सोमवार, 24 मार्च 2025

नर-नारी समानता के प्रबल पैरोकार



भारत माता हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय और राम का कर्म और वचन दो

लोहिया की दृष्टि में नारी

 डा० लोहिया नर-नारी समानता के प्रबल पैरोकार थे। वे अक्सर स्त्रियों को पुरुष की पराधीनता के खिलाफ आवाज बुलंद करने की हिम्मत देते थे। उनका स्पष्ट कहना था कि स्त्रियों को बराबरी का दर्जा देकर ही एक स्वस्थ और सुव्यवस्थित समाज का निर्माण किया जा सकता है। वे पुरुषों द्वारा लादी गयी नारी की पराधीनता और स्त्रियों द्वारा उसकी सहज स्वीकृति के सख्त विरुद्ध थे। उन्हें कतई पसंद नहीं था कि औरतें घूंघट और पर्दे में रहें और पुरुष समाज उनका शोषण और अनादर करता रहे। वे स्त्रियों को पुरुषों की तरह मुखर व निडर देखना चाहते थे। यही वजह है कि उन्हें ऐसी स्त्रियां पसंद थी जिनमें अपने स्वाभिमान की रक्षा और दमदारी से अपनी बात कहने की ताकत थी। उनका नारी आदर्श द्रौपदी थी जिसने अपने चीरहरण के समय पांडवों की चुप्पी पर सवाल दागा और कौरवों के अत्याचार के विरुद्ध तनकर खड़ी हुई। 'जाति और योनि के कटघरे' लेख में डा० लोहिया ने नर-नारी समानता के सवाल पर खुलकर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने तार्किकतापूर्वक स्त्री को पराधीन बनाने वाली वह हर संस्कृति, नैतिकता, परंपरा और मूल्यों पर चोट किया है जो नर-नारी समानता के विरुद्ध है। आजादी के बाद स्त्रियों के अधिकार और सम्मान को लेकर जमकर पैरोकारी की और नारी विरोधियों को आड़े हाथ लिया। नाइंसाफी और गैर बराबरी को खत्म करने के लिए उन्होंने देश के सामने सप्तक्रांति का दर्शन प्रस्तुत किया। नर-नारी समानता, रंगभेद पर आधारित विषमता की समाप्ति, जन्म तथा जाति पर आधारित असमानता का अंत, विदेशी जुल्म का खात्मा, विश्व सरकार का निर्माण, निजी संपत्ति से जुड़ी आर्थिक असमानता का अंत, संभव बराबरी की प्राप्ति, हथियारों के इस्तेमाल पर रोक, सिविल नाफरमानी के सिद्धांत की स्थापना तथा निजी स्वतंत्रताओं पर होने वाले अतिक्रमण का मुकाबला। गौर करें तो इस सप्तक्रांति में डा० लोहिया के वैचारिक व दार्शनिक दोनों पक्ष दिखते हैं जिसमें स्त्रियों के प्रति उनकी संवेदनशीलता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। उन्होंने एक स्थान पर लिखा है कि 'धर्म, राजनीति, व्यापार और प्रचार सभी मिलकर उस कीचड़ को संजोकर रखने की कोशिश कर रहे हैं जिसे संस्कृति के नाम से पुकारा जाता है।' ऐसा नहीं है कि डा० लोहिया भारतीय संस्कृति और मूल्यों के विरुद्ध थे। वे नास्तिक भी नहीं थे। लेकिन ऐसे फूहड़पन के विरुद्ध थे जिन्हें नैतिकता का खोल पहनाया गया था। डा० लोहिया का भारतीय धर्म व संस्कृति में उनका अटूट विश्वास था। वे राम, कृष्ण और शिव को भारत की सांस्कृतिक एकता का प्रतिनिधि मानते थे। अपने जीवन काल में वे देश के उन तमाम मंदिरों में गये जिनकी स्थापत्य कला दर्शनीय और विलक्षण है। उन्होंने भारत माता से वरदान के रुप में इच्छा प्रकट की कि हे भारत माता हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय और राम का कर्म और वचन दो। लेकिन उन्हें धर्म व संस्कृति की आड़ में स्त्रियों पर किया जाने वाला अत्याचार बर्दाश्त नहीं था। नर-नारी समता पर उनका निबंध 'द्रौपदी या सावित्री' सबसे अधिक प्रसिद्ध रहा लेकिन उतना ही अधिक विवादित भी। इस निबंध में उन्होंने एक स्थान पर लिखा है कि' जब मैं कहा करता हूं कि द्रौपदी हिंदुस्तान की सच्चे माने में प्रतीक है, सावित्री उसके जितनी नहीं, तब इसी अंग को देखकर कहता हूं कि वह ज्ञानी, समझदार, बहादुर, हिम्मतवाली और हाजिरजवाब थी। न सिर्फ हिंदुस्तान में बल्कि दुनिया में मुझे द्रौपदी जैसी औरत नहीं मिली।' उन्होंने इस निबंध में एक स्थान पर सीता और सावित्री के पतिव्रत धर्म का महिमामंडन करने वालों से सवाल किया है कि क्यों हमारे समूचे इतिहास में पत्नीव्रत का उदाहरण नहीं मिलता? दरअसल वे यह कहना चाहते हैं कि जब एक स्त्री पतिव्रत धर्म का पालन कर सकती है तो एक पुरुष क्यों नहीं? उन्होंने 'जाति और योनि के कटघरे में एक स्थान पर समाज से सवाल पूछा है कि 'एक औरत जिसने तीन बार तलाक दिया और चौथी बार फिर शादी करती है और एक मर्द जो चौथी बार इसलिए शादी करता है कि उसकी एक के बाद एक पत्नियां मर गयी तो इन दोनों में कौन ज्यादा शिष्ट और नैतिक है? डा० लोहिया ने परंपरा और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार की

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