बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

िबना इलाज के मरने को लोग है मजबूर


  कहा है इलाज





कुमार संजय


विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी विश्व स्वास्थ्य रिपोर्ट-2013 (युनिवर्सल हेल्थ कवरेज) में कहा है प्रतिवर्ष डेंगू, मस्तिष्क ज्वर, कालाजार, स्वाइन फ्लू, टीबी से लाखों मौतें हो जाती हैं। प्रसव के दौरान होने वाली मौतों का आंकड़ा भी चौंकाने वाला है।
 देश में हर साल केवल दस्त से ही मरने वाले बच्चों की संख्या लगभग 5 लाख है।
 तपेदिक हर साल पांच लाख लोगों की जान लेता है। एक लाख माताएं हर साल प्रसव के समय मौत का शिकार होती हैं।
पांच करोड़ अस्सी लाख मधुमेह के रोगियों के साथ भारत मधुमेह की विश्व राजधानी बनने की ओर अग्रसर है। नौ लाख से भी अधिक लोग हर साल पानी से पैदा होने वाले रोगों के कारण मौत का शिकार होते हैं।डब्लयूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार जहां देश में बीस से तीस लाख लोग एड्स जैसी महामारी का शिकार हैं। दुनिया की एक महाशक्ति बनने का दंभ भरने वाले भारत की उपलब्धियां यदि स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में देखें तो इसमें लगातार विफलता ही उसकी एकमात्र उपलब्धि कही जाएगी।
 शहरों मे प्राइवेट और निजी अस्पतालों की सुविधाएं उपलब्ध हैं लेकिन गांवों की स्थिति चिंताजनक है। देश की 73 फीसद आबादी गांवों में रहती है, फिर भी वहां उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाएं शहरों के मुकाबले 15 प्रतिशत भी नहीं हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश में 2083 लोगों पर एक चिकित्सक ओर प्रति छह हजार लोगों पर एक स्वास्थ्य सेवक उपलब्ध होना चाहिए, लेकिन 70 से 80 प्रतिशत चिकित्सक और 90 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवक शहरी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। इन केंद्रों में 62 फीसद विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49 फीसद प्रयोगशाला सहायकों और 20 फीसद फार्मासिस्टों की कमी है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार 68 फीसद देशवासी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को नहीं लेते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि यहां ठीक ढंग से इलाज नहीं होगा। सरकारी स्वास्थ्य सेवा की तुलना में अत्यधिक महंगी होने के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय निजी चिकित्सालयों की सेवा लेते हैं। इससे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की हकीकत क्या है?
भारत में प्रत्येक वर्ष करीब 15 करोड़ टीबी रोगियों की पहचान होती है और सालाना तीन लाख की मौत होती है। कुष्ठ रोगियों की संख्या 10 लाख से भी ज्यादा है, जो दुनिया के कुष्ठ रोगियों का एक तिहाई है।
 देश में 13 से 20 करोड़ ऐसे लोग हैं, जो अपना इलाज पैसे देकर करा सकने की स्थिति में नहीं हैं।
 स्वास्थ्य सेवाओं में मुनाफा ढूंढा जाने लगे, तो वहा सामाजिक और नैतिक दायित्वों की अहमियत नहीं रह जाती है। सेवा के नाम पर लगभग मुफ्त की जमीन पर खड़े पांच सितारा अस्पतालों को अब शेयर मार्केट में देख सकते हैं। इस पृष्ठभूमि मेें आम लोगों की सेहत और लोगों के स्वास्थ्य के प्रति सरकार की जवाबदेही की बात बेमानी लगती है।

, 2012 में देश भर में डेंगू के लगभग 37 हजार मामले प्रकाश में आये और देश में 216 मौतें रिकार्ड की गयी। सवा सौ करोड़ की आबादी के लिहाज ये आंकड़ा एक फीसद भी नहीं है लेकिन डेंगू और स्वाइन फ्लू का हौव्वा खड़ा करके हर साल करोड़ों-अरबों का वारा न्यारा दवा कंपनिया करती है।
पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16 फीसद की वृद्धि हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की संख्या में 66 फीसद है। इस दौरान प्रति हजार जनसंख्या पर अस्पताल में बेडों की संख्या मात्र 5.1 फीसद बढ़ी। देश में औसत बेड घनत्व (प्रति हजार जनसंख्या पर बेड की उपलब्धता) 0.86 है जो कि विश्व औसत का एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही बेड वर्ष भर खाली पड़े रहते हैं। इससे वास्तविक बेड घनत्व और भी कम हो जाता है।
1983 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने चिकित्सा क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया। इसके बाद निजी स्वास्थ्य सेवा का तेजी से विस्तार हुआ। आज देश में 15 लाख स्वास्थ्य प्रदाता हैं जिनमें से 13 लाख निजी क्षेत्र में हैं। समुचित मानक और नियम-विनिमय की कमी ने निजी स्वास्थ्य सेवा को पैर फैलाने का अवसर दिया। चूंकि निजी स्वास्थ्य सुविधाएं अधिकतर नगरीय क्षेत्रों में स्थित हैं इसलिए ग्रामीण एवं नगरीय स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई और चौड़ी हुई। महंगी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ग्रामीण वर्ग चिकित्सा खर्च के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के औसतन 41 फीसद भर्ती होने वाले और 17 फीसद वाह्य रोगी कर्ज लेकर इलाज कराते हैं। इस प्रकार ग्रामीण गरीबी का एक बड़ा कारण सरकारी चिकित्सालयों की अव्यवस्था भी है। इसके लिए चिकित्सा पाठयक्रम को भी उत्तरदायी मानते हैं। उनके अनुसार, चिकित्सा पाठयक्रमों में रोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। असल में मेडिकल शिक्षा का मुख्य बल इस बात पर रहता है कि बीमारी हो जाने पर उसका इलाज कैसे किया जाय। जो रोग गरीबी की देन हैं उनकी या तो उपेक्षा कर दी जाती है या कामचलाऊ इलाज किया जाता है। उदाहरण के लिए महिलाओं में खून की कमी या बच्चों के कुपोषण को इलाज इंजेक्शन या विटामिन की गोली से किया जाता है न कि इनके सामाजिक हालात को समझने की कोशिश।
आजादी के फौरन बाद देशवासियों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था की बात की गई। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केन्द्र, तहसील एवं जिला अस्पताल और राज्य स्तरीय स्वास्थ्य संस्थानों के नेटवर्क रूपी तर्कसंगत रेफरल व्यवस्था स्थापित करने के साथ बेहतर काम की शुरुआत हुई। तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों ने इस व्यवस्था के तहत स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में काफी हद तक सफलता भी पायी। मगर साठ का दशक आते-आते सरकारी प्रोत्साहन से निजी क्षेत्र ने अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया और नब्बे के दशक तक पंहुचते-पहुंचते सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था लगभग निष्क्रिय हो गई। हालांकि पिछली सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाकर और स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर होने वाले खर्च को तीन प्रतिशत करने की बात तो कही मगर स्थिति जस की तस बनी हुई है। तमाम दावों और आश्वासनों के बाद भी पिछले बजट में स्वास्थ्य सेवाओं पर महज 0.9 प्रतिशत ही खर्च का प्रावधान था।
जहां दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाएं अपनी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर सकल घरेलू उत्पाद का बड़ा हिस्सा खर्च करती हैं, वही सकल घरेलू उत्पाद की ऊंची वृद्धि दर का दावा करने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था का खर्च नियोजित, गैर नियोजित, सार्वजनिक, निजी, राज्य और केन्द्र सभी मिलाकर जीडीपी का पांच प्रतिशत से भी कम है। जबकि अमेरिका अपने सकल घरेलू उत्पाद का 16, फ्रांस 11 और जर्मनी 10.4 फीसद खर्च करते हैं। सोशल एक्टिविस्ट सुनील कुमार के अनुसार, निगमित विकास के इस दौर में सरकार को नागरिकों के स्वास्थ्य से अधिक चिंता बड़े निगमों के मुनाफे की है। स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था के निष्क्रिय होने पर सरकार की खामोशी उसकी बदनीयती और वर्ग चरित्र को जाहिर करती है।Ó
फिलहाल देश में स्वास्थ्य सेवाओं का व्यवसाय 360 करोड़ डॉलर प्रतिवर्ष का है और एक अनुमान के अनुसार 2012 तक उसके 700 करोड़ और 2022 तक 2800 करोड़ हो जाने की आशा है। परन्तु 360 करोड़ डॉलर के इस व्यवसाय में सरकार की भागीदारी महज 19 फीसद है जो लगातार घटती जा रही है, और इसके विपरित आम आदमी की मुसीबतें दोगुनी गति से बढ़ रही हैं।
नब्बे के दशक के बाद स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था लगातार सरकार के इसी दृष्टिकोण के कारण अव्यवस्थित एवं लचर हो रही है और इस अव्यवस्था की कीमत देश की गरीब आबादी को चुकानी पड़ रही है। चंडीगढ़ पीजीआई के डाक्टर शिव बग्गा के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं में बजट की बढ़ोतरी के अर्थ अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे बड़े संस्थान खड़े करना नहीं बल्कि बेहतर रेफरल व्यवस्था पर आधारित तीन स्तरीय स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था का निर्माण होना चाहिए। जिसमें इकाई स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केन्द्र, माध्यमिक स्तर पर जिला अस्पताल और राज्यों के स्तर आयुर्विज्ञान संस्थान सरीखी सुविधाओं की व्यवस्था हो। अन्यथा मरीजो के बोझ से दबे एम्स, पीजीआई और बढ़ते महंगे निजी अस्पतालो के बीच देश बीमार लोगो की वैश्विक राजधानी बनकर रह जाएगा।’

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