शनिवार, 31 अक्टूबर 2020

विश्व फीटस डे मृत शिशु का जंम रोकने में कारगर साबित होगा भ्रूण सुरक्षा

 

विश्व फीटस डे पर वेबीनार

 

मृत शिशु का जंम रोकने में कारगर साबित होगा भ्रूण सुरक्षा

भारत में सबसे अधिक होका है मृत शिशु का जंम

पूरे विश्व में रोज 7177 मृत शिशु का जंम होता है जिसमें अकेले भारत में 1622 मृत शिशु का जंम होता है जो विश्व में सबसे अधिक है। गर्भ में शिशु का मृत्यु रोकने के लिए गर्भधारण से लेकर जंम लेने कर हर कदम पर भ्रूण की निगरानी करनी होगी। विश्व फीटस डे पर आयोजित वेबीनार में संजय गांधी पीजीआइ के मैटर्नल एंड रिप्रोडेक्टिव विभाग की प्रमुख एवं फडरनेशन आफ आब्सेट्रेक्टिव एंड गायनकोलाजी के जेनटिक्स एंड फीटल मेडिसिन की चेयरपर्सन प्रो. मंदाकनी प्रधान ने कहा सुरक्षित शिशु के जंम के लिए पांच स्टेप पर निगरानी जरूरी है। हर स्टेप पर भ्रूण की देख –रेख के लिए संसाधन के साथ ही लोगों में जागरूकता की जरूरत है। प्रो.नीता सिंह कहती है कि शिशु डाउन सिंड्रोम, रीढ़ ही हड्डी में विकृति सहित अन्य किसी बीमारी के साथ शिशु पैदा होता है तो वह परिवार के लिए बडी चुनौती खडी करता है। शिशु का जीवन तो तबाह होता ही है साथ की मां –पिता के लिए हर समय ध्यान देना होता है। इसी तरह हाई रिस्क प्रिगनेंसी है तो भी गर्भ धारण के बाद तमाम तरह की परेशानी आती है। इन सब से बचने के लिए जरूरी है भ्रूण की सुरक्षा के पांचों स्टेप का पालन किया जाए। इस मौके पर फाग्सी के अध्यक्ष डा. अल्पेश , सचिव डा. जयदीप के अलावा डा. मानसी सहित अन्य लोगों ने जानकारी दी। वेबीनार में देश भर के स्त्री रोग विशेषज्ञों ने भाग लिया।

 

क्या पांच स्टेप

-   प्लान मी- गर्भधारण करने से पहले डाक्टरी सलाह

-   स्क्रीन अर्ली- गर्भधारण करने के पहले तीन महीने जांच

-   डायग्नोस टाइमली- भ्रूण में बीमारी या खराबी का पता लगना

-   ट्रीट मी- गर्भस्थ शिशु में इलाज ( फीटल थेरेपी)

-   होल्ड मी- सुरक्षित प्रसव 



अंग दान को बढावा देने के लिए चलेगा जागरूकता अभियान- सोटो

 


सोटो का वेबीनार

अंग दान को बढावा देने के लिए चलेगा जागरूकता अभियान

प्रदेश के 40 हजार किडनी ट्रांसप्लांट के लिए कर रहे है इंतजार

 

किडनी खराबी के अंतिम स्टेज में ट्रांसप्लांट ही एक उपाय है जिसके लिए  प्रदेश के लगभग 40 हजार लोग ट्रांसप्लांट के लिए इंतजार कर रहे है किसी पास डोनर है तो राहत की बात है लेकिन जिनके पास डोनर नहीं है उनके लिए उम्मीद की किरण भी धुँधली है। संजय गांधी पीजीआई के नेफ्रोलाजी विभाग के प्रमुख प्रो.नरायन प्रसाद ने स्टेट आर्गान एंड टिशू ट्रांसप्लांट ऑर्गनाइजेशन के वेबीनार में कहा कि कैडेवरिक ट्रांसप्लांट को बढावा दिए बिना किडनी की जरूरत पूरी करना संभव नहीं है। ट्रांसप्लांट के लिए इंजतार करने तक के लिए डायलसिस की जरूरत है लेकिन प्रदेश में केवल 1600 डायलिस स्टेशन ( मशीन) है जिसके कारण लोगों को डायलसिस के लिए भी इंतजार करना पड़ रहा है। संसाधन बढाने की जरूरत है। निदेशक प्रो.आरके धीमन ने बताया कि  सोटो के जरिए कैडवरिक ट्रांसप्लांट को बढावा मिलने की उम्मीद है। इसके तहत प्रदेश के 26 सरकारी और निजि अस्पतालों को जोड़ा जाएगा। चिकित्सा शिक्षा मंत्री सुरेश खन्ना ने संदेश में कहा कि  अंग प्रत्यारोपण विशेष सेवा जिसके जरिए लोगों को जीवन दे सकते हैं। प्रदेश में अंगदान हो रहा है जिसे बढावा देने के लिए विशेष रूप से योजना तैयार की गयी है। चिकित्सा शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव डा. रजनीश दूबे ने कहा कि अंग प्रत्यारोपण के मामले में उत्तर भारत पीछे है । इस कमी को पूरा करने में सोटो का अहम योगदान होगा। विशेषज्ञों ने बताया कि लिवर ट्रांसप्लांट अभी प्रदेश के किसी अस्पताल में नहीं हो रहा है पीजीआई ने शुरू किया था लेकिन अभी रुका हुआ है जिसे जल्दी शुरू किया जाएगा।    

 

    सोटो के गठन के बाद प्रदेश में अंगों की उपलब्धता के बारे में एक जगह सारी जानकारी मिलेगी। ब्रेन डेड लोगो के परिवार के लोगों को अंग दान के प्रेरित किया जाएगा । मृत्यु के बाद अंगदान के लिए जो लोग सहमति दिए होंगे इसका पूरा विवरण होगा। उनके ड्राइविंग लाइसेंस से लिंक होगा जिससे जनकारी तुरंत ट्रांसप्लांट सेंटर के मिलेगी..  नोडल आफीसर एवं अस्पताल प्रशासन विभाग के प्रमुख प्रो.राजेश हर्ष वर्धन


शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2020

रक्तदाब नपवाने के पहले पांच मिनट शांती से बैठे

 




रक्तदाब नपवाने के पहले पांच

मिनट शांती से बैठे

99 फीसदी लोगों में रक्तदाब

बढ़ने पर नहीं होती परेशानी

लखनऊ। कुमार संजय  

99 फीसदी लोगों में उच्च रक्त चाप का

कोई लक्षण नहीं होता है। इसलिए

साल में दो बार रक्तदाब नपवाते

रहना चाहिए। इसी लिए रक्तदाब को

साइलेंट किलर के रूप में जाना

जाता है। कई बार सिर सिर दर्द,

चक्कर आने पर जब रक्तदाब नपवाते

हैं तब पता चलता कि रक्तदाब बढ़ा

हुआ है। उच्च रक्तचाप से प्रति

लोगों को जागरूक करने के लिए इस

साल के विश्व स्वास्थ्य दिवस को उच्च

रक्तचाप दिवस के रूप में मनाया जा

रहा है। संजय गांधी पीजीआई के

हृदय रोग विशेषज्ञ प्रो.सुदीप के

मुताबिक रक्तदाब नपवाने के लिए तय

मानक है। जब भी रक्तदाब नापा

जाएं कम से पांच मिनट पीठ टेक कर

शांती से बैठने के बाद ही रक्तदाब

नपवाए। रक्तदाब नपवाने के दौरान

बात-चीत न करे तभी सही रक्तदाब

का पता लगता है। चल कर आने के

तुरंत बाद रक्तदाब बढ़ा हुआ

मिलता है।  यदि एक बार रक्तदाब 140 ।

90 मिमीपारा है तो दो हफ्ते तक कम


से तीन बार रक्तदाब मानक के अनुरूप

नपवाए । इस दौरान भी बढ़ा है तो

डाक्टर से संर्पक करें।

रक्तदाब नपवाने के मानक

-  एक घंटे पहले से चाय. काफी,

सिगरेट और तंबाकू का सेवन बंद

करें

- सर्दी , जुकाम की  दवा न चल रही हो

- पेशाब और लेट्रिन न लगा हो

- शांत और सामान्य वातावरण  हो

- कपड़े ढीले पहने हो

- किसी तरह का तनाव न हो

- बांह के घेरे के अनुसार ही नापने

वाले मशीन  का कफ(पट्टा) हो ,कफ

साइज गलत है रक्तदाब बढ़ा हुआ

दिखेगा।

तीन साल से अधिक उम्र के बच्चे के भी

रक्तदाब की करें निगरानी

संजय गांधी पीजीआई की बाल रोग

विशेषज्ञा डा. पयाली भाट्टाचार्या ने

बताया कि तीन साल उम्र के बच्चे का

रक्तदाब 90।50 होता है। रक्तदाब का

 उम्र के साथ रिश्ता है। उम्र बढ़ने के

साथ रक्तदाब में बदलाव आता है। उम्र

के साथ रक्तदाब मैच न करने पर माना

जाता है कि बच्चे में उच्चरक्ता चाप की


परेशानी है। 120।80 रक्तदाब 14 साल की

उम्र के बाद होता है। दो से तीन फीसदी

बच्चों में उच्चरक्तचाप की परेशानी देखी

गयी है।

बिना दवा के भी ठीक होता है

उच्चरक्तचाप

   उपाय                      

कितना                                         कितना कम होगा

रक्तदाब

नमक कम करने                आधा ग्राम

रोज                                                           5.8।  2.5 

वजन कम करने                  4.5

किलो                                                            7.2। 5.9

शराब बंद करना    2.7 ड्रिक

रोज                                                                 4.6। 2.3 

कसरत                           30 से 45 मिनट हफ्ते

तीन                                                                        10.3। 7.5

आहार                            डाक्टर द्वारा

तय                                                                               11.4। 5.5 

 

इस बीमारियों से निपटना आप के हाथ

-स्ट्रोक, हृदयघात, एम्यूरिज्म. किडनी

फेल्योर के 50 से 60 मामलों में उच्चरक्त

चाप जिम्मेदार है। लाइप स्टाइल बदल

कर र्तचाप को सामान्य रख सकते हैं।

- डायबटीज टाइप टू के 70 फीसदी


मामलों में कारण मोटापा है। लाइफ

स्टाउल में बदलाव ला कर रोका जा

सकता है शुगर पर कंट्रोल रख कर

इसके कारण होने बीमारी किडनी

फेल्योर, हार्ट एटैक, पैर में घाव

सहित अन्य से बच सकते हैं। 

- डायरिया के 50 से 60 फीसदी मामलों

में दूषित खाना और पानी है। साफ पानी

,ताजा भोजन कर और खानेे पहले हाथ

धुल कर  बचा जा सकता है।  

. रोज तीन से चार लीटर पानी पीकर

शरीर की कोशिकाओं का संचालन सही

तरीके से कर सकते हैं

एेसा नहीं एक दिन में हार्ट फेल्योर की स्थित अाती है इसी शुरूअात 10 से 15 साल पहले हो जाती है।

 

हार्ट फेल्योर होने पर दवाअों से मिल सकती थोडी राहत
इको जांच से तलता है हार्ट की पंपिंग का पता
मोटापा, डायबटीज अौर ब्लड प्रेशर पर रखें नजर 


उच्च रक्तचाप, मोटापा अौर डायबटीज के कारण हार्ट फेल्योर के मामले बढ रहे है। एेसा नहीं एक दिन में हार्ट फेल्योर की स्थित अाती है इसी शुरूअात 10 से 15 साल पहले हो जाती है। समय पर इलाज शुरू हो जाए तो हार्ट को कुछ हद तक बचाया जा सकता है। संजय गांधी पीजीआइ में हार्ट ट्रांसप्लांट पर अायोजित सीएमई में हार्ट सर्जन प्रो.गौरंग मजूमदार अौर हृदय रोग विशेषज्ञ प्रो.सुदीप कुमार ने बताया कि हार्ट पांच से 6 लीटर खून पंप करता है। इन परेशानी के वजह से हार्ट को अधिक पंप करना पड़ता है जिसके कारण हार्ट की मांसपेशियां मोटी हो जाती है। मांसपेशियों का लचीला पन कम हो जाता है जिससे पंप शक्ति कम हो जाती है। समय से कमजोर होने की जनाकारी मिल जाए तो हार्ट रेट कंट्रोल करने के लिए बीटा ब्लाकर , हार्ट की अाकार को कम करने के लिए ( री माडलिंग) एसीई( एंजियो टेनसिन कनवर्टिंग इन हैबिटर) के साथ शरीर में जमा पानी को निकलाने के लिए डाइयूरेटिक्स दवाएं दी जाती है। इससे 90 फीसदी तक मरीज स्थित ठीक हो सकती है। बताया कि हार्ट का इंजेक्शन फंक्सन 60 फीसदी तक है तो ठीक माना जाता है । तीस फीसदी होन पर हार्ट फेल्योर माना जाता है। हम लोगों के पास मरीज हार्ट की खराब स्थित में अाते है एेसे में दवा से इलाज का अाप्सन कम रहता है। बताया कि इको से हार्ट की पंपिग का पता लगता है। 


सर्जन की कमी

संस्थान के हृदय शल्य चिकित्सा विभाग के प्रमुख प्रो. निर्मल गुप्ता ने कहा कि देश में केवल 18 सौ हार्ट सर्जन है। इस विशेषज्ञता में डाक्टर कम अा रहे है क्योंकि मेहनत अधिक है अौर सेलरी उतनी ही मिलनी है जितनी पैथोलाजिस्ट अौर माइक्रोबायलोजिस्ट को मिलनी है एेसे में लोग अाराम वाले विशेषज्ञता में जा रहे है । देश में सर्जन की कमी के कारण सरकारी अस्पतालों में लंबी भीड़ है अौर सामान्य व्यक्ति निजि अस्पताल में खर्च नहीं सह पाता है एेसे में तमाम लोग दिल का इलाज नहीं करा पा रहे है। 

इस साल ही पीजीआइ हार्ट ट्रासप्लांट बनेगा गवाह

 इस साल ही पीजीआइ हार्ट ट्रासप्लांट बनेगा गवाह



हार्ट ट्रांसप्लांट की तैयारी पूरी मरीज की स्क्रीनिंग शुरू

मेडिकल विवि से मिलेगा कैडेवर हार्ट

जागरणसंवाददाता। लखनऊ

सब कुछ प्लानिंग के अनुसार ठीक -ठाक चलता रहा तो वर्ष 2017 में जुलाई के बाद किसी भी संजय गांधी पीजीआइ हृदय प्रत्यारोपण का गवाह बनेगा। संस्थान के हृदय शल्य चिकित्सक प्रो.एसके अग्रवाल, प्रो.शांतनु पाण्डेय अौर प्रो.गौरंग मजूमदार ने संस्थान में अायोजित विभाग के स्थापना दिवस पर सीेएमई में कहा कि हम पूरी तैयारी कर लिए संस्थान से हृदय रोग विशेषज्ञ, सर्जन सहित अन्य विशेषज्ञों वाली 15 लोगों की टीम तैयार है। हम लोग इसी महीने से हार्ट फेल्योर अोपीडी शुरू करने जा रहे है जिसमें हृदय रोग विशेषज्ञ अौर हृदय सर्जन मिल कर एेसे मरीजों की स्क्रीनिंग करेंगे जिनमें हार्ट ट्रांसप्लांट संभव है। इनकी लिस्ट बनाने के बाद इनमें सारी जांचे कर इनको ट्रांसप्लांट के लिए तैयार रखा जाएगा। मेडिकल विवि से कैडेवर हार्ट मिलते ही हार्ट ट्रांसप्लांट किया जाएगा। हम लोगों की मेडिकल विवि से लगातार कैडेवर को लेकर बात चल रही है। प्रो.अग्रवाल ने बताया कि प्लानिंग थी कि ब्रेन डेड मरीज को अपने अोटी में शिफ्ट कर हार्ट लिया जाए लेकिन यह संभव नहीं हो पा रहा है एेसे में कैडेवर से हार्ट मेडिकल विवि में निकाल कर ग्रीन कैरीडोर के जरिए पीजीआई शिफ्ट कर हार्ट लगाया जाएगा। विशेषज्ञों ने बताया कि हम लोगों के पास एक अोटी तैयार हो गयी है। अाईसीयू भी मिलने वाला है। संस्थान के पहले ही हार्ट ट्रांसप्लांट के लिए अनुमति मिल चुकी है। हम लोग 10 से 12 लाख में हार्ट ट्रांसप्लांट करेंगे जबकि निजि क्षेत्र में यह 25 से 30 लाख में हो रहा है। 

लिवर अौर किडनी की तरह रिजेक्शन की अाशंका
प्रो.गौरंग मजूमदार ने बताया कि किडनी अौर लिवर की तरह हार्ट में ट्रांसप्लांट के बाद रिजेक्शन की अाशंका अधिक रहती है। इससे बचाने के लिए पोस्ट सर्जरी फालोअप की जरूरत है। हम लोग हार्ट की बायोप्सी कर हार्ट की कोशिकाअों में पैथोलाजिस्ट देखते है। कोशिका में लिम्फोसाइट, ल्यूकोसाइट सेल की संख्या बढने का मतलब है कि शरीर प्रत्यारोपित हार्ट को स्वीकार नहीं कर रहा है। एेसे में इम्यूनोसप्रेसिव दवाअों के जरिए रिजेक्शन कम करने की कोशिश होती है। बताया कि हार्ट रिजेक्शन रेट सात से अाठ फीसदी तक होता है । 


कृत्रिम हार्ट के लिए सरकार से मिले सहयोग

प्रो.एसके अग्रवाल अौर प्रो.शातनु पाण्डेय ने कहा कि हार्ट फेल्योर होने पर हार्ट ट्रांसप्लांट न होने तक की दशा में हार्ट के सपोर्ट के लिए वेंट्रीकल असिस्टेड डिवाइस(वीएडी) सीने नीचे लगा कर दिल से जोडा जाता है जिससे हार्ट की पंपिग ठीक रहती है। इस वीएडी के जरिए भी पांच से दस साल सामान्य जिंदगी मिल जाती है लेकिन यह डिवाइस की कीमत 75 लाख है जिसके कारण सामान्य व्यकित् इसे नही लगवा पाता है। सरकार जैसे अन्य बीमारियों के इलाज के लिए पैसा देती है वैसे ही वीएडी के लिए भी पैसा देना चाहिए। प्रदेश में हर साल एक हजार लोगों में इसकी जरूरत है। महंगा होने के कारण अाज पीजीआई में किसी भी मरीज यह डिवाइस नहीं लग पाया है। 


20 से 25 पीसदी में हार्ट फेल्योर

संस्थान के कार्डियोलाजिस्ट प्रो.अादित्य कपूर अौर प्रो.सत्येंद्र तिवारी ने बताया कि हम लोगों के पास अाने वाले कुल मरीजों में से 20 से 25 में हार्ट फेल्योर की परेशानी होती है। इनमें रूहमेटिक वाल्व डिजीज, रक्त वाहिका में रूकावट अौर कार्डियक मायोपैथी की परेशानी के कारण हार्ट फेल्योर होता है। इस स्थित में हार्ट की मांसपेशियां कमजोर हो जाती है है जिसके कारण हार्ट की पंपिग शक्ति कम हो जाता है। इसके कारण किडनी, लिवर सहित दूसरे अंग भी प्रभावित हो सकते है क्योंकि हार्ट ही पूरे शरीर में रक्त का संचार करता है। हार्ट फेल्योर की स्थित सांस फूलने लगती है। चलना फिरना तक संभव नहीं होता है। इको जांच से हार्ट फेल्योर की स्थित का पता लगता है। 







गुरुवार, 29 अक्टूबर 2020

थ्रम्बोसिस ग्रस्त कोरोना मरीजों में कारगर साबित हो रही है कंबीनेशन थेरेपी



 




थ्रम्बोसिस ग्रस्त कोरोना मरीजों में कारगर साबित हो रही है कंबीनेशन थेरेपी

ब्रेन स्ट्रोक की  साथ इम्यून सप्रेसिव दवाएं साबित हो रही है कारगर

 एंटी थ्रम्बोसिस दवा का पांच फीसदी में नहीं दिखा असर

 

नए मरीजों में देखते है थ्रम्बोसिस फैक्टर

 

कुमार संजय। लखनऊ

 

कोरोना के गंभीर मामलों में  फेफड़े में थ्रम्बोसिस होने पर सामान्य दवाओं का असर न होने पर कंबीनेशन थेरेपी कारगर साबित हो रही है। इस थिपेरी के तहत एंटी थ्रम्बोसिस दवा की मात्रा बढाने के साथ ही साथइम्यून सप्रेसिव दवाब्रेन स्ट्रोक में दी जाने वाली दवा टीपीए के साथ अन्य दवाओं का कंबीनेशनल दिया जा रहा है। इससे थ्रम्बोसिस से निपटने में कामयाबी मिल रही है। संजय गांधी पीजीआई के पल्मोनरी मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर एवं कोरोना आसीयू एक्पर्ट जिया हाशिम के मुताबिक  

कोरोना संक्रमण के बाद स्थित बिगड़ने पर सांस लेने में परेशानी होती है जिसके लिए निमोनिया सबसे बडा कारण है लेकिन 25 फीसदी ऐसे मरीजों में कारण थ्रम्बोसिस होता है। फेफडे सूक्ष्म रक्त वाहिकाओं में थ्रम्बोसिस ( रक्त के थक्के) के कारण सांस लेने में परेशानी होती है। प्रो.जिया हाशिम ने अपने दौ सौ मरीजों के अनुभव के आधार पर कहते है कि हमारे पास रिफर कोरोना संक्रमित ऐसे मरीज आते है जिन्हे आईसीयू केयर की जरूरत होती है । यह लोग पहले ऐंटी थ्रम्बोसिस दवा पर होते है लेकिन हमने देखा कि एंटी थ्रम्बोसिस दवा के बाद भी 2.5 से 5 फीसदी में दवा का असर नहीं होता है । इसके पीछे कारण यह है कि थ्रम्बोसिस करने वाले रसायन का स्तर काफी अधिक होता है जिसके कारण दवा असर नहीं करती है। शोध में देखा गया है कि 25 फीसदी कोरोना संक्रमित मरीजों में थ्रम्बोसिस की परेशानी होती है। आइसोशलन में रहने वाले सभी मरीजों में थ्रम्बोसिस की स्थित जानने के लिए रूटीन तौर पर चेस्ट एक्स-रे के साथ फाइब्रोनोजिनएफडीपीएपीटीटीडी डाइमर की जांच रूटीन के तौर पर कराते है लेकिन आईसीयू में आने वाले मरीज में पहले एंटी थ्रम्बोसिस दवा चल रही होती है तो मार्कर निगेटिव आते है हां एहतियात के तौर पर परेशानी के आधार पर तुरंत की स्थित देखते है।

 

 

 

क्या है  थ्रम्बोसिस

 

 रक्त वाहिकाओं में रक्त के थक्कों के बनने को कहा जाता है जो शरीर की संचार प्रणाली के माध्यम से रक्त प्रवाह को रोकने का काम करता है। कुछ मामलों में कम या बाधित रक्त प्रवाह कुछ रोगियों की नसों में रक्त के थक्कों को विकसित करने का खतरा बढ़ा देता है जिसके कारण संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। यह उन व्यक्तियों के लिए घातक साबित हो सकता हैजो पहले से ही डायबिटीज़ से पीड़ित हैं।


दवा और इंटरवेशन से कम हो सकती है ब्रेन स्ट्रोक के कारण होने वाली परेशानी


 विश्व ब्रेन स्ट्रोक जागरूकता दिवस आज

दवा और इंटरवेशन से कम हो सकती है ब्रेन स्ट्रोक के कारण होने वाली परेशानी

 

दो फीसदी से कम लोग ही गोल्डन आवर में पहंचते है विशेषज्ञ के पास


कुमार संजय। लखनऊ

ब्रेन स्ट्रोक पड़ने में दो से तीन घंटे के अंदर सही इलाज मिल जाए तो मरीजों को ब्रेन स्ट्रोक के कारण होने वाली परेशानी से बचाया जा सकता है। इसके लिए इलाज की दो तकनीक है। ब्रेन स्ट्रोक के बाद तुरंत सीटी स्कैन कर इलाज की दिशा तय की जाती है। ब्रेन इंटरवेंशन रेडियोलाजिस्ट प्रो.विवेक सिंह कहते है कि दो तरह के स्ट्रोक होने है जिसे हिमैरजिक और इस्केमिक के नाम से जाना जाता है दो ब्रेन स्ट्रोक में इंटरवेंशन की अहम भूमिका है। 30 से 40 फीसदी में इंटरवेंशन के जरिए परेशानी को कम किया जा सकता है। इस्केमिक स्ट्रोक जिसमें रक्त वाहिका में थक्का बन जाता है जिसके कारण नस फट जाती है इसमें स्ट्रोक पड़ने के दो से तीन घंटे के अंदर थक्के के निकाल देते है। इसके लिए जरूरी है कि मरीज दो घंटे अंदर पहुंच जाए। हिमैरजिक स्ट्रोक में इसमें नस में एन्यूरिज्म ( गुब्बारा) बन जाता है जिसमें हम लोग क्वायल( छल्ला) डाल कर रक्त स्राव को रोकते है। देखा गया है कि ब्रेन स्ट्रोक पड़ने के एक से दो फीसदी लोग ही गोल्डन आवर में विशेषज्ञ के पास पहुंच पाते है।

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चार घंटे के अंदर टीपीए देने  से कम होता ब्रेन को नुकसान

संस्थान के न्यूरोलाजी विभाग की प्रो, रूचिका टंडन कहती है कि स्ट्रोक पड़ने के पहले चार घंटे काफी अहम है। चार से 4.5 घंटे के अंदर मरीज को यदि आरटीपीए( टिशू प्लाजमीनजेन एक्टीवेटर) रसायन दी जाए तो उसे ब्रेन स्ट्रोक के कारण होने वाली तमाम परेशानी से बचाया जा सकता है। इमरजेंसी में यदि मरीज को तीन से 3.5 घंटे के अंदर लाया जाता है तो इमरजेंसी में तैनात डाक्टर न्यूरोलाजी के विशेषज्ञों से संर्पक कर सीटी स्कैन कराने के बाद तुंरत दवा दी जाती है। यह रसायन केवल इस्केमिक स्ट्रोक में ही कारगर है। देश में हर साल एक लाख लोगों मे से 73 लोग ब्रेन स्ट्रोक का शिकार होते हैं।

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70 फीसदी मे होता है इस्केमिक स्ट्रोक

 ब्रेन स्ट्रोक के शिकार 70 फीसदी लोगों में इस्केमिक स्ट्रोक होता है बाकी ब्रेन हैमरेज कारण हिमैरजिक होता है।  ब्रेन स्ट्रोक का शिकार होने वाले 40 फीसदी लोग की उम्र चालिस से कम होती है। चालिस फीसदी लोगों में स्ट्रोक का कारण उच्च रक्तचाप और 17 फीसदी लोगों में कोलेस्ट्राल का बड़ा स्तर होता है। स्मोकिंग और एल्कोहल भी स्ट्रोक का बड़ा कारण है।

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यह परेशानी तो सावधान

चेहरा एक तरफ लटके

एक हाथ में बल न लगना

बोलने में लड़खड़ाहट

-सिर में तेज दर्द

एक दम से देखने में एक या दोनों आंख में परेशानी

एक दम से चक्कर 

पीजीआई---आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस करेगा अल्सरेटिव कोलाइटिस के इलाज की भविष्यवाणी

 देश का पहला एआई माडल पीजीआई ने किय़ा विकसित

 






आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस करेगा अल्सरेटिव कोलाइटिस के इलाज की भविष्यवाणी

 

गंभीर अल्सरेटिव कोलाइटिस के मरीजों की बचेगी जिंदगी

 

 

 

 कुमार संजय। लखनऊ

 

आर्टीफिशयल इंटेलीजेंस( एआई) के जरिए पेट की बीमारी गंभीर अल्सरेटिव कोलाइटिस के मरीजों में बताना संभव होगा कि किस मरीज में कौन सा इलाज कारगर होगा। एआई मैथमेटिकल माडल संजय गांधी पीजीआइ के गैस्ट्रोइंट्रोलाजिस्ट प्रो.यूसी घोषाल ने तैयार किया है। इस माडल का उन्होंने 131 मरीजों में सफल परीक्षण भी किया है। 12 साल के लंबे शोध के बाद  यह देश का पहला एआई माडल है जो अल्सरेटिव कोलाइटिस मरीजों में बताएगा कि कौन सी दवा से इलाज संभव होगा। प्रो.घोषाल के मुताबिक  अल्सरेटिव कोलाइटिस के गंभीर मरीज रक्त युक्त मल और 10 से 12 बार मल जाने की परेशानी लेकर आते है ऐसे में इनमें कई तरह का खतरा हो सकता है। ऐसे मरीजों में इलाज की दिशा तय करना काफी जटिल काम होता है। देखा गया है कि 10 फीसदी इन मरीजों में प्रचलित इम्यूनो सप्रेसिव ट्रीटमेंट कारगर नहीं होता है ऐसे मरीजों में बायोलाजिकल दवाएँ देनी होती है। कई बार यह दवाएँ भी कारगर नहीं होती है इनमें तुरंत सर्जरी करनी होती है जिसके लिए  सर्जन को तैयार करने के साथ मरीज के तीमारदार को भी मानसिक रूप से तैयार करना होता है। किस मरीज में कौन सा इलाज कारगर होगा इसका पता तुरंत लग जाए तो बिना समय गवांए इलाज की दिशा तय कर राहत पहुंचायी जा सकती है। इसके लिए एआई बेस्ड मैथमेटिकल प्रोग्राम माडल तैयार किया है । इस शोध के जर्नल आफ गैस्ट्रो इंट्रोलाजी एंड हिपैटोलाजी ने स्वीकार किया है। 

 

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कैसे काम करता है माडल

 

मैथमेडिकल माडल में एलब्यूमिन का स्तर हीमोग्लोबीन का स्तर प्लेटलेट्स की संख्या सहित 25 पैरामीटर इंटर किया जाता है जिसके बाद माडल बता देता है कि कौन सा ट्रीटमेंट कारगर होगा।

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लिवर सिरोसिस में भी  दिया था देश का पहला एआई माडल

 

प्रो. घोषाल ने 2003 में जब वह कोलकत्ता में थे जब देश एआई माडल लिवर सिरोसिस पर तैयार किया था जिसमें बताया जा सकता था किस मरीज में तुरंत लिवर ट्रांसप्लांट की जरूरत है किसमें कुछ समय इंतजार किया जा सकता है। इस शोध को जर्नल आफ गैस्ट्रोइंट्रोलाजी एंड हिपैटोलाजी ने स्वीकार किया था।

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020

लक्षण से लगेगा कितनी है वेंटीलेटर की जरूरत ----आप खुद लगा सकते है कितनी गंभीर है परेशानी

 


कोरोना संक्रमित के लक्षण से लगेगा कितनी है वेंटीलेटर की जरूरत

 

 

 

1653 कोरोना संक्रमित मरीजों पर शोध के आधार मिला यह संकेत

 

 

 

 

 

कुमार संजय़ । लखनऊ

 

 

 

कोरोना संक्रमित किस मरीज को वेंटीलेटर की जरूरत पड़ सकती है इसका अंदाजा अब लक्षण के आधार पर लगना संभव होगा। विशेषज्ञों ने देखा है कि  फ्लू की तरह लक्षण( सिर दर्द, सुंगध में कमी, मांसपेशियों में दर्द, कफ , गले में खरास, सीने में दर्द) की परेशानी लेकिन बुखार नहीं है तो इन संक्रमित मरीजों में वेंटीलेटर की जरूरत काफी कम पड़ती है। इन लक्षणों वाले केवल 1.5 फीसदी  मरीजों वेंटीलेटर या आक्सीजन सपोर्ट की जरूर पड़ती है।  ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के शोध सिम्पटम कल्सटर इन कोविड -19 ए पोटेंशियल क्लीनिकल प्रिडिक्शन ट्यूल फ्रमा द कोविड सिम्पटम स्टडी एप के हवाला देते हुए विशेषज्ञों का कहना है कि इन लक्षण के आधार पर मरीजों को विशेष एहतियात बरतने की जरूरत है। विज्ञानियों ने कोरोना पीड़ितों को उनके लक्षणों के मुताबिक, अलग-अलग 6 ग्रुप में रखकर शोध किया  लक्षणों के आधार पर बताया इन्हें वेंटिलेटर की कितनी जरूरत पड़ेगी। अगर लक्षणों के आधार पर इस बात को समझ लें तो मरीज की हालत नाजुक होने से रोका जा सकता है। शोध कोरोना संक्रमित 1653 मरीजों पर किया गया है। गंभीर स्तर तीन और पेट , सांस लेने में परेशानी( सिर दर्द, सुगंध और भूख में कमीष कफ, बुखार, गले में खरास, चेस्ट पेन, थकान , कंफ्यूजन, मांस पेशियों में दर्द, सांस लेने में परेशानी, डायरिया, पेट में दर्द) के मरीजों में सबसे अधिक वेंटीलेटर की जरूरत पड़ी। संजय गांधी पीजीआइ के आईसीयू एक्सपर्ट प्रो. जिया हाशिम और डा. अनिल गंगवार कहते है कि लक्षण पर नजर रखना बहुत जरूरी है यदि लंभीर लेवन थ्री के लक्षण है तो ट्रीट मेंट की विशेष प्लानिंग की जरूरत होती है। 

 

 

यह 6 लक्षण वर्ग के मरीज

 

1.     फ्लू के लक्षण लेकिन बुखार नही( सिर दर्द, सुगंध में कमी, मासपेशियों में दर्द, कफ, गले में खरास, सीने में दर्द )

 

2.     फ्लू के लक्षण और साथ में बुखार( सिर दर्द, सुगंध में कमी, गले में खरास, भूख में कमी)

 

3.     पेट की परेशानी( सिर दर्द, सुगंध में कमी, भूख में कमी, डायरिया, गले में खरास, चेस्ट पेन लेकिन कफ नहीं)

 

4.     गंभीर स्तर एक और थकना( सिर दर्द, सुगंध में कमी, कफ , फीवर,सीने में दर्द, थकान

 

5.     गंभीर स्तर दो और कंफ्यूजन( सिर दर्द, भूख में कमी, सुगंध में कमी, कफ, बुखार,गले में खरास, चेस्ट पेन, थकान, मासपेशियों में दर्द, कंफ्यूजन

 

6.     गंभीर स्तर तीन और पेट , सांस लेने में परेशानी( सिर दर्द, सुगंध और भूख में कमीष कफ, बुखार, गले में खरास, चेस्ट पेन, थकान , कंफ्यूजन, मांस पेशियों में दर्द, सांस लेने में परेशानी, डायरिया, पेट में दर्द)

 

 

 

 

 

 

 

ग्रुप 1 : इस ग्रुप में रहे मरीजों में अपर रेस्पिरेटरी ट्रैक्ट से जुड़े लक्षण दिखे। जैसे लगातार खांसी और शरीर का दर्द। इस ग्रुप में से सिर्फ 1.5% मरीजों को ही वेंटिलेटर सपोर्ट की जरूरत पड़ी। 16% मरीजों को एक या उससे ज्यादा बार ही अस्पताल जाने की नौबत आई।

 

 

 

ग्रुप 2: यह ग्रुप मरीजों को भी अपर रेस्पिरेटरी ट्रैक्ट यानी की सांस की नली के ऊपरी हिस्से में तकलीफ थी लेकिन उन्हें बुखार आता था और खानापान भी सामान्य नहीं था। ऐसे 4.4% मरीजों को वेंटिलेटर सपोर्ट की जरुरत पड़ी थी और 17.5% लोगों को अस्पताल जाना पड़ा था।

 

ग्रुप 3: इस ग्रुप में मरीजों को अन्य लक्षणों के साथ साथ डायरिया जैसी गेस्ट्रोइंटेस्टाइनल यानी की पेट की बीमारी देखी गई थी। ऐसे 3.7% मरीजों को वेंटिलेटर सपोर्ट की जरुरत लगी थी और 24% मरीजों को कम से कम एक बार अस्पताल इलाज के लिए जाना पड़ा था।

 

ग्रुप 4: अधिक थकावट, सीने में लगातार दर्द और खांसी जैसे लक्षण मरीजों में दिखे थे। 8.6% मरीजों को वेंटिलेटर की जरूरत पड़ी जबकि 23.6% लोगों को एक या उससे ज्यादा बार अस्पताल जाना पड़ा।

 

ग्रुप 5: इस ग्रुप में घबराहट, अधिक थकावट और खाना खाने की इच्छा न करने जैसे लक्षण थे। इस ग्रुप के 9.9% मरीजों को वेंटिलेटर सपोर्ट की जरूरत पड़ी। 24.6% मरीजों को अस्पताल जाना पड़ा।

 

ग्रुप 6: सांस चढ़ना, सांस लेने में परेशानी, सीने में दर्द, थकावट और पेट की बीमारी जैसे लक्षण इस ग्रुप के मरीजों में देखे गए। इस ग्रुप के लगभग 20% मरीजों को आर्टिफिशियल ब्रीदिंग सपोर्ट लेने की जरूरत पड़ी जब की 45.5% लोगों को अस्पताल इलाज के लिए जाना पड़ा

 

 

 

 

 

पहले पांच दिन रखनी है नजर

 

पहले पांच दिन में दिखते लक्षणों और उम्र पर नजर रखी जाए तो बताया जा सकता है कि मरीज को वेंटिलेटर की जरूरत पड़ेगी या नहीं।