बुधवार, 29 जनवरी 2020

डिफेंस एक्सपो के लिए पीजीआइ ट्रामा सेंटर में वेंटीलेटर से लैस होंगे 12 बेड




डिफेंस एक्सपो के लिए पीजीआइ ट्रामा सेंटर में वेंटीलेटर से लैस होंगे 12 बेड
ट्रामा सेंटर प्रभारी के देख रेख में बनी  विशेषज्ञों की टीम
सौ यूनिट रक्त भी रहेगा तैयार
जागरण संवाददाता। लखनऊ
डिफेंस एक्सपो में देश-विदेश से तमाम विशेष लोग भाग लेंगे किसी परेशानी में इनके  देख –भाल के लिए संजय गांधी पीजीआइ ने विशेष इंतजाम किया है। ट्रामा सेंटर के प्रभारी प्रो.अमित अग्रवाल ने बताया कि  हृदय रोग विशेषज्ञ  प्रो. अदित्य कपूर, हृदय शल्य चिकित्सक  प्रो. एसके अग्रवाल , एनेस्थेसिया विभाग के प्रमुख प्रो. अनिल अग्रवाल और वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी  के साथ बैठक कर  कार्य योजना तैयार की गयी। प्रो. अमित अग्रवाल  के मुताबिक सौ यूनिट रक्त के साथ पांच यूनिट फ्रेश फ्रोजेन प्लाज्मा और पांच यूनिट प्लेटलेट्स तैयार रखा जाएगा। इसके साथ ही ट्रामा सेंटर के दूसरी मंजिल पर 15 स्पेशल वार्ड तैयार किया गया है जिसमें 12 बेड वेंटीलेटर सहित अधुनिक उपकरणों से लैस होंगे। इस वार्ड की पूरी जिम्मेदारी न्यूरो सर्जन डा. कमलेश सिंह और ट्रामा सर्जन डा. मलिकार्जुन को दी गयी है। एनेस्थेशिया विभाग के प्रमुख प्रो. अनिल अग्रवाल इलेक्टिव सर्जरी, आईसीयू केयर के प्रभारी बनाए गए है वह इस कार्य के लिए डाक्टर की व्यवस्था भी देखेंगे। डिजास्टर मैनेजमेंट के लिए ट्रामा सेंटर के इमरजेंसी  के सामने  विशेष एरिया बनाया गया है जिसमें 10 आक्सीजन एंड सक्शन प्वाइंट होगा। डा. पुलक शर्मा को एनेस्थेसिया, इमरजेंसी मेडिसिन, ट्रांसफ्यूजन मेडिसिन इन विभागों के बीच संय़ोजन का काम दिया गया जिससे एपेक्स ट्रामा सेंटर में समय पर राहत मिल सके। एचआरएफ के प्रभारी अभय मेहरोत्रा को इमरजेंसी दवाएं, फ्लूड , एंटीबायोटिक के सहित अन्य वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित कराने की जिम्मेदारी दी गयी है। इसके साथ इलाज के लिए अतिरिक्त कोष की भी स्थापना की गयी है।     

रविवार, 19 जनवरी 2020

.........बोलने और सुनने लगा सिदार्थ- पीजीआइ में लगा इलेक्ट्रानिक कान




.........बोलने और सुनने लगा सिदार्थ
पीजीआइ में लगा इलेक्ट्रानिक कान
जब मम्मी बोला तो मिला सुकुन
कुमार संजय । लखनऊ   
पांच  साल पहले गोंडा की मूल निवासी नंदनी पाठक को पता चला कि उनका लाल न सुन सकता है न तो बोल सकता है तो लगा कि उनकी दुनिया ही सिमट गयी। उनका लाल बडा हो कर क्या करेगा लेकिन उम्मीद की किरण तब जगी एक परिवार ने बताया कि यह बच्चे भी पढ़ लिख कर कुछ बन सकते हैं। इसी उम्मीद को लेकर वह लखनऊ के बचपन डे केयर स्कूल में बच्चे का दाखिला करा दिया जहां पर ऐसे ही बच्चों की शिक्षा की व्यस्था सरकार करती है। इसी बीच कई डाक्टरों को दिखाया तो हियरिंग एड लगा दिया लेकिन उससे कोई खास फायदा नहीं हुआ। इसी बीच संजय गांधी पीजीआइ के न्यूरो आटोलासिस्ट प्रो. अमित केशरी को प्रदेश सरकार से 10 बच्चों में इलेक्ट्रानिक कान( काक्लियर इंपलांट) लगाने के लिए अनुदान मिला। प्रो. केशरी ने इसी स्कूल के प्रमुख लोगों से संपर्क कर गरीब बच्चों को चिन्हित कर भेजने को कहा तो उसमें सिदार्थ को शामिल किया गया। तमाम चांच के बाद सिदार्थ को सर्जरी के लिए फिट पाया गया। 6 महीने पहले इनमें इलेक्ट्रानिक मशीन लगा दिया गया वह काफी हद तक सुनने और बोलने लगे है। अब वह सामान्य बच्चों के स्कूल में जाने लगा है। सिदार्थ ने कहा कि वह पढ़ लिख कर अफसर बनेगा।
काक्लियर इंपाल्ट बच्चों का हुआ संवाद
संस्थान ने सुनो सुनओ के तहत संवाद का आयोजन किया जिससे पहले इंप्लांट करा चुके बच्चे और उनके परिजन जल्दी कराने वाले परिजनों और बच्चों को बता सके कि वह बिल्कुल सामान्य होंगे। प्रो. केशरी ने बताया कि 10 बच्चों में इंप्लांट के लिए पैसा विकलांग कल्याण विभाग ने दिया।  डिप्टी डायरेक्टर एमके पर्वत ने बताया कि इस साल 60 बच्चों के लिए बजट जारी किया गया है जिसमें से इस साल भी 10 बच्चों में इंप्लांट होगा। आडियोटेक्नोलाजिस्ट राकेश कुमार श्रीवास्तव और केके चौधरी के मुताबिक सुनने की क्षमता का परीक्षण आडियोमेट्री से करने के बाद तय किया जाता है कि कितनी परेशानी है क्या बेहत उपचार है।

एक हजार में 6 बच्चों में सुनने की परेशानी
 प्रो.केशरी के मुताबिक एक हजार में 6 बच्चों में सुनने की परेशानी होती है जिसमें दो से तीन बच्चों में इंप्लांट की जरूरत होती है बाकी में हियरिंग एड से काम चल जाता है। इलाज बच्चे के एक साल की उम्र के बाद होने से सफलता दर अदिक होती है।
कैसे होता है इंप्लांट
कॉकलियर इंप्लांट उपकरण हैजिसे सर्जरी के द्वारा कान के अंदरूनी हिस्से में लगाया जाता है और जो कान के बाहर लगे उपकरण से चालित होता है। कान के पीछे कट लगाते है और मैस्टॉइड बोन (खोपड़ी की अस्थाई हड्डी का भाग) के माध्यम से छेद किया जाता है। इस छेद के माध्यम से इलेक्ट्रॉइड को कॉक्लिया में डाला जाता है। कान के पिछले हिस्से में पॉकेट को बनाया जाता हैजिसमें रिसीवर को रखा जाता है।  सर्जरी के लगभग एक महीने के बादबाहरी उपकरणों जैसे माइक्रोफोनस्पीच प्रोसेसर और ट्रांसमीटर को कान के बाहर लगा दिया जाता है। 

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

एम्स दिल्ली के बाद पीजीआइ जहां संभव है पार्किसंस का डीबीएस तकनीक से इलाज

इतना हाथ कांपता था कि खाना-पीना, टूथ ब्रश करना और कपडे पहना तक हो गया था मुश्किल



एम्स दिल्ली के बाद पीजीआइ जहां संभव है पार्किसंस का डीबीएस तकनीक से इलाज


संजय गांधी पीजीआइ उत्तर भारत का दूसरा संस्थान बन गया है जहां डीप ब्रेन स्टिमुलेशन के जरिए पाक्रिसंस का इलाज संभव हो गया है। संस्थान की पहली सर्जरी संस्थान के न्यूरोलाजी, न्यूरोसर्जरी, एनेस्थेसिया, रेडियोलाजी और ट्रांसफ्यूजन मेडिसिन विभाग के विशेषज्ञों ने अमेरिका के डीबीएस एकस्पर्ट न्यूरो सर्जन प्रो.मिलिंद देवगावकर के निर्देशन में पूरा किया।
 न्यूरोलाजी विभाग के प्रमुख प्रो.सुनील प्रधान, न्यूरोसर्जरी विभाग के प्रमुख प्रो.संजय बिहारी, न्यूरोसर्जन प्रो. अरूण श्रीवास्तव , एनेस्थेसिया के प्रो. देवेंद्र गुप्ता , न्यूरोसर्जन प्रो. पवन, प्रो. वेद प्रकाश, प्रो. कुंतल कांति दास, न्यूरोलाजिस्ट प्रो. रूचिका टंडन, एनेस्थेसिया के डा.रूद्र, ब्लड ट्रांसफ्यूजन मेडिसिन के प्रो अतुल सोनकर , सिस्टर इंचार्ज नारदी, एस्तर  के साथ प्रो. मिलिंद ने बताया कि पहली सर्जरी 64 वर्षीय एक मरीज में की गयी। इन्हे पार्किसंस की परेशानी लंबे समय थी । दवाओं का असर कम हो गया था। दवा के साइड इफेक्ट भी आ गए थे। चलने –फिरने में लाचार हो गए थे। शरीरिक संतुलन कम हो गया था। हाथ में बहुत अधिक कंपन होता था जिसके कारण खान-पीना, टूथ ब्रश करना  , कपड़े पहनना तक कठिन हो गया था। दवा से दवा अच्छी तरह से काम नहीं कर रही है ।  डिस्केनेसिया (अनियंत्रितअनैच्छिक कंपन) हो रहा है। असंतुलन कठोरतासुस्ती और कंपन के मोटर लक्षणों को कम करने यह सर्जरी की जाती है।

डीबीएस के बाद दवा की मात्रा हो जाती है कम
डीबीएस के बाद न्यूरोस्टीमुलेटर को एडजस्ट करने के साथ ही दवा की मात्रा तय की जाती है। डीबीएस के बाद दवा कम होने के कारण दवा के कप्रभाव नहीं सहने पड़ते हैं।
   
.क्या होता है पार्किसंस
   
दिमाग में तंत्रिका कोशिका का नुकसान डोपमाइन के स्‍तर को गिरा देता हैजिससे पार्किंसन के लक्षण उभरते है। इसके कारण अंगो को सही तरीके दिमाग से सिगनल नहीं मिलता है।  किसी एक हाथ में कंपन के साथ शुरू होता है।  अन्य लक्षणों में धीमी गतिकड़ापनऔर संतुलन खोना शामिल हैं



क्या होता है डीप ब्रेन स्टिमुलेशन
यह मस्तिष्क में असामान्य विद्युत सिग्नलिंग पैटर्न को नियंत्रित करता है। अंगो की गति नियंत्रित करने के लिए  मस्तिष्क की कोशिकाएं विद्युत संकेतों का उपयोग करके अंगो के कोशिकाएं साथ संवाद करती हैं। डीबीएस अनियमित सिग्नलिंग पैटर्न को नियमित या बाधित कर सकता है जिससे कोशिकाएं अधिक सुचारू रूप से संचार कर सकें और लक्षण कम हों।

कैसे होती है सर्जरी

डीबीएस सर्जरी मेंसर्जन पतली तारों को मस्तिष्क के एक या दोनों किनारों पर सबथैलेमिक न्यूक्लियस या ग्लोबस पैलिडस इंट्रा में रखता है जो अंगो के मूवमेंट को नियंत्रित करते हैं। मरीज  सर्जरी के दौरान जागते रहते हैं ताकि  सवालों के जवाब दे सकें सही जवाब देने से और इलेक्ट्रोड लगाने के बाद ओटी टेबिल पर ही कंपन कम हो जाता है। इससे पता लगता है कि  इलेक्ट्रोड सही ढंग सही जगह पर लगा है। इलेक्ट्रोड लगने के 7 से 8 घंटे  बाद। बेहोश कर इलेक्ट्रोड को  बैटरी से चलने वाले उपकरण (कार्डियक पेसमेकर के समान) से जोड़ा ।  कॉलरबोन के नीचे की त्वचा के नीचे रखा जाता है। यह उपकरणजिसे न्यूरोस्टिम्यूलेटर कहा जाता है।  लेक्ट्रोड के माध्यम से निरंतर इलेक्ट्रिक पल्स तार के जरिए दिमाग को देता है। 

विशेषज्ञ छोड़ रहे है सरकारी संस्थान--जागरण का संपादकीय

डॉक्टरों का पलायन



संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान और अन्य बड़े चिकित्सा संस्थानों से विशेषज्ञ डॉक्टरों का निजी अस्पतालों की ओर पलायन चिंता की बात है। जो डॉक्टर धन के आकर्षण में निजी और कारपोरेट अस्पतालों में जा रहे हैं, न सिर्फ उनकी शिक्षा में सरकार का योगदान है बल्कि उन्होंने विशिष्टता भी एसजीपीजीआइ और केजीएमयू जैसे संस्थानों के साधनों का इस्तेमाल करके हासिल की। ख्याति अर्जित करते ही डॉक्टरों का पलायन इन संस्थानों के लिए बड़ा झटका है। हाल ही में एसजीपीजीआइ के कई प्रतिष्ठित डॉक्टर कारपोरेट अस्पतालों में चले गए। हालत यह है कि संस्थान के कई विभागों में डॉक्टरों की कमी है, जिसके चलते चिकित्सा, शिक्षा और शोध गतिविधियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। केंद्र और राज्य सरकार को इस समस्या के बारे में गहन चिंतन करना चाहिए। कोई भी बड़ा संस्थान सिर्फ भवन, उपकरणों या प्रयोगशालाओं से बड़ा नहीं बन जाता। एसजीपीजीआइ और केजीएमयू जैसे संस्थान बड़े डॉक्टरों की वजह से बड़े बने। अब वही डॉक्टर बड़े संस्थानों से मुंह मोड़ रहे हैं तो स्वाभाविक रूप से इन संस्थानों की विश्वसनीयता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। स्पष्ट है कि राजकीय संस्थान छोड़कर कारपोरेट अस्पतालों की ओर डॉक्टरों के आकृष्ट होने की मुख्य वजह धन का आकर्षण है। मेधा और मेहनत के जरिये अधिक धन अर्जित करने की अभिलाषा में कुछ भी अनुचित नहीं है। सरकारों को इस पहलू पर ध्यान देना चाहिए। बेहतर होगा कि राज्य सरकार इस परिस्थिति का अध्ययन करके इस समस्या के समाधान के सुझाव देने के लिए वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों और चिकित्सा विज्ञानियों की एक समिति गठित कर दे। यदि विशेषज्ञ डॉक्टर राजकीय संस्थानों से विदा लेते रहेंगे तो सर्वाधिक खमियाजा उन मरीजों को भुगतना पड़ेगा जो कारपोरेट अस्पतालों का भारी खर्च उठाकर इलाज कराने में असमर्थ हैं। एसजीपीजीआइ और केजीएमयू जैसे संस्थानों में कोई भी मरीज पांच-दस रुपये का पर्चा बनवाकर बड़े डॉक्टरों का परामर्श प्राप्त कर सकता है। सरकार को ऐसी नीति-रणनीति बनानी चाहिए जिससे डॉक्टरों का पलायन रोका जा सके बल्कि जो डॉक्टर जा चुके हैं, उन्हें फिर उन्हीं संस्थानों में वापस लाया जा सके।
सरकार को ऐसी नीति-रणनीति बनानी चाहिए जिससे डॉक्टरों का पलायन रोका जा सके बल्कि जो डॉक्टर जा चुके हैं, उन्हें फिर उन्हीं संस्थानों में वापस लाया जा सके।

रविवार, 12 जनवरी 2020

सीडी-64 जांच रोकेगा ड्रग रजिस्टेंस.....पीजीआइ ने स्थापित किया जांच- नई योजना से मिलेगी मरीजों को राहत





संजय गांधी पीजीआइ में इमरजेंसी मरीजों के लिए 2020 में काफी हद तक राहत लाएगा। संस्थान में केवल 30 बेड की इमरजेंसी है जिसके कारण हर घंटे चार से पांच मरीजों को वापस किसी दूसरे संस्थान में भेजना पड़ता है। मुख्य चिकित्सा अधीक्षक प्रो. अमित अग्रवाल के मुताबिक 210 बेड की इमरजेंसी नए साल में शुरू करने की योजना पर तेजी से काम हो रहा है। हम लोगों की इसे शुरू करना पहली प्राथमिकता है। इसमें दिमाग, दिल, पेट से जुडी सहित अन्य इमरजेंसी के लिए विशेष यूनिट होगी।
-    संक्रमण बैक्टीरिया का है या वायरस का यह पता करने में चार से पांच दिन लग जाते है। बल्ड कल्चर के जरिए बैक्टीरियल इंफेक्शन की पुष्टि होती है। संस्थान के क्लीनिकल इम्यूनोलिस्ट प्रो.विकास अग्रवाल ने सीडी64 टेस्ट खोजा जिससे मात्र दो घंटे में पता लगता है कि किस तरह का इंफेक्शन है। इस टेस्ट को अभी ट्रायल के तौर पर चलाया जा रहा था दो सौ से अदिक मरीजों में सफल पुष्टि के बाद इसे रूटीन में इस साल शुरू करने के लिए हास्पिटल इंफारमेशन सिस्टम में जोड़ जा रहा है। नए साल में संस्थान का कोई भी संकाय सदस्य, रेजीडेंट डाक्टर टेस्ट के लिए आर्डर रेज कर सकेगा। प्रो.विकास के मुताबिक यदि किसी को बुखार है कारण बैक्टीरियल है तो तुरंत एंटीबायोटिक शुरू कर राहत दी जा सकती है यदि वायरल है तो मरीज को एंटीबायोटिक से कोई फायदा नहीं होगा बिना मतलब एंटीबायोटिक नहीं चलेगा और ड्रग रजिस्टेट की समस्या पर कुछ हद तक लगाम लगेगा।
-     ब्रेन एन्यूरिज्म विथ वाइड माउथ का इलाज बिना दिमाग खोले वेब तकनीक से संभव हो गया है। इस तकनीक को डाक्टरी भाषा में इंडो वेस्कुलर एम्बोलाइजेशन आफ ब्रेन एन्यूरिज्म यूजिंग वेब डिवाइस कहते है। इस तकनीक से देश में केवल चार पाच मरीजों में इलाज हुआ है। पीजीआइ में पहला केस इस तकनीक से किया गया जो पूरी तरह सफल रहा। तकनीक को आंजाम देने में इंटरवेंशन रेडियोलाजिस्ट प्रो. विवेक सिंह तकनीक स्थापित होने के बाद आगे मरीजों को ब्रेन स्ट्रोक मरीजों को काफी राहत मिलेगी
-      मूवमेंट डिसआर्डर के मरीजों के लिए स्पेशल क्लीनिक शुरू होगी जिसमें न्यूरो सर्जरी और न्यूरोलाजी विभाग के विशेषज्ञ एक साथ इलाज की दिशा तय करेंगे। न्यूरोलाजी विभाग के प्रमुख प्रो.सुनील प्रधान के मुताबिक
-    बुधवार को स्पेशल क्लीनिक शुरू करने की योजना है। पहले मरीज का बैठ करलिटा करफिर खडे होने की स्थित में रक्त दाब देखने के साथ चाल भी देखी कर उसकी रिकार्डिग की जाएगी जिसके आधार पर आगे जांच कर कारण का पता लगा कर इलाज की दिशा तय होगी। पार्किंसनडिस्टोनिया और ट्रेमर सहित अन्य ऐसी परेशानियां है जिसमें शरीर का कोई एक आंग सामान्य से अधिक कंपन करने लगता है जिसके कारण शरीर का बैलेस बिगड़ जाता है। उम्र बढ़ने के साथ परेशानी बढने की आशंका रहती है।    

पीजीआइ एपेक्स ट्रामा सेंटर हुआ पहला आर्थोस्कोपी लिगामेंट रिपेयर थैक्स.. डाक्टर बच गयी नौकरी

घुटने के टूटे लिगामेंट को हटाकर लगाया नया लिगामेंट आ गयी जान


पीजीआइ एपेक्स ट्रामा सेंटर हुआ पहला आर्थोस्कोपी  लिगामेंट रिपेयर
थैक्स.. डाक्टर बच गयी नौकरी ,मिला गया था अनफिट करने का अल्टीमेटम
 कुमार संजय। लखनऊ

सीआरपीएफ के जवान 30 वर्षीय जितेंद्र की नौकरी जाने वाली थी । विभाग उन्हें अनफिट करने की चेतावनी दे चुका था क्योंकि उनके घुटने के जवाब दे दिया था। घुटने में दम न लगने के कारण चलने में पैर लचक जाता था।  संजय गांधी पीजीआइ के एपेक्ट ट्रामा सेंटर के विशेषज्ञों ने बिना घुटना खोले आर्थोस्कोप से जितेंद्र के घुटेने में खराब हो चुका लिगामेंट को हटा कर दूसरा मजबूत लिगामेंट रोपित कर घुटने में जान डाल दिया।  जितेंद्र के घुटने में दम आ गया लेकिन अभी एक महीने तक पूरा जोर नहीं देना । अभी हाल में ही लिगामेंट रोपित किया है मजबूत होने लिए समय देना होगा। एपेक्स ट्रामा सेंटर का यह पहला केस है जिसमें बिना घुटना खोले आर्थोस्कोप से लिगामेंट रोपित किया गया। एपेक्स ट्रामा सेंटर के प्रभारी प्रो. अमित अग्रवाल और आर्थोपैडिक सर्जन प्रो. पुलक शर्मा ने बताया कि यह बडी सफलता है। नई तकनीक स्थापित हो गयी है।  इससे तमाम उन लोगों को फायदा मिलेगा जिनका चोट के कारण घुटने का लिगामेंट टूट जाता है और चलने फिरने में लाचार हो जाते है। जितेंद्र ने बताया कि वह पटना के रहने वाले सीआरपीएफ में जवान है। नक्सली क्षेत्र में ड्यूटी के दौरान घुटने में चोट के कारण पैर में दम नहीं लग रहा था कई जगह इलाज कराया लेकिन कहीं फायदा नहीं मिला। विभाग ने अनफिट करने का अल्टीमेट दे दिया था तभी पीजीआइ का नाम सनु कर यहां आए तो ट्रामा सेंटर भेजा गया जहां पर इलाज के बाद फिट महसूस कर रहे हैं।
कैसे किया गया लिगामेट का रोपण
विशेषज्ञों ने बताया कि घुटने का लिगामेंट टूटने पर पूरा घुटना खोल कर रिपेयर किया जाता रहा है जिसमें तमाम रिस्क होता है लेकिन आर्थोस्कोप में केवल 2 मिमी के छेद से घुटने अंदर जा कर खराब एंटीरियर क्रुशिएट लिगामेंट्स को हटाकर घुटने पास ही बिना काम वाले मौजूद लिगामेंट को निकाल कर रोपित किया गया। इसके साथ ही मिनिसकस वाशर को भी रिपेयर किया गया क्यों वह भी रैप्चर हो गया था। परेशानी पता करने के लिए क्लीनिकल एक्जमनेशन के साथ एमआरआई जांच घुटने की जाती है ।   
लिगामेंट इंजरी क्या है?
घुटनों को अपनी जगह पर स्थिर बनाये रखने का काम लिगामेंट्स करते हैं। घुटने में दो तरह के लिगामेंट होते है कोलेटरल लिगामेंट्स और  क्रुशिएट लिगामेंट्स होते हैं। कोलेटरल लिगामेंट्स घुटने की गति को नियंत्रित और संतुलित करते हैं। क्रुशिएट लिगामेंट्स घुटने को आगे-पीछे मोड़ने का काम करते हैं। लिगामेंट्स सॉफ्ट टिश्यू होते हैं और इन लिगामेंट्स के कारण ही हड्डियां एकदूसरे से जुड़ी रहती है लेकिन जब कभी अचानक तेजी से गिरनेऊंचाई से कूदने  या दबाव पड़ने से लिगामेंट टूट जाते हैं तो घुटनों को मोड़ना बहुत तकलीफदेह हो जाता है। कई बार चोट लगने पर हड्डी टूटती नहीं है लेकिन उस जगह पर काफी चोट पहुँचती है। अगर उस हिस्से में सूजन और दर्द रहता है और वो जगह नीली पड़ जाती है तो ये लिगामेंट की इंजरी का संकेत है।

बुधवार, 8 जनवरी 2020

पीजीआइ में नर्स के पति की मौत,.. हंगामा नर्स ने लगाया आरोप खाली पड़ा रहा बेड पति को नहीं मिल सका इलाज


पीजीआइ में नर्स के पति की मौत, हंगामा

नर्स ने लगाया आरोप खाली पड़ा रहा बेड पति को नहीं मिल सका इलाज



पीजीआइ में नर्स के पति की मौत पर जमकर बवाल हुआ। आरोप हैं कि रात भर मरीज स्ट्रेचर पर पड़ा तड़पता रहा। सीसीएम में बेड होने पर भी समयगत शिफ्ट नहीं किया गया। लिहाजा, उसकी सांसे थम गईं। घटना की कर्मचारी नेताओं को भनक ली। उन्होंने जमकर हंगामा किया। इसके बाद स्टाफ के बेड आरक्षित कर मामले को रफा-दफा किया गया।
नर्स तबिता के मुताबिक पति विलसेंट दास (47) की तबीयत बिगड़ गई। ऐसे में सोमवार रात को विलसेंट को इमरजेंसी लेकर आए। यहां स्ट्रेचर पर विलसेंट पड़े तड़पते रहे। उन्हें सांस लेने में तकलीफ थी। बाईपैप मशीन लगी थी। कई बार फरियाद की मगर, डॉक्टरों ने नहीं सुना। मंगलवार सुबह आठ बजे इमरजेंसी में बेड मिल सका। वहीं, मरीज को सीसीएम में शिफ्ट का निर्देश दिया गया। दोपहर में एक बजे मरीज की फाइल सीसीएम भेजी गई। डॉक्टर से बात हुई। बेड भी खाली था मगर, उन्होंने कुछ देर में बताने की बात कहकर टरका दिया। ऐसे में समय पर माकूल इलाज न मिलने पर मरीज की मौत हो गई। नर्स के पति को इलाज न मिलने पर कर्मचारियों में आक्रोश बढ़ गया। नसिर्ंग एसोसिएशन की अध्यक्ष सीमा शुक्ला समेत कई ने विरोध किया। परिवारजनों ने भी लापरवाही का आरोप लगाकर हंगामा किया। उन्होंने ईएमओ व सीसीएम के डॉक्टर पर कार्रवाई की मांग की। साथ ही चिकित्सकों के कर्मियों के प्रति व्यवहार पर नाराजगी जताई।
कर्मचारियों के लिए आरक्षित हुआ बेड
मामला तूल पकड़ते देख अफसरों ने कर्मचारी नेताओं से वार्ता की। ऐसे में कर्मी व उनके आश्रितों के लिए ट्रांजिट इमरजेंसी में छह बेड आरक्षित किए गए। इसके अलावा नए ओपीडी वार्ड में चार बेड मुहैया कराने का दावा किया। इसके बाद कर्मी शांत हुए। वहीं, इलाज में लापरवाही के आरोप को नकार दिया।

मंगलवार, 7 जनवरी 2020

नई एआरबी एजिल सार्टन मीडोक्सोमिल थमेगा ब्लड प्रेशर-15 हजार बीपी मरीजों पर शोध के बाद मिली हरी झंडी

नई एआरबी थमेगा ब्लड प्रेशर


15 हजार बीपी मरीजों पर शोध के बाद मिली हरी झंडी
दिल,  दिमाग और किडनी को बचाने के लिए मिला नया नुस्खा
कुमार संजय
दिल,  दिमाग और किडनी के लिए खतरनाक हाई ब्ल़ड प्रेशर को थामने के लिए बेहतर हथियार मल गया है। नया रसायनिक हथियार है एंजियोटेंसिन (2) रिपेस्पटर ब्लाकर(एआरबी) जो अब तक तमाम एआरबी से बेहतर साबित हो रहा है। देश –विदेश के तमाम विशेषज्ञों ने मिल कर लगभग 15 हजार मरीजों पर इस नए रसायन को देकर साबित किया है कि अब तक प्रचलित एंटी हाइपरटेंसिव दवा जो एंजियोटेंनसिन रिस्पेटर ब्लाकर होती है इनसे यह यह बेहतर है। नए रसायन का नाम है एजिल सार्टन मीडोक्सोमिल है जो एआरबी टू पर क्रियाशील होता है। उच्च रक्तचाप खास तौर सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर के मरीजों में 40 एवं 80 मिली ग्राम की डोज के साथ प्रचलित एआरबी के साथ 24 सप्ताह, 6 सप्ताह, एक साल सहित अन्य समय तक देकर रक्त दाव में कमी का आध्यन किया तो पाया कि सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर में 14.9 से 15.8 तक की कमी आयी जबकि अन्य एआरबी में इतनी कमी नहीं आयी है। इंटरनेशनल जर्नल आफ हाइपरटेंशन के रिपोर्ट के मुताबिक यह नया रसायन 1.5 से तीन घंटे के अंदर खून में अधिकतम मात्रा तक बढ़ जाता है और 11 घंटे से अधिक समय बाद इसका असर आधा होता है मतलब प्रभाव लंबे समय तक रहता है। ब्रेन स्ट्रोक के 60 से 70 फीसदी मामले हाई बीपी के कारण होते है। देखा गया है कि किडनी खराबी के 20 फीसदी मामलों में हाई बीपी कारण होता है।
रेनिन- एंजियोटेंनसिन- एल्डोस्ट्रोन सिस्टम में गड़बडी से बढता है बीपी
संजय गांधी पीजीआइ के हृदय रोग विशेषज्ञ प्रो.सुदीप कुमार के मुताबिक ब्लड प्रेशर की दवाएं रेनिन- एंजियोटेंनसिन- एल्डोस्ट्रोन सिस्सटम में गडबडी आने पर बीपी बढ़ता है। कई बार एक दवा से नियंत्रित नहीं होता है तो कंबीनेशन में दवाएं देनी पड़ती है। दवा जो भी खोजी गयी है वह इसी पर क्रियाशील हो कर काम करती है । इस सिस्मटम पर काम करने के लिए एसीई इनहैबिटर( एंजियोटेंनसिन कनवर्टिंग एंजाइम), एंजियोटेंनसिन रिसेप्टर ब्लाकर(एआरबी) , मिनिरलोकार्टिकोसाइड रिसेप्टर एंटागोनिस्ट( एमआरए) और डायरेक्ट रेनिन इनहैबिटर रसायन खोजे गए हो ब्लड प्रेशर के नियंत्रण के लिए दिए जाते है। एआरबी पर काम करने के लिए पांच रसायन पहले से है अब नया रसायन आया तो काफी हद पहले से प्रभावी है।   


कैसे काम करती है यह
यह रसायन एंजियोटेंनसिन रिसेप्टर (2) व्लाकर पर क्रियाशील होता है। खून के प्लाज्मा में एंजियोटेनसिन 1 और 2 की मात्रा को बढाता है। एल्डोस्ट्रोन की मात्रा को कम करता है। यह पेरीफेरल रसिसटेंस को कम करता है । एडलोस्ट्रोन हारमोन के प्रभाव को कम करता है।  रक्त वाहिका के स्मूथ मसल को सामान्य करता है।

अब तक एआरबी
1986- लोसार्टन
1990- वालसार्चनस कांडीसार्टन, इरबासार्टन
1991- टेलमीसार्टन
1992- इपोसार्टन
1995- अलमीसार्टन 

बिना सिर खोले संभव होगा एन्यूरिज्म का इंडोवैस्कुलर ट्रीटमेंट- रेडियोलाजी विभाग ने इन मरीजों को जल्दी से जल्दी राहत दिलाने के स्पेशल अपीडी शुरू

बिना सिर खोले संभव होगा एन्यूरिज्म का इंडोवैस्कुलर ट्रीटमेंट


पीजीआइ में अब सेरीब्रल एन्यूरिज्म के इलाज का पक्का इंतजाम
रेडियोलाजी विभाग ने शुरू की ओपीडी


ब्रेन स्ट्रोक के हेमोरेजिक स्ट्रोक में एन्यूरिज्म के इलाज के लिए संजय गांधी पीजीआई के रेडियोलाजी विभाग ने इन मरीजों को जल्दी से जल्दी राहत दिलाने के स्पेशल अपीडी शुरू की है । विभाग के इंटरवेंशन रेडियोलाजिस्ट  प्रो.विवेक सिंह एवं प्रो.सूर्या नंदन के मुताबिक इन मरीजों को देखने और सलाह के विभाग में रोज डीएसए में शुरू की गयी है। विभाग के नाम से मरीज का पंजीकरण भी शुरू हो गया है। विभाग के पास तीस बेड उपपलब्ध हो जाने के कारण अब भर्ती करने की सुविधा है। बताया कि  मस्तिष्क में होने वाले एन्यूरिज्म के इंडोवैस्कुलर ट्रीटमेंट किया जाता है।  सर्जिकल क्लिपिंग और इंडोवैस्कुलर क्वॉयलिंग के जरिए एन्यूरिज्म में रक्त के प्रवाह को खत्म करना है। मस्तिष्क में होने वाले एन्यूरिज्म (सेरीब्रल एन्यूरिज्म) के इलाज में मेडिकल थेरेपी तब कारगर सिद्ध होती हैजब एन्यूरिज्म फटता नहीं है। वस्तुत: छोटे आकार का एन्यूरिज्म भी फट सकता है। एन्यूरिज्म के फटने (रप्चर) की स्थिति में इलाज के दूसरे विकल्प के रूप में सर्जिकल क्लिपिंग का इस्तेमाल किया जाता है।
यह ले सकते है सलाह
विशेषज्ञों ने बताया कि सिर में तेज दर्द, उल्टी, गर्दन में दर्द, हाथ –पैर में कमरोजी या लकवा, धुंधला या दो दिखना, आंख के ऊपर और नीचे दर्द, चक्कर आना की परेशानी हो तो वह लोग अपीडी में दिखा सकते है। कुछ लोगों में दौरा पड़ने की परेशानी हो सकती है

क्या है एन्यूरिज्म
 एन्यूरिज्म रक्तवाहिनी के एक भाग(धमनी) या कार्डिएक चैंबर में सूजन होने पर होती है। इसमें
तो रक्त वाहिनी नष्ट हो जाती है या फिर इसकी दीवार कमजोर हो जाती है। जब ब्लड प्रेशर का दबाव बढ़ता हैतब  रक्तवाहिनी कमजोर भाग पर गुब्बारे की तरह का आकार बना लेती है। एन्यूरिज्म के बढ़ने पर इसके फटने का खतरा बहुत ज्यादा बढ़ जाता है।

दिमाग में रक्तस्राव की मात्रा के आधार पर तय होता है इलाज

स्ट्रोक के कारण मस्तिष्क के अंदर 10 एम.एल.से कम रक्त बहा है।  तब सूजन कम करने वाली दवाएं दी जाती हैं। अगर रक्त 60 एम.एल. से ज्यादा निकला तब गंभीर स्थित होती है। 10 से 60 एम.एल. के बीच वाले रोगियों की स्थिति के अनुसार यह तय किया जाता है कि दवाओं से रोगी को लाभ मिलेगा या फिर सर्जरी से। स्ट्रोक के कारण रक्त नलिकाओं (आर्टरीज) के सिकुड़ना बडी परेशानी  है । इसमें मस्तिष्क में क्वायलिंग के साथ स्टेंट भी डालते हैं। इस कारण दिमाग की रक्त नलिकाएं खुली रहती हैं।

सोमवार, 6 जनवरी 2020

पीजीआइ के गैस्ट्रो सर्जन प्रो आनंद प्रकाश दिया स्तीफा-यहां काम करने के लिए है लिमिटेशन इससे दक्षता में आ रही थी कमी


पीजीआइ के गैस्ट्रो सर्जन प्रो  आनंद प्रकाश दिया स्तीफा
    




बडे प्रोफेसर की मोनोपोली से हो रहा है पलायन

60 से अधिक डाक्टर छोड़ चुके है संस्थान

यहां काम करने के लिए है लिमिटेशन इससे  दक्षता में आ रही थी कमी
  


संजय गांधी पीजीआई के गैस्ट्रो सर्जन प्रो. आनंद प्रकाश ने स्तीफा दे दिया है।   प्रो. प्रकाश ने 15 जनवरी 2007 में संस्थान ज्वाइन किया था । 13 साल की सेवा में लगभग 25 से 27 हजार मरीजों में जटिल सर्जरी को अंजाम दिया जिसमें 25 से अधिक सर्जरी की नई तकनीक खोजा । यह उपलब्धि तब है जब ओटी की कमी सहित कई संसाधन की कमियों का सामना किया। प्रो. प्रकाश ने बताया कि साल में 2 से 250 सौ मरीजों में सर्जरी करते रहे जिसमें छोटी, बडी आंत के कैंसर, खाने की नली के जटिलता, पैक्रियाज की सर्जरी सहित अन्य शामिल है। संस्थान छोडने के पीछे कारण निजि बताया लेकिन संस्थान के संकाय सदस्यों का कहना है कि इनका प्रमोशन विभाग के बडे प्रोफेसर नहीं होने दिया जिसके बाद यह कोर्ट गए जहां से प्रमोशन का आदेश जारी हुआ । एक दिन ओटी मिलती थी जबकि  क्षमता रोज दो से तीन सर्जरी करने की है। विभाग के पास ओटी की कमी भी नहीं है नई हिपैटोबिलेरी भवन मे काफी बेड और ओटी हैयहां पर काम करने की लिमिटेशन है जिसके कारण आगे हमारी दक्षता में कमी आ रही है।  हमारे पास मेंदांता का आफर है वहां ज्वाइन करेंगे। इनसे पहले गैस्ट्रो इंट्रोलाजिस्ट प्रो. अभय वर्मा और हार्ट सर्जन प्रो. गौरंग मजुमदार इसी महीने स्तीफा देकर चले गए। इन लोगों का भी कहना है कि संस्थान में बडे प्रोफेसरों की मोनोपोली है बिना इनके मर्जी के आप कुछ नहीं कर सकते है। आप उनके चहेते नहीं है तो सरवाइस करने के लिए तमाम समझौते करने पड़ते है इसी लिए मौका मिलते ही लोग यहां से चले जाते है। संस्थान के 30 साल में 60 से अदिक संकाय सदस्य छोड़ कर चले गए । 

शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

आर्टिफिशल इंटेलिजेंस खोलेगा फेफडे की परेशानी का राज-आर्टीफीसियल इंटेलीजेंस साफ्टवेयर फाऱ चेस्ट एक्स-रे बता देगा फेफडे की बीमारी की जानकारी

आर्टिफिशल इंटेलिजेंस खोलेगा फेफडे की परेशानी का राज

आर्टीफीसियल इंटेलीजेंस साफ्टवेयर फाऱ चेस्ट एक्स-रे बता देगा फेफडे की बीमारी की जानकारी
रेडियोलाजिस्ट की कमी के कारण नहीं हो पाती है चेस्ट एक्स-रे की रिपोर्टिंग
इलाज करने वाले डाक्टर ही खुद देखते है एक्स-रे
कुमार संजय। लखनऊ
भारतीय द यूनिवर्सटी आफ क्वींनलैंड आस्ट्रेलिया के  डा. अंकित शुक्ला ने ऐसा आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस साफ्ट वेयर बनाया है जो चेस्ट एक्स-रे को पढ़ कर फेफडो के तमाम परेशानियों को बता देगा । इस साफ्टवेयर को भारत में जानकल्याण के नजरिए से स्थापित करने के लिए संजय गांधी पीजीआइ के न्यूक्लियर मेडिसिन विभाग के प्रो. एके शुक्ला के साथ मिल कर काम कर रहे हैं। देश प्रदेश के अस्पतालों में चेस्ट एक्स रे होने के बाद सीधे मरीज को फिल्म पकड़ा दी जाती है क्योंकि रेडियोलाजिस्ट की संख्या इतनी कम है कि उनके पास एक्स-रे पढने  रिपोर्ट करने का टाइम नहीं होता खास तौर बड़े अस्पतालों मेंसीचएसीपीएचसी स्तर पर रेडियोलाजिस्ट होते ही नहीं है। इलाज करने वाले डाक्टर ही एक्स-रे देख कर बीमारी का अनुमान लगाते है जबकि एक्स-रे रिपोर्टिंग एक्सपर्ट से होनी चाहिए साफ्टवेयर फार चेस्ट एक्स रे स्थापित होने के बाद काफी हद कर रिपोर्टिंग के साथ ही रेडियोलाजिस्ट पर लोड कम होगा साथ ही इलाज करने वाले डाक्टर को भी काफी सहूलियत होगी।
खत्म हो जाएगी  एक्स-रे फिल्म रखने की झंझट
डा. अंकित शुक्ला के मुताबिक इससे एक्स-रे फिल्म की भी जरूरत खत्म हो जाएगी। एक्स-रे की डिटिटल फोटो को ही इस्तेमाल कर  साफ्टवेयर फेफडे में परेशानी का पता लगा लेगा। डिटिटल फिल्म न होने की दशा में एक-रे फिल्म की फोटो लेकर भी साफ्टवेयर एप्लाई कर रिपोर्ट की जा सकती है।
फेफडे की 15 बीमारी की आशंका कितनी
फेफडे में टीबीनिमोनियागांठपानीआईएलडी सहित 15 बीमारियां देखने को मिलती है। कई बार एक्स-रे में बीमारी की शुरूआत को डाक्टर नहीं भांप पाते है ऐसे में साफ्ट वेयर शुरूआती बदलाव को भी पकड़ कर बीमारी की जानकारी दे देगा। डा. अंकित शुक्ला लखनऊ के रहने वाले है।  बायो इंफार्मेटिक्स में क्वींस लैड यूनीवर्सटी आस्ट्रेलिया में पीएचडी कर रहे हैं।
कैसे काम करता है साफ्ट वेयर
साफ्ट वेयर में एकस-रे की पिक्टर डाउन लोड की जाती है फिर साफ्ट वेयर पूरे फिल्म को एलनाइज कर जो बदलाव होता है कितने फीसदी तक बदलाव है सामान्य के मुकाबले बता देता है। एक्स-रे की रिपोर्टिंग के लिए प्रो.एके शुक्ला से 9935330272 पर संपर्क कर फिल्म भेजी जा सकती है। डा. अंकित के मुताबिक साफ्ट वेयर कई हजार सामान्य और बीमारी वाले फिल्म को डाला गया जिससे वह बनावटी बौद्धिकता से किसी नए एक्स-रे फिल्म को अनलाइज कर बीमारी को बताता  है। 


रेटिनोपैथी कितनी बताएगा एआई
डा. अंकित शुक्ला ने मुताबिक डायबीटीज के कारण आंखों के परदे (रेटिना) की समस्या रेटिनोपैथी है। मरीजों के पर्दों के फोटो का ऐनालिसिस कर एक एआई  मशीन बता देगी   रेटिनोपैथी कितनी है और उसके इलाज के लिए आगे क्या किया जाना चाहिए। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के जरिए इस रेटिनोपैथी के लिए भी साफ्ट वेयर तैयार कर चुके हैं।
  

फायदे: मेडिकल के तमाम क्षेत्रों में लगभग डॉक्टरों की तरह ही डायग्नोज और ट्रीट कर सकने की क्षमता। धीरे-धीरे यह और बढ़ेगी। फिर मनुष्य की जगह ये मशीनें काम करने लगेंगी।

बुधवार, 1 जनवरी 2020

पीजीआइ के बडे प्रोफेसरों की कार्य प्रणाली से तंग छोड़ रहे है संस्थान डाक्टर

पेट रोग विशेषज्ञ ने कहा पीजीआइ को अलविदा , कई कर रहे है छोड़ने की तैयारी 
कई तो विभाग की कार्य प्रणाली से तंग होकर छोड़ देते है संस्थान


संजय गांधी पीजीआइ के एक और संकाय सदस्य ने संस्थान को अलविदा कह दिया तो कई कतार में है।  गेस्ट्रोइंट्रोलॉजी विभाग के पेट रोग विशेषज्ञ प्रो. अभय वर्मा
ने त्यागपत्र देकर मेदांता ज्वाइन कर लिया है। संस्थान छोडने के पीछे वह व्यक्तिगत कारण बता रहे है। हाल में ही इनको मिला कर तीन संकाय सदस्य संस्थान छोड़ चुके है । कई डॉक्टर संस्थान छोड़ने के लिए विभागाध्यक्ष को पत्र लिखकर भी दे दिया है। हाल में ही  पूर्व निदेशक और किडनी ट्रांसप्लांट एक्सपर्ट प्रो राकेश कपूर के अलावा संस्थान के छह अन्य डॉक्टरों ने वीआरएस (स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना) के लिए शासन को पत्र दिया था। शासन ने डॉ. राकेश कपूर का वीआरएस छोड़कर अन्य का नामंजूर कर दिया था।  कार्डियो वेस्कुलर थोरेसिक सर्जरी (सीवीटीएस) विभाग के हार्ट सर्जन प्रो. गौरंग मजूमदार ने संस्थान छोड़ दिया। ऐसे में पेट रोग विशेषज्ञ डॉ. अभय वर्मा के जाने से संस्थान को बहुत बड़ा झटका लगा है। संस्थान में चर्चा है कि गेस्ट्रो सर्जरी विभाग के एक वरिष्ठ सर्जन जल्द ही संस्थान को छोड़ देंगे। पीजीआई छोड़ने वाले डॉक्टर तो यही कहत है कि व्यक्गित कारणों से छोड़ रहे है लेकिन असलियत के बारे में संस्थान के एक संकाय सदस्य कहते है कि संस्थान के बडे प्रोफेसर के चहेते नहीं है तो  इन्हें काम नहीं करने देते है।  कई बार प्रमोशन भी रोक देते है। ऐेसे में विकल्प की तलाश में रहते है जैसे ही मौका मिलता है निकल लेते है। 

रोज सर्जरी की क्षमता ओटी केवल एक दिन
एक संकाय सदस्य का कहना है मेरी क्षमता रोज सर्जरी करने की है लेकिन सप्ताह में केवल एक दिन ओटी मिलती है बाकी दिन बैठ कर हम अपने क्षमता को नष्ट नहीं कर सकते है। इसके आलावा कारपोरेट अस्पताल के बारबर वेतन , भत्ते ,सुविधा न मिलना भी बडा कारण है। सरकार को विशेषज्ञों को रोकने के लिए कारपोरेट आस्पतालों की तरह डाक्टर सहित अन्य पैरामेडिकल विशेषज्ञों को फेलेक्सी वेतन देने पर विचार करना होगा। 

संकाय सदस्य ही टेक्नोलाजिस्ट और नर्सेज भी छोड़ गए संस्थान
नर्सिग एसोसिएशन की अध्यक्ष सीमा शुक्ला का कहना है कि हाल में आउट सोर्सिग पर तैनात लगभग 15   लैब, ओटी टेक्नोलाजिस्ट , नर्सेज कारपोरेट अस्पताल चले गए यहां पर 16 हजार मिलता था वहां पर 35 से 40 हजार पर गए है। यह लोग संस्थान में लंबे समय से काम कर रहे थे अपने कार्य के मास्टर थे और पीजीआइ का एक्सपोजर  मिलने से ऐर दक्षता आयी जिसका फायदा कारपोरेेट अस्पताल के मरीजो को मिलेगा। एम्स में संविदा पर वेतन 54 हजार है लेकिन पीजीआइ में 16 हजार ऐसे में पलायन तो होगा ही।