्यालय के ब्लड बैंक का है।

ऐसे रूक सकता है धंधा
 अस्पताल यह तय कर लें कि सरकारी ब्लड बैंक से दिया "या ही रक्त मरीज को चढ़ाया जए"ा तो खून का धंधा अपने आप बंद हो जाए"ा। विशेषज्ञ कहते हैं कि केवल राजधानी में १८० से २०० यूनिट खून की रोज जरूरत होती है। स्वैछिक रक्त दन से सारे सरकारी ब्लड बैंक को मिा कर १० यूनिट खून नहीं आता है। अब बाकी जरूरत बाजारू खून या बदले में डोनेशन से ही पूरी होता है।


उम्र और व्यवसाय  के अनुसार रक्तदान
२० से कम - २५.६१ फीसदी
२१ से ३० - ५७.२२ फीसदी
३० से अधिक- ५.१८ फीसदी
छात्र- ४० फीसदी
बेरोज"ार- ११ फीसदी
आफिस जाने वाले - ३० फीसदी


नहीं दान करें"े तो भी बेकार हो"ा खून
 आप अ"र यह सोचते हैं कि रक्त शरीर में बना रहता है तो यह भूल जाएं। ७० से ८० एमएल खून अपने आप १२० दिन में खराब हो जाता है। जो खून खराब होता है उसकी पूर्ति बोन मैरो करता है। एक स्वस्थ्य व्यक्ति के शरीर में पांच से 6 लीटर रक्त रहता है जिसमें व्यक्ति ३०० एमएल खून दे सकता है। व्यक्ति से दान में मिले ३०० एमएल रक्त में ५० एल सिट्रेट फास्फेट डिस्ट्रोज मिला कर जो रक्त को जमने से रोकता है।    
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यह कर सकतें हैं रक्तदान
-एक स्वस्थ्य व्यक्ति जिसकी आयु 18 से 60 के बीच हो शारीरिक वजन 45 किलो"्राम से अधिक हो
-ऐसा कोई भी व्यक्ति जो पीलिया, मलेरिया,रति रो" ,एड्स, हीमोफीलिया, एनीमिया से "्रसित न हो
-रक्त में हीमोग्लोबीन की मात्रा 12 मिली "्राम से कम न हो
       


जीवन दूत बने राजधानी के रक्तदाता
इससे बड़ा कोई दान नहीं...
पीजीआई के ही वीके सिंह रक्तदान को सबसे बड़ा दान समझते हैं। वे अब तक लगभग 85 बार रक्तदान कर चुके हैं। वो कहते हैं कि बस मन ने कहा, रक्तदान करना चाहिए और ब्लड बैंक पहुंच गया। इसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ वो आज भी जारी है। हर तीन माह में रक्तदान करता हूं। वीके सिंह का कहना है कि यदि शरीर में अपने आप बनने वाले खून की एक यूनिट देकर आप चार लोगों के जीवन की रक्षा में भागीदार बनते हैं तो इससे बड़ा कार्य और क्या हो सकता है। मेरी नजर में इससे बड़ा कोई दान नहीं है। ऐसे बहुत से मरीज होते हैं जिनके ऑपरेशन या फिर जान बचाने के लिए रक्तदाता नहीं मिलते। ब्लड कैंसर से जूझ रहे लोग और थौलीसीमिया पीड़ित बच्चों को भी हर सप्ताह खून की जरूरत पड़ती है। ऐसे लोगों को स्वैच्छिक रक्तदान से ही मदद मिलती है। बस, इसी एक सोच ने रक्तदान करने की प्रेरणा दी।
रक्तदाताओं के सचिन हैं आरके भौमिक
आरके भौमिक रक्तदाताओं के ‘सचिन’ माने जाते हैं। वो अब तक 105 बार रक्तदान कर चुके हैं। वैसे तो वो पुलिस विभाग में हैं, लेकिन खाकी वर्दी के पीछे उनका एक अलग ही चेहरा है। वो बताते हैं कि 1984 में उत्तरकाशी में आए भूकंप में घायल लोगों की मदद के लिए पहली बार रक्तदान किया था। तब से आज तक रक्तदान करते आ रहे हैं। उन्होंने बताया कि वो अब तक 105 बार रक्तदान कर चुके हैं। उनका बेटा अभिषेक भौमिक भी वर्ष 2008 से रक्तदान कर रहा है और अब तक लगभग 18 बार रक्तदान कर चुका है। दोनों ही ईश्वर चाइल्ड फाउंडेशन और भारत सेवाश्रम कोलकाता से जुड़े हैं। ये संस्थाएं नि:सहाय और कैंसर पीड़ित बच्चों की मदद करती हैं। भौमिक का कहना है कि युवाओं को दूसरों को जीवन दान देने वाले इस पुनीत कार्य के लिए आगे आना चाहिए। लोग तरह-तरह का दान देते हैं। इसे भी एक दान बनाएं। क्योंकि एक यूनिट रक्त बहुत कीमती है, जो चार लोगों की जान बचाता है।
जिम्मेदारी बन गया रक्तदान
घर और ऑफिस की तरह ही अब रक्तदान भी मेरी जिम्मेदारी बन चुका है। रेयर बी निगेटिव ग्रुप होने के कारण उनका रक्तदान करना और अधिक महत्वपूर्ण है। यह कहना है मौसम विभाग में राजभाषा अधिकारी कल्पना श्रीवास्तव का। वे 4 जून, 2005 को अखबार में पढ़कर पहली बार केजीएमयू के ब्लड बैंक में रक्तदान के लिए पहुंची थी। तब से अब तक 30 बार रक्तदान कर चुकी हैं। उन्होंने बताया कि ब्लड कैंसर से पीड़ित बच्चों को समय-समय पर रक्त की जरूरत होती है। उनका इलाज कराते-कराते आर्थिक रूप से टूट चुके माता-पिता की इतनी क्षमता नहीं होती कि वो बार-बार खून की व्यवस्था कर पाएं। ऐसे ही बच्चों की मदद के लिए ईश्वर फाउंडेशन से जुड़ी और लगातार रक्तदान कर रही हैं। उन्होंने बताया कि पिता, भाई और बहन भी निगेटिव ग्रुप के हैं। भाई भी समय-समय पर रक्तदान करते हैं। उन्होंने कहा कि सामान्य ग्रुप के लोग रक्तदान के लिए बहुत हैं, जिसका भी रेयर ग्रुप है उसे रक्तदान के लिए स्वयं ही आगे आना चाहिए। क्योंकि कभी उसको भी रक्त की जरूरत पड़ सकती है। ऐसे में उसकी मदद कौन करेगा।
मरीजों की होप बने ‘जॉर्जियंस होप’
किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी के एमबीबीएस छात्रों का ये समूह पांच साल में जरूरतमंदों के लिए 1000 से ज्यादा यूनिट रक्तदान कर चुका है। उनके इस कार्य से अब तक अनगिनत मरीजों की जान बचाई गई है और आज भी ये कार्य बदस्तूर जारी है। 11 मई 2008 को कुछ छात्रों ने ‘जॉर्जियंस होप’ के नाम से एक समूह बनाया, जिसका लक्ष्य जरूरतमंद और गरीब मरीजों की मदद करना है। ये मदद रक्तदान, आर्थिक और दवाओं के रूप में की जाती है। ‘जॉर्जियंस होप’ से जुड़े एमबीबीएस 2010 बैच के फैज ने बताया कि पूरे अस्पताल परिसर में जॉर्जियंस होप के सदस्यों के नंबर लिखे पर्चे चिपकाए गए हैं। डॉक्टर और मरीज रक्तदान या अन्य मदद के लिए कॉल करते हैं। इसके बाद मरीज की स्थिति को देखते हुए मदद की जाती है। इसके अलावा 2008 बैच के प्रतीक रस्तोगी, सुनील नायक, 2010 बैच से अंजनि गोपाल, दुर्गा प्रसाद, अजहरुद्दीन, रविकांत, आतिफ नसीम, नीरज, 2012 बैच के आलोक पांडेय, अक्षय, नियतांक, अफरोज, हर्ष आदि जॉर्जियंस होप के सक्रिय सदस्य हैं।
शरीर के लिए भी फायदेमंद
रक्तदान शरीर के लिए बहुत फायदेमंद होता है। क्योंकि रक्तदान के बाद शरीर में कई नई कोशिकाएं बनती हैं, जिससे शरीर को काफी फायदा होता है। यह कहना है पीजीआई के टेक्निकल ऑफिसर डीके सिंह का। सिंह ने केजीएमयू में डिप्लोमा करते समय 1984 में पहली बार रक्तदान किया था। इसके बाद 1988 में पीजीआई में नियुक्ति मिल गई, लेकिन रक्तदान का सिलसिला लगातार जारी रहा। वे बताते है कि 1984 से अब तक 88 बार रक्तदान कर चुका हूं। उनकी पत्नी और बेटा जयंत भी इस बेमिसाल कार्य से जुड़े हुए हैं। बेटा लगभग दो साल से रक्तदान कर रहा है और पत्नी ने 7 मार्च को ही रक्तदान किया था। डीके सिंह बताते है कि वे एफरेसिस भी कई बार करा चुके हैं। इसमें ब्लड तो शरीर में वापस आ जाता है, लेकिन मशीन प्लेटलेट्स को अलग कर लेती है। उन्होंने बताया कि रक्तदाता दिवस पर यूपी राज्य एड्स कंट्रोल सोसाइटी उन्हें सम्मानित करेगी।
 
40 फीसदी से पूछा ही नहीं जाता, रक्तदान करोगे क्या?
एसजीपीजीआई के सर्वे में सामने आए रोचक तथ्य, 90 फीसदी से ज्यादा दोबारा रक्तदान के इच्छुक
यह भ्रांतियां और बाधाएं भी रोक रहीं रक्तदान से
कुल लोगों में
4.66%
का मानना कि रक्तदान करेंगे तो नपुंसक हो जाएंगे, जबकि ऐसा नहीं होता है।
वहीं
4.25%
का मानना था कि इससे वे हमेशा के लिए कमजोर हो जाएंगे, यह भी गलत है। दान किया गया रक्त हमारा शरीर कुछ ही घंटों में फिर बना लेता है।
कभी रक्तदान नहीं करने वालों में
6.50%
को रक्तदान में लगने वाले 5 से 7 मिनट बोरिंग और लंबे लगते हैं, इसलिए वे रक्तदान नहीं करते।
इसी किस्म के
4.25%
लोगों का मानना है कि उनका रक्त बेकार चला जाएगा।
इसी श्रेणी के
6.25%
इसलिए कभी रक्तदान नहीं करते क्योंकि रक्तदान करने की जगह उनके घर से दूर पड़ती है।
22.75% में गलत धारणा कि सेहत को नुकसान होगा
जहां रक्तदान नहीं करने वालों में 40.75% ने बताया कि उनसे रक्तदान के लिए कभी पूछा ही नहीं गया तो वहीं 22.75 प्रतिशत में यह गलत धारणा है कि रक्तदान से उनकी सेहत को नुकसान होगा। 3.75 फीसदी जहां सूई चुभने के डर से रक्तदान नहीं करना चाहते तो 5.50 फीसद में धारणा है कि यह दर्द भरी प्रक्रिया है। 4.25 प्रतिशत का मानना था कि उनका रक्त बेकार चला जाएगा, 6.25 फीसद सिर्फ इसलिए कभी रक्तदान नहीं करते क्योंकि रक्तदान करने की जगह उनके घर से दूर है। इन 400 लोगों में से 57.25 प्रतिशत ने कहा कि अगर जरूरत पड़े तो वे रक्तदान जरूर करेंगे, वहीं 13.25 प्रतिशत लोग आज भी अज्ञान की गिरफ्त में इतने उलझे हैं कि वे कभी रक्तदान नहीं करना चाहते।
समाधानों पर क्या कहता है सर्वे
सर्वे रिपोर्ट के अनुसार आज राष्ट्रीय स्तर पर रक्तदान को लोकप्रिय करने के लिए अभियान छेड़ने की जरूरत है। अमेरिका में भी कुछ दशकों पहले तक रक्तदान को लेकर भ्रांतियां दूर करने के लिए इसी किस्म के अभियान की शुरुआत की गई थी। वहीं ऐसे लोग जो स्वेच्छा से रक्तदान करते हैं उन्हें प्रेरित करने की जरूरत है, क्योंकि उनमें अपनी बीमारियों के बारे में झूठ बोलने जैसी खराबी नहीं होती जो गैरकानूनी रूप से रक्त बेचने वालों में पाई गई है। वहीं 85 प्रतिशत रक्तदान करने वाले अखबारों और टेलीविजन की वजह से प्रेरित होकर रक्तदाता बने, ऐसे में इनके जरिए और प्रचार-प्रसार की भी जरूरत है।

रविवार, 21 जुलाई 2013



'जरा सी अजवायन, ठीक करे मर्ज इक्यावन
अस्थमा, पाचन तंत्र की गड़बड़ी, गठिया के लिए रामबाण
अजवायन में पाए जाने वाना रसायन थाइमाल कई रोगों में फायदेमंद
कुमार संजय
लखनऊ । एक कहावत है 'जरी सी अजवायन, ठीक करे मर्ज इक्यावनÓ। विज्ञानियों  ने अजवायन के औषधीय गुणों की जो जानकारी दी है उससे यह कहावत सौ फीसदी सच साबित होती है। छोटे-मोटे मर्च छोड़ दीजिए या संक्रमण, अस्थमा, पाचन तंत्र व गठिया जैसे मर्जों को आदमी से दूर रखती है। यही नहीं घावों पर यदि अजवायन के सत् में डूबी पट्टी रखकर बांध दी जाए तो वह अन्य औषधियों के उपयोग की अपेक्षा जल्दी भरता है। अजवायन में पाए जाने वाला औषधीय रसायन थाइमाल, अल्फा-पाइनेन, पी-साइमेन व गामा -टेरपाइनेन कई मर्जों के इलाज में रामबाण है।
 अजवायन में  कैल्शियम व लौह की अधिकता होने के कारण यह पाचन तंत्र की बीमारियों के खिलाफ सहायक होता है। अस्थमा व गठिया से राहत दिलता है। अजवायन का मुख्य घटक थाइमाल का इस्तेमाल कफ व गले की जलन के विरूद्ध दावओं में किया जाता है। थाइमाल का एक घटक अजावयन को शक्तिशाली कवक नाशी (एंटी फंगल) बनाता है। थाइमाल एक शक्तिशाली जीवाणुनाशी व कवक नाशी है। थाइमाल का आंतरिक एवं वाह्य दोनो प्रकार के इस्तेमाल के लिए  प्रभावकारी रोगाणुरोधक है। इसका शल्य संबंधी मरहम-पट्टी  के लिए जाली एवं ऊन को चिकित्सकीय रूप से उपाचारित करने हेतु किया जाता है। यह अपने कार्यो में कार्बोलिक अम्ल के समान शक्ेितशाली रोगाणुरोधी के रूप में काम करता है लेकिन कार्बोलिक अम्ल की तरह जलनशील नहीं होता है। त्वचा के लिए मृदु होता है व घावों के लिए कम जलनशील होता है जबकि जीवाणुरोधी क्रिया अधिक होती है। इसके अलावा एड्स रोगियों के मुंह में होने वाले संक्रमण के उपचार में कारगर है। अजवायन में पाए जाने वाले रसायनिक यौगिकों के बारे में बताया गया है कि अजावयन से ९५ प्रतिशत थाइमाल अलग किया जा सकता है। अजावन का इस्तेमाल उच्चताप मान बर भूनने के बजाए साधारण ताप धीरे-धीरे भूनना चाहिए। इससे  तैयार करना अधिक परिष्कृत होता है। मसालों में मिले अधिकांश सुगंध लिपोफिलिक होते हैं। पानी की अपेक्षा वसा में अच्छी तरह मिल जाते हैं। इस प्रकार अजवायन के मक्खन में भूनने से सुगंध ही नहीं बढ़ता है बल्कि यह अच्छी तरह से भोजन में चारों तरफ फैल जाता है। बताया गया है कि अजवायन उस पुष्प छत्रक परिवार का सदस्य है जिसमें सोआ,जीरा व स्याह जीरा सहित कुल २७०० सदस्य हैं। अजावन का इस्तेमाल मसाले के रूप में किया जाता है। स्वाद तीक्ष्ण, तीखा गर्म व तेज होता है जिससे एक क्षण के लिए हल्के खुश नुमा स्वाद के बाद जीभ सुन्न हो जाती है।     एतिहासिक रूप से पुराने मिश्र में जीवाणुनाशक व कवक नाशी विशेषताओं के कारम अजावयन का सत शवों को सुरक्षित रखने के लिए किया जाता था। सत की औषधीय गुणवत्ता इसके अणु में कार्बन व हाइड्रोजन एवं आक्सीजन परमाणुओं के विन्यास के कारण है।                                                                                                         

बुधवार, 17 जुलाई 2013


गोरा बनने के युवा कर रहे हैं स्टेरायड  का इस्तेमाल
देश के बार सेंटर के विशेषज्ञों ने शोध के बाद किया खुलासा
स्टेरायड का इस्तेमाल करने वाले नब्बे फीसदी में दिखा साइड इफेक्ट
आम लोगों की सलाह पर इस्तेमाल करते हैं यह क्रीम
कुमार संजय
लखनऊ। गोरा बनने और चेहरे को निखारने के चक्कर में लगभग पंद्रह फीसदी युवा कार्टिकोस्टेरायड युक्त क्रीम का इस्तेमाल कर बीमारी मोल ले रहे हैं। खुद इनके इस्तेमाल तक बात खत्म नहीं होती है ब्यूटीशियन दूसरी क्रीम में मिला कर कुछ समय के लिए लोगों को गोरा बना रही है।  ऐसा नहीं है कि केवल लड़कियां गोरा बनने के लिए इस क्रीम का इस्तेमाल कर रही है इस दौड़ में लड़के भी काफी हद तक शामिल है। विज्ञानियों ने स्टेरायड युक्त क्रीम का इस्तेमाल करने वाले लगभग नब्बे फीसदी लोगों में इसका साइड इफेक्ट देखा है। कार्टिकोस्टेरायड युक्त क्रीम का इस्तेमाल पता लगाने के देश के विभिन्न अस्पतालों के बारह विज्ञानियों ने ओपीडी में आने वाले त्वचा रोग से ग्रस्त मरीजों पर लंबे शोध के बाद इस बात का खुलासा इंडियन जर्नल आफ डर्मेटोलाजी, वेनरोलाजी एंड लेप्रोलाजी में किया है।
मख्य शोध कर्ता इंदु श्री स्किन क्लीनिक के डा. अबीर सारस्वत कहते हैं स्टेरायड युक्त क्रीम हर घर में मिल जाएगी। अधिक दिन तक इस्तेमाल करने से इसका नशा हो जाता है। क्रीम लगाना बंद करते ही चेहरे फिर काला पड़ जाता है। इस लिए लोग लगातार इस्तेमाल करते रहते हैं। डा. अबीर कहते हैं कि बीटामीथासोन स्टेरायड युक्त वेटनोवेट तो हर व्यक्ति के जुबान पर है। इससे अंदाजा लगा सकते है कि लोग स्टेरायड युक्त क्रीम का कितना इस्तेमाल कर रहे हैं।  शोध ने देश के बारह स्किन केयर सेंटर के  ओपीडी में आने वाले दो हजार नौ छब्बीस लोगों में सर्वे किया तो पाया कि चार सौ तैंतिस लोग ट्रांपिकल स्टेरायड क्रीम का इस्तेमाल मुंहासे और गोरे बन के लिए करते हैं।
विशेषज्ञों के मुताबिक इस क्रीम का इस्तेमाल करने में एक सौ बारह लड़के और तीन सौ इक्कीस लड़कियां शामिल हैं। विशेषज्ञों ने देखा कि इनमें से उन्नतीस फीसदी लोग गोरा बनने और सेविंग के बाद क्रीम की तरह इस्तेमाल करते हैं ।  चौबिस फीसदी लोग मुंहासे के लिए इस क्रीम का इस्तेमाल करते हैं। सबसे अधिक इस क्रीम का इस्तेमाल ग्रामीण और कस्बों में किया जाता है। इन क्रीमों का इस्तेमाल सबसे अधिक इक्कीस से तीस साल के आयु वर्ग वाले करते हैं। शोध रिपोर्ट के मुताबिक  सबसे बड़ी बात यह है कि इन क्रीमों के इस्तेमाल की सलाह लगभग साछ फीसदी लोगों नान फिजिशियन यानि आम लोग देते हैं। केवल लगभग चौवालिस फीसदी लोगों को डाक्टरों ने सलाह दी यह वह डाक्टर है जो त्वचा रोग विशेषज्ञ नहीं थे। शोध के मुताबिक अधिकतर लोगों ने पोटेंट और सुपर पोटेंट क्रीम का इस्तेमाल किया। इन क्रीमों में हाइड्रोकार्टिकोसोन से  सौ से  ६०० गुना अधिक प्रभावी रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। डा. अबीर सारस्वत के मुताबिक हाइड्रोकार्टिकोसेन सबसे सुरक्षित रसायन है।  

यह अवशोषित करता है स्टेरांयड
विशेषज्ञों के मुताबिक चेहरा सात फीसदी तक और आई लिड तीस फीसदी तक स्टेरांयड को अवशोषित करता है।

क्या हो सकती है परेशानी
लखनऊ। स्टेरायड युक्त क्रीम के इस्तेमाल चेहर लाल चकत्ते, रक्त वाहिकाओं के फैलने, लाल धारीयां, चेहरे पर बाल हो सकता है। यह वह परेशानियां जो दिखती है। शरीर के भीतरी हिस्से में जो कुप्रभाव पड़ता है वह और भी खतरनाक है। शरीर की प्रतिरक्षण क्षमता कम हो जाती है जिससे  जल्दी संक्रमण होने की आशंका रहती है। विशेषज्ञों के मुताबिक इस क्रीम के अधिक इस्तेमाल से एड्रिनल ग्रंथि से स्रावित होने वाला कार्टीसोन हारमोन का स्तर कम हो सकता है जिससे शरीर में सोडियम , पोटैशियम की मात्रा कम हो सकती है। कुंशिंग सिड्रोम की परेशानी हो सकती है जिसमें चेहरे पर सूजन और शरीर का भार बढ़ जाती है। इसके अलावा ग्लूकोमा और कट्रैक्ट ( मोतियाबिंद)की भी आशंका बढ़ जाती है। 

कैसे पहचाने व्यूटीशियन कर रहे स्टेरांयड का इस्तेमाल
लखनऊ। त्वचा रोग विशेषज्ञ डा. अबीर सारस्वत के मुताबिक यदि व्यूटीशियन की क्रीम का इस्तेमाल   करने के बाद चेहरे पर लाली, चकत्ता, चेहरे पर बाल की परेशानी हो रही है तो इसका मतलब है कि व्यूटीशियन गोरा बनाने के लिए दूसरी क्रीम के साथ स्टेरांयड युक्त क्रीम का इस्तेमाल कर रही है। मिलावट को पहचनाने को कोई दूसरा तरीका नहीं है।

इतने सेंटर को मिला कर किया गया शोध
लखनऊ। डा. अबीर सारस्वत के साथ शोध में अपोलो ग्लीनएंगिल्स हास्पिटल कोलकता के डा. कौशिक लहरी,आर्मड फोर्स मेडिकल कालेज पुणे के डा. मानस चटर्जी, आसाम मेडिकल कालेज एंड हास्पिटल डिबरूगढ़ के डा. एस बरूवा, विवेकानंद इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस कोलकता के डा. अर्जित कोंडो, आरएनटी मेडिकल कालेज उदयपुर के डा. आशीष मित्तल, केपीसी मेडिकल कालेज कोलकता के डा. एस पांडा, अपोलो हास्पिटल मद्रास डा. एम राज गोपालन, विशेन स्किन सेंटर अलीगढ़ के डा. राजीव शर्मा, सेंट जांस मेडिकल कालेज बंगलौर के डा. अनिल अब्राहम, निर्वाण स्किन केयर बडौदरा के डा. एस बी वर्मा, पीएसजी हास्पिटल के डा. सीआर श्रीनिवास शामिल हैं।
 सात फीसदी महिलाओं में होता है असुरिक्षत गर्भपात
असुरक्षित गर्भपात बन सकता है 23 फीसदी मौत का कारण
 क्वीन मैरी अस्पताल की प्रो.विनिता दास के शोध में हुआ खुलासा
कुमार संजय 
लखनऊ। कभी समाज का डर तो कभी परिवार बढऩे के डर  से गर्भपात कराने वाली प्रदेश की पंद्रह से तीस फीसदी महिलाएं असमय मौत का शिकार बन रही हैं। चूक के कारण होने गर्भधारण से छुटकारा पाने के लिए गर्भपात की एक मात्र रास्ता होता । असुुरक्षित गर्भपात के कारण होने वाली परेशानियों के कारण 23.21 फीसदी महिलाओं की मौत हो जाती है। इस तथ्य का खुलासा छत्रपति शाहू जी महाराज मेडिकल विश्वविद्यालय की स्त्री रोग विशेषज्ञ प्रो.विनीता दास एवं डा.अंजू अग्रवाल ने पांच हजार से अधिक महिलाओं पर शोध के बाद किया है। इनके इस शोध को जर्नल आफ आब्सट्रिक्स एंड गायनकोलाजी आफ इंडिया ने मान्यता दी दै।
 प्रो.दास ने शोध रिर्पोट में बताया है कि इनके अस्पताल में पांच हजार महिलाएं गर्भावस्था की परेशानी के साथ  भर्ती हुई जिसमें से सात फीसदी महिलाएं गर्भपात की बाद होने जटिलता की परेशानी के साथ भर्ती हुई इनमें 34.66 फीसदी महिलाएं सेप्टिक एर्बाशन की परेशानी थी। इनमें से 26 फीसदी की मौत गर्भपात की जटिलता के कारण मौत हुई।  87 फीसदी गर्भपात निजि क्षेत्रों  के अनाड़ी हाथों से होता है, जिसका नतीजा है कि हर साल तीस से चालिस हजार महिलाएं गर्भपात की जटिलता के कारण मौत का शिकार हो जाती है।   प्रति एक लाख में से केवल चार को सुरक्षित गर्भपात की सुविधा नसीब होती है। 
अंजता हास्पिटल की स्त्री रोग  एवं टेस्ट ट्यूब बेबी विशेषज्ञा डा. गीता खन्ना गर्भपात के लिए अभी भी हर्बल दवा, काढ़ा जैसी पुरानी प्रचलित तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है। गर्भपात का कारण गर्भनिरोधक फेल होना,  गर्भस्थ शिशु में बनावटी विकृति, समाजिक डर , दो के बाद तीसरी की चाह में कमी है। सबसे अधिक खतरा उनमें है जो सामाजिक डर से गर्भपात का सहारा लेती है। यह किसी ऐसे के पास जाना चाहती है जिससे किसी को पता न चलें। ऐसे में यह अप्रिशिक्षत डाक्टरों के हाथ में आसानी से फंस जाती है।

असुरक्षित गर्भपात से खतरा
-गर्भाशय में छेद जिससे लंबे समय तक रक्त स्राव
-विसंक्रमित  उपकरणों के इस्तेमाल से संक्रमण का खतरा
-संक्रमण की वजह से फेलोपियन ट्यूब में रूकावट जिससे प्रजनन पर खतरा
-पूर्ण गर्भपात न होने पर दर्द सहित रक्त स्राव
-असुरिक्षत गर्भपात की वजह से पेल्विक संक्रमण एवं  सेप्सिस

मंगलवार, 16 जुलाई 2013

बिना आपरेशन अनचाहे गर्भ से निजात संभव
क्रासर-भारत के शोध पर विदेशी विज्ञानियों की मुहर
क्रासर-सुरक्षित है आरयू-४८६ की खुराक


लखनऊ। अनचाहे गर्भ से छुटकारा पाने के लिए अब न तो अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा और न ही सर्जिकल प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। इस प्रकार के गर्भ से छुटकारा दिलाने के लिए विज्ञानियों ने आरयू-४८६ दवा खोजी है। इस दवा के प्रभाव पर छत्रपति साहू जी महाराज मेडिकल विश्वविद्यालय की प्रो. विनीता दास, डॉ. स्वाति जैन और डॉ. हेमप्रभा गुप्ता ने शोध करने के बाद बताया कि सर्जिकल गर्भपात की तरह ही दवा से भी गर्भपात सुरक्षित है।
इन विज्ञानियों ने केवल ३२४ मरीजों पर दवा का परीक्षण किया। इनके शोध पत्र को विज्ञानियों की बिरादरी ने स्वीकार करते हुए जर्नल आफ आबस्टे्रक्टिव एंड गायनकोलाजी आफ इंडिया में स्थान दिया। प्रो. विनीता के शोध में महिलाओं की संख्या कम थी इसलिए विज्ञानियों ने शोध जारी रखा। अब न्यू-इग्लैंड जर्नल आफ मेडिसन में विज्ञानियों ने १२००० महिलाओं पर शोध के बाद प्रो. विनीता के शोध की सफलता पर मुहर लगा दी है। विशेषज्ञों का कहना है कि गर्भपात के बाद दोबारा गर्भधारण करने में परेशानी की आशंका होती है। गर्भपात के बाद स्वत: गर्भपात, गर्भनाल में गर्भधारण, समय से पहले प्रसव एवं कम वजन के शिशु के जन्म की परेशानी की आशंका रहती है। माना जाता रहा है कि सर्जिकल तकनीक से गर्भपात कराने पर यह परेशानियां कम होती है जबकि दवा से गर्भपात कराने पर इन परेशानियोंं की आशंका अधिक होती है।
इसी अवधारणा को विज्ञान की कसौटी पर साबित करने के लिए पहले राजधानी के विशेषज्ञों ने शोध किया। फिर बाद में १२ हजार से अधिक महिलाओं पर शोध के बाद विज्ञानियों ने साबित किया है कि गर्भपात के लिए दवा या सर्जिकल तकनीक का इस्तेमाल करने पर दोबारा गर्भधारण होने या गर्भधारण के बाद परेशानियों की आशंका दोनों तकनीक में मात्र २.५ फीसदी रहती है। जबकि प्रो. विनीता दास ने बताया है कि इसकी आशंका ५.६ फीसदी रहती है। विशेषज्ञों ने बताया कि अनचाहे गर्भ से छुटकारा दिलाने के लिए अमूमन सर्जिकल तकनीक अपनायी जाती है जिसमें वेकूम पम्प, सर्जरी आदि के जरिए भ्रूण को निकला जाता है। सर्जिकल तकनीक में महिला को अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है। कई बार रक्तस्राव अधिक होने के कारण परेशानी हो जाती है। अब विज्ञानियों ने देखा है कि आरयू-४८६ यानी मीफोप्रास्टीन की एक गोली देने के एक या दो दिन बाद चार गोली मीसोप्रास्टील देने से भ्रूण स्वत: बाहर आ जाता है। मीफोप्रास्टीन दवा भ्रूण और गर्भाशय से जुडी कनेक्टिव टिशू को हटा देती है, जबकि मीलोप्रास्टीन गर्भाशय को संकुचित कर देता है। इससे भ्रूण गर्भाशय से बाहर आ जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह दवा महिलाओं को अधिक आकर्षित कर रही है क्योंकि इससे घर पर चुपचाप गर्भपात संभव है। पहले के शोधों में बताया गया था कि सर्जिकल तकनीक से गर्भपात कराने पर खतरे की आशंका नहीं रहती है क्योंकि इस तकनीक में भू्रण एवं ऊतक को पूरा निकाल दिया जाता है, जबकि दवा से गर्भपात कराने पर प्लेसेंटा के कुछ हिस्से और भ्रूणीय तत्व बच जाते हैं जो परेशानी पैदा करते हैं। हाल के शोध से साबित हो गया कि दवा और सर्जिकल तकनीक दोनों में न के बराबर रिस्क है।

सावधान घट रही मां बनने की उम्र

सावधान घट रही मां बनने की उम्र
 51 से घट कर तीस तक पहुंच गई है मीनोपांज की उम्र



लखनऊ। मां बनने की उम्र घट रही है। मीनोपांज की उम्र पचास से घट कर तीस तक पहुंच रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि मीनोपांज की घटती उम्र के कारण महिलाओं को दो तरह की परेशानी होने की आशंका है। कम उम्र में मीनोपांज के चलते मां बनने की परेशानी दूसरी परेशानी है मीनोपांज के कारण आस्टियोपोरोसिस और दिल की बीमारी का खतरा। इन दोनों परेशानियों से बचने के लिए सचेत रहने की सलाह विशेषज्ञों ने दी है। शोध विज्ञानियों ने बताया कि सामान्य मीनोपांज की उम्र अब 51 से घटकर 44.3 साल हो गई है। देखा गया है कि 30 से 34 साल उम्र की 3.1 फीसदी, 35 से 39 उम्र की आठ फीसदी और 41 साल आयु तक की 19 फीसदी महिलाएं प्री मीनोपांज की शिकार हो जाती है। छत्रपति साहू जी महाराज मेडिकल विवि की स्त्री रोग विशेषज्ञों डा. एस पी जैसवार जर्नव पोस्ट ग्रेजुएट मेडिसिन के शोध का हवाला देते हुए बताती है कि प्री मीनोपांज का ट्रेंड बढ़ रहा है। इसके पीछे कारण कुपोषण ,  हारमोनल असंतुलन, रेडिएशन और सर्जरी भी हो सकता है। देखा गया है ग्रामीण क्षेत्र की रहने वाली, खेती के काम में लगी और  लो बाडी मांस इंडेक्स की महिलाएं अधिक प्री मीनोपांज की शिकार हो रही है। अपने दम पर घर चला रही हैं।  ं पैसा कमाने के लिए मेहनत कर रही है जिसके लिए फजिकिल , इमोसनल और मेंटल स्ट्रेंन बढ़ रहा है।  डा. जैसवार कहती है कि आज कल कैरियर के चक्कर में लड़कियां देर से शादी कर रही है ऐसे में यदि उनमें प्री मीनोपांज हो गया तो उनके लिए मां बनने में परेशानी हो सकती है। विशेषज्ञों का कहना है कि इसके पीछे महिलाओं में बढ़ती आर्थिक स्वतंत्रा की प्रवृित है। 
प्री मीनोपांज के पहचान कर समय से सलाह लेकर इससे होने वाली परेशानियों से बचा जा सकता है।
लक्षण
पसीना आनास चिडि़चिड़ापन, मूड स्विंग, नींद  आना, शरीर का भार बढऩा, योनि में सूखापन, पेशाब में परेशानी, याददाश्त में कमी. च्च रक्त चाप       
चलो कुछ तो घटी प्रजनन दर
अभी भी प्रजनन दर के मामले में प्रदेश नंबर वन

शिक्षा एवं आर्थिक स्तर से सीधा है प्रजनन दर का रिश्ता
  
 तमाम सरकारी कमियों के बीच एक सरकारी आंकड़ा थोड़ा सा लोगों को राहत देने वाला आया है। प्रदेश की कुल प्रजनन दर में थोड़ी से कमी आयी है। इस कमी से यह आभास होता है कि लोगों में जन संख्या नियंत्रण के प्रति जागरूकता बढ़ रही है। दूसरी बात जो थोड़ा पर परेशाना करती है कि प्रजनन दर में जो कमी आयी है वह केवल पढ़लिखे और उच्च आर्थिक स्तर वाले लोगों से आयी है प्रदेश का कम पढ़ा लिखा और गरीब तब का अभी भी आबादी की रफ्तार कम नहीं कर रहा है। नेशनल फेमली हेल्थ सर्वे- दो की रिर्पोट पर गौर करें तो पता चलता है कि दस साल पहले प्रजनन दर ४.१ यानि प्रति महिला प्रजनन दर ४.१ था ।  नेशनल फेमली हेल्थ सर्वे तीन की रिर्पोट में यह घट कर ३.८ हुआ यानि दस साल में प्रजनन दर में गिरावट आयी।  इस प्रजनन दर के साथ अभी भी प्रदेश प्रजनन दर के मामले में नंबर वन है जबिक देश की प्रजनन दर २.७ है। 
रिर्पोट के मुताबिक शहरी क्षेत्र के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्र में प्रजनन दर अधिक है। शहरी क्षेत्र में प्रजनन दर तीन पाया गया जबकि ग्रामीण क्षेत्र में प्रजनन दर ४.१ है। वर्ग के आधार पर प्रजनन दर देखा गया तो पाया गया कि एसी( जनसूचित जाति) में प्रजनन दर ४.५. पिछड़े वर्ग में ३.८ जबकि सामान्य वर्ग में प्रजनन दर ३.२ पाया गया। मुस्लमानों में प्रजनन दर ४.३ जबकि हिन्दुओं में प्रजनन दर ३.७ पाया गया। रिपोर्ट में सबसे बड़ी बात जो सामने आयी कि शिक्षा और आर्थिक स्तर का प्रजनन दर से सीधा रिश्ता है। अनपढ़ में प्रजनन दर ४.६, प्राइमरी और जूनियर हाई स्कूल तक शिक्षित महिलाओं में प्रजनन दर ३.३ और हाई स्कूल से अधिक शिक्षित वर्ग में प्रजनन दर २.४ पाया गया। इसी तरह वेल्थ इंडेक्स( आर्थिक स्तर) के आधार पर देखा गया तो पाया गया कि निम्न आर्थिक वर्ग में प्रजनन दर ४.६, मध्य आय वर्ग में ३.९ एवं उच्च आय वर्ग में २.३ पाया गया।    

पूर्वांचल के ८० फीसदी हैंड पम्म उगल रहे हैं जहर

इसकी नही है किसी को फिक्र
पूर्वांचल के ८० फीसदी हैंड पम्म उगल रहे हैं जहर
विज्ञानियों ने तीन जिलों के ४७८० हैंड पम्म के पानी का किया अध्ययन
कुमार संजय 
लखनऊ। बनारस , गाजीपुर और बलिया के अस्ससी फीसदी हैंड पंप पानी के साथ जहर उगल रहे हैं। इस जहर के कारण यहां के लोग या तो बीमार हो गए हैं नहीं तो बीमारी के मुहाने पर खड़े हैं। इन हैंड पंप के पानी में आर्सेनिक मानक से कई गुना अधिक आ रहा है। विज्ञानियों ने  इन जिलों के दस ब्लाक के १२२ गांव के हैंड पंप के ४७८०  के पानी में  परीक्षण करने के बाद देखा गया कि सौ गांव के हैंड के  पानी में आर्सेनिक की मात्रा १० माइक्रोग्राम प्रति लीटर से अधिक है। ६९ गांव के हैंड पम्म के पानी में  आर्सेनिक की मात्रा ५० माइक्रोग्राम प्रति लीटर से अधिक है।  विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पीने के पानी में आर्सेनिक की मात्रा ५० माइक्रोग्राम प्रति लीटर(१० पीपीएम) से अधिक नहीं होनी चाहिए।
 विज्ञानियों ने अपनी रिर्पोट जिला एवं प्रदेश के स्वास्थ्य एवं जल विभाग के अधिकारियों को सौंप दी है। शोध रिर्पोट के मुताबिक ४५.४ फीसदी हैंड के पानी में आर्सेनिक की मात्रा १० माइक्रोग्राम प्रति लीटर से अधिक और २६.५१ फीसदी में मात्रा ५० माइक्रोग्राम प्रति लीटर से अधिक पायी गई है। दस फीसदी हैंड पंप के पानी में आर्सेनिक की मात्रा ३०० माइक्रोग्राम प्रति लीटर से अधिक पायी गई यानि यह पानी लगभग जहर हो चुका है। बलिया के पांच, गाजीपुर के चार और बनारस के एक ब्लाक के गांव के हैंड पंप के पानी में आर्सेनिक अध्ययन किया गया। शोद विज्ञानियों ने देखा कि इन गांव के १५४ लोगों में आर्सेनिक का प्रभाव भी देखने को मिला। इनके त्वचा पर धब्बे, मोटा पन होने के साथ ही छोटे-छोटे दाने भी देखने को मिला। विशेषज्ञों का कहना है कि आगे चल कर इनमें त्वचा, लंग, पेट और गुर्दे के कैंसर की आशंका रहती है।   

हिन्दू और मुस्लमान के जीन में मिली समानता..यानि दोनों है एक

हिंदू मुस्लिम भाई -भाई 
प्रदेश के मुसलमानों की जीन हिंदुओं से नहीं है अलग
विश्व के तीन संस्थानों ने २४ सौ लोगों के जीन स्टडी के बाद किया खुलासा
 

 

प्रदेश के हिंदु और मुसलमान आपस में भाई-भाई हैं। अमूमन सामाजिक सौहार्द के लिए लगाये जाने वाले नारे को विज्ञानियों ने  लखनऊ, बरेली , कानपुर , रामपुर के २४ सौ  मुसलामानों और हिंदुओं पर अनुवांशिकी शोध  के बाद सही साबित किया है। विज्ञानियों ने देखा है कि  प्रदेश के  शिया,  सुन्नी  मुसलमान और हिंदओं के जीन में  कोई अंतर नहीं है।  इतना ही नहीं विज्ञानियों ने  तुलनात्मक अध्ययन भारतीय हिंदुओं, अरब देशों, सेंट्रल एशिया, नार्थ ईस्ट अफ्रीकी देशों के मुसलमानों के जीन के बीच किया तो पाया कि भारतीय मुसलमानों के जीन भारतीय हिंदुओं से पूरी तरह मेल खाते हैं। इनके जीन विदेशी  मुसलमानों से मेल नहीं खाते हैं। कहने का मतलब है कि भारतीय खास तौर पर प्रदेश के मुसलमान की जड़े यहीं है न कि किसी दूसरे मुल्क से जुड़ी है। इनके जीन में काफी समानता हिंदुओं  से है न कि अरब या किसी दूसरे देश के लोगों से मिलती है। इस तथ्य का खुलासा डिर्पाटमेंट आफ बायोलाजिकल साइंस फ्लोरिडा इंटरनेशनल विवि के डा. एमसी टेरास, डेयान रोवाल्ड , रेने जे हेरेरा, डिपार्टमेंट आफ जेनटिक्स यूनिवर्सटी डि विगो स्पेन के डा. जेवियर आर ल्यूस एवं संजय गांधी पीजीआई के अनुवांशिकी रोग विभाग की प्रो.सुरक्षा अग्रवाल एवं डा. फैजल खान ने शिया और सुन्नी मुसलमानों के जीन पर लंबे शोध के बाद किया है। इनके शोध को अमेरिकन जर्नल आफ फिजिकल एंथ्रोपालजी ने भी स्वीकार किया।
प्रो. सुरक्षा अग्रवाल के मुताबिक  मुसलमानों के साथ ब्राह्मण, कायस्थ, खत्री, वैश्य, चतुर्वेदी, भार्गव और अनसूचित जाति एवं पिछड़ी जाति के लोगों के जीन का तुलनात्मक अध्ययन किया तो पाया इन सभी जातियों के जीन आपस में एक होने के साथ ही मुसलमान के जीन से भी मिलते हैं।    

जवान बना रहना है तो खाए विटामिन सी

नहीं आएगा बुढ़ापा न होगी बीमारी
जवान बना रहना है तो खाए विटामिन सी
विटामिन सी डीएनए को रखता है जवान
कुमार संजय
लखनऊ। पुराने लोग नीबू, आंवला. संतरा जैसी प्राकिृत फलों को खूब सेवन करते थे। इससे इनको लाभ भी होता था। उनके इस नुस्खे पर मुहर लगा दिया है।  विज्ञानियों ने साबित किया है कि कैसे विटामिन सी से भरपूर खाद्य पदार्थ व्यक्ति को मजबूत बनाए रखता है। विटामिन सी डीएनए ही व्यक्ति को जवान रखता है।  विज्ञानियों ने देखा है कि डीएनए के छोर पर पाए जाने वाला टीलोमर्स के सेल में विटामिन सी का स्तर अधिक होने पर इसकी क्षति नहीं होती है। इसकी क्षति होने पर डीएनए कमजोर हो जाता है। टीलोमर्स में क्षति के साथ ही बीमारी की आशंका बढ़ जाती है। विज्ञानियों ने देखा कि टीलोमर्स सेल में विटामिन सी की मात्रा बढ़ाने से उसकी क्षति की दर बासठ फीसदी तक कम हो गयी। इस तथ्य का खुलासा अमेरिकन जर्नल आफ क्लीनिकल न्यूट्रिसन में करते हुए विज्ञानियों ने सलाह दिय है कि विटामिन सी या मल्टी विटामिन का सेवन कर तमाम तरह की बीमारियों और एजिंग प्रासेस को कम किया जा सकता है। संजय गांधी पीजीआई से शरीर प्रतिरक्षा विज्ञान में महारत हासिल करने वाले डा. स्कंध शुक्ला इस शोध का हवाला देते हुए बताते हैं कि आज के युवा और बच्चे फास्ट फूड के आगे विटामिन सी रिच डाइट का सेवन भूल गए हैं जो इनके डीएनए को कमजोर कर सकता है। टीलोमर्स एजिंग की चाभी है। इस चाभी को मजबूत रख कर एजिंग से बचा जा सकता है। देखा गया है कि जिनकी टीलोमर्स छोटा था उनमें तीन सौ फीसदी हार्ट डिजीज और आठ सौ फीसदी संक्रमण के कारण मौत हुई। इससे साबित होता है कि टीलोमर्स का सीधा रिश्ता बीमारी और एजिंग प्रासेस से हैं। विज्ञानियों के मुताबिक हर व्यक्ति को ९०(नब्बे) मिलीग्राम हर रोज विटामिन सी की जरूरत होती है। इस हिसाब से एक व्यक्ति यदि रोज दौ सौ ग्राम पपीता, दौ सौ ग्राम संतरा, दो सौ ग्राम नीबू का सेवन करता है तो उसमें विटामिन सी पूर्ति होती रहती है।  
किसमें कितना है विटामिन सी( मिली ग्राम प्रति सौ ग्राम)
पपीता- ६०(साठ)मिलीग्राम प्रति सौ ग्राम
स्ट्राबेरी- साठ   
संतरा- पचास
नीबू- चालिस
खरबूजा- चालिस
फूल गोभी- चालिस
लहसुन- तीस
आम-अठइस
पालक -तीस
टमाटर-दस
अन्नास- दस
केला- नौ
सेब- छ:

टीबी की दवा के साथ हरी चाय कम होगा साइड इफेक्ट

    हरी चाय का सत   टीबी की दवा
 
 
 अब टीबी की दवाओं का दर्द नहीं सताएगा। टीबी की दवा चलने पर कुछ समय बाद पेट में दर्द, उल्टी, मिचली, थकान और लीवर एंजाइम बढऩे की परेशानी होती है। इस परेशानी निपटने  के लिए छत्रपति साहू जी महाराज मेडिकल विवि के विज्ञानियों ने लंबे शोध के बाद कहा है यदि एटीटी( एंटी ट्यूबर कुलर ट्रीटमेंट) के साथ हरी चाय का सत (एक्सट्रेक्ट) केटकिन दिया जाए दवा का साइड इफेक्ट काफी हद तक कम हो जाता है साथ टीबी की दवाओं की कार्य शक्ति बढ़ जाती है।  कैटेचिन देने से फ्री रेडिकल का स्तर सामान्य रहता है। इनका स्तर बढऩे पर शरीर की कोशिकाओं को नुकसान होता है। विशेषज्ञों का मानना है कि एटीटी दवा चलने पर फ्री रेडिकल्स का स्तर बढ़ता है जिसे आक्सीडेटिव स्ट्रेस कहते हैं। इसी वजह से दवा के साइड इफेक्ट होते हैं। केटकिन को एडजुएंट थिरेपी के रूप में शामिल करने की सिफारिश विशेषज्ञों ने की है। इस थिरेपी के तहत टीबी की दवाओं के साथ केटकिन को भी शामिल किया जाता है।  
मेडिकल विवि के माइक्रोबायोलोजी विभाग के डा. ए अग्रवाल , डा. अंिमता जैन और चेस्ट विभाग के डा. राजेंद्र प्रसाद के इस तथ्य को फायटोमेडिसिन जरनल ने भी स्वीकार किया है। शोध विज्ञानियों ने टीबी के दौ सौ मरीज पर शोध किया। इनमें सौ मरीज को ग्रीन ट्री एक्सट्रैक्ट कैटेचिन की ५०० माइक्रोग्राम एटीटी दवा के साथ दिया और बाकी सौ मरीज को ५०० माइक्रोग्राम स्टार्च एटीटी के साथ दिया। दोनों वर्ग को मरीजों में एक और चार महीने बाद आक्सीडेटिव स्ट्रेस का अध्ययन किया तो पाया कि कैटेचिन वाले मरीजों में फ्री रेडिकल को सामान्य रहा। इनमें एंटी आक्सीडेंट एंजाइम सुपर आक्साइड डिसम्यूटेज, नाइट्रिक आक्साइड,  का स्तर स्टार्ज वाले मरीजों के मुकाबले स्तर बढ़ा हुआ पाया गया जबकि आक्सीडेटिव स्ट्रेस बढ़ाने वाला लिपिड पराक्सीडेज, कैटेलज और टोटल थायाल फ्री रेडिकल का स्तर कम हुआ।
     

दिल को दर्द से बचाती है दालचीनी

          
दिल को दर्द से बचाती है दालचीनी
क्रासर...रसायन सिनामलडीहाइड देता है दालचीनी को करामाती गुण
कुमार संजय
लखनऊ। अगर आप को दिल को बचाना है और मधुमेह से बचना है तो दालचीनी का इस्तेमाल जरा बढ़ा दें। दालचीनी में पाए जाने वाला रसायन सिनामलडीहाइड सीरम ग्लूकोज, ट्राइग्सिराइड, एलडीएल कोलेस्ट्राल एवं पूर्ण कोलस्ट्राल को कम करता है। रक्त में इनकी मात्रा बढऩे पर रक्त वाहिकाएं जाम हो जाती है जिससे हृ्दय घात की आशंका रहती है। मधुमेह के साथ दिल के बीमारी आशंका अधिक रहती है। इसलिए मधुमेह रोगियों के लिए दलाचीनी और मुफीद साबित हो सकती है।  इतना ही नहीं दालचीनी में एक प्रकार फीनाल होता है जो एंटीफंगल एवं एंटी बैक्टीरियल काम करता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि रसायन नष्ट न होने पाए इसके लिए जरूरी है कि दालचीनी का प्रयोग पाउडर के रुप में करें। जो लोग मधुमेह से ग्रस्त है उन्हे रोज एक चम्मच पाउडर का सेवन करना चाहिए। राजकीय आयुर्वेद कालेज के पूर्व प्राचार्य डा.आर.एस.यादव बताते हैं कि दालचीनी एक प्राचीनतम औषधि है जिसका उल्लेख चीनी ग्रंथों में  ४ हजार वर्ष पूर्व मिलता है। परंपरागत हर्बल उपचार में माना जाता है कि दालचीनी में एस्ट्रीजेंट,गर्म उद्दीपक, वातहर, एंटीफंगल, एंटीवायरल, रक्त शोधक और पाचक होता है। दालचीनी को मंद वातहर माना जाता है इसका इस्तेमाल मचली एवं उदयवायु में किया जा सकता है। दीलचीनी के तेल में एक विशेष प्रकार फीनाल होता है जो एंटीफंगल एवं एंटीबैक्टीरियल होता है। एक वैज्ञानिक शोध का हवाला देते हुए डा.यादव बताते हैं कि दालचीनी युक्त चुंइग गम का इस्तेमाल करने से लार में विषाणु ५० फीसदी तक कम हो जाते हैं। मुंह के विषाणु प्रोटीन के सड़ाव से वाष्पशील सल्फर यौगिक पैदा करते हैं जिससे मुंह से बदबू आती है। एग्रीकल्चर एंड फूड कमेस्ट्री जर्नल में छपी शोध रिर्पोट के मुताबिक दालचीनी में पाए जाने वाला रसायन सिनानेलडीहाइड कृषि फंगनाशक के रुप में काम करता है। इसमें तेज गंध और पर्यावरण मित्र पीड़ानाशक के गुण होते हैं जिसमें मच्छरों के लारवा मारने के गुण होते हैं। इसमें मिलने वाले रसायनों का विश्लेषण हाल में ही विज्ञानियों ने करते हुए बताया कि ट्रांस सिनामेनडीहाइड दालचीनी की छाल का प्रमुख घटक है जो इसे विशेष गंध और स्वाद पैदा करता है। दो फिनाइल प्रोपेनांएड्स सिनामेकि एल्डीहाइड एवं यूजीनोल मीथोक्सी फिनोल दालचीनी की छाल के अनिवार्य तेलों में मुख्य है। इसके अलावा फिनाल प्रोपेनांएड्स मोनो एवं सस्क्यूटरपेनेस हैं जो सूक्ष्म मात्रा में होते हैं। यही रसायन दालचीनी को दवा बनाता है।
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जड़ी बूटियों का असर साबित करने के लिए होगा उन पर शोध
लखनऊ। जड़ी बूटियों का असर साबित करने के लिए अब भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद विशेष परियोजना शुरु करेगा। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में ७० फीसदी लोग जड़ी बूटियों का इस्तेमाल करते हैं। यह पश्चिमी दवाओं के मुकाबले अधिक कारगर भी हैं। इनकों शोध के जरिए सिद्ध कर और लोगों में विश्वास बढ़ाना होगा। जड़ी बूटियों के गुणों के बारे में जानकारी का विस्तार न होने के कारण उसी व्यक्ति के साथ समाप्त हो जाता है। ऐसा न हो इसके लिए जरुरी है कि जड़ी बूटियों को औषधीय गुण का परीक्षण कर शोध पत्र प्रकाशित किए जाए जिससे लोगों का जानकारी मिले और उसका रिर्काड रहे।