बुधवार, 29 मई 2024

सही समय पर सही इलाज से ल्युपस के 50 फीसदी की किडनी को बचाना संभव- प्रो. अमिता

 




पीजीआई में ल्यूपस मीट

 

ल्यूपस से साथ 21 साल से फिट है जिंदगी

 

बीमारी के साथ पढ़ाई किया, करियर में आगे

 

 

केस वन-   43 वर्षीय बबीता 21 साल से ल्यूपस के साथ जिंदगी अच्छी गुजार रहीं है। 2003 में जब उन्हें पता चला जब वह नर्सिंग का डिप्लोमा कर नेपाल की सेना में सेवा दे रही थी ।  आज मास्टर डिग्री हासिल कर सेना में मेजर  है।

 

केस-टू- 44 वर्षीय निशा कुलश्रेष्ठा  21 साल से ल्यूपस के साथ अच्छी जिंदगी जी रही है। वह काठमांडू में खुद का व्यवसाय कर रही है।

 

यह  दो नजीर है तमाम ल्यूपस( एसएलई) मरीजों के लिए। बीमारी के साथ वह लंबी जिंदगी जीने के साथ कैरियर में आगे बढ़ सकती है। संजय गांधी पीजीआई के क्लिनिकल इम्यूनोलॉजी एंड रूहमैटोलाजी विभाग द्वारा एसएलई मरीजों के लिए आयोजित बैठक में कई मरीजों ने अपना अनुभव रखा। कहा कि हिम्मत न हारिए और बीमारी को स्वीकार करिए। जैसे उच्च रक्चाप, डायबटीज जिंदगी के साथ रहती है उसी तरह यह भी रहती है। बबीता ने बताया कि शुरुआती दौर में जोड़ों में दर्द, सूजन, बुखार की परेशानी हुई। सही डॉक्टर तक पहुंचने में दो साल लग गए ऐसा तब जब मैं खुद मेडिकल प्रोफेशन से थी। लखनऊ की दिव्या वर्मा   कहती है कि 2005 में बीमारी का पता चला । उस 5वीं कक्षा में थी इसके बाद बीएड किया आज टीचर हूं। परिवार का सपोर्ट बहुत जरूरी है। 

 

ल्यूपस के मरीजों में किडनी को बचाना संभव

इस मौके पर विभाग की प्रमुख प्रो. अमिता अग्रवाल और डा. रूद्रापन चटर्जी ने बताया कि ल्यूपस के 60 से 70 फीसदी मरीजों में किडनी प्रभावित होने की आशंका रहती है। सही समय पर सही इलाज से 50 फीसदी से अधिक की किडनी को खराब होने से नई दवाओं से बचाया जा सकता है।  फालोअप में रहने की जरूरत है। दवा कभी बंद न करें। एमएसडब्लू मुबीन ने बताया कि गरीब मरीजों के मदद के लिए कई योजना है जिसका लाभ उठा सकते हैं।

 

धैर्य रखें तुरंत इलाज का नहीं होता है असर

 

दवा का असर आने में एक से 1.5 महीना लगता है । कई बार तुरंत लाभ न मिलने में मरीज दवा खाना बंद कर देते है । धैर्य रखने की जरूरत है। हम लोग इलाज शुरू होने के 6 माह बाद देखते है कितना प्रभाव पड़ा । दवा बदलने के बारे में सोचते हैं।  

 

 

ल्यूपस नहीं है आनुवांशिक बीमारी

डा. अनुष्का बताया कि यह संक्रामक बीमारी नहीं है। परिवार में यदि बीमारी रही है तो बच्चों में आशंका हो सकती है लेकिन यह प्रमुख कारण नहीं है। इसके दूसरे भी कारण हो सकते हैं। सामान्य 10 से 15 फीसदी बच्चों में एएनए पाजिटिव होता है लेकिन कई बार बीमारी नही होती है। यह आटो इम्यून डिजीज है जिसमें शरीर की प्रतिरक्षण प्रणाली शरीर के अंगों के खिलाफ काम करने लगती है। किडनी, ब्रेन , त्वचा, फेफड़ा सहित अन्य अंग प्रभावित हो सकते हैं।  

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