शुक्रवार, 9 मार्च 2018

अपनो के लिए खुद का जीवन नही रखता मायने

अपनो के लिए खुद का जीवन नही रखता मायने 


किडनी देकर बचायी इन लोगों ने जिंदगी 

वो जिंदगी से कभी हार नहीं मानती हैं। घर-परिवार से लेकर बाहर तक जिम्मेदारियां हंसकर निभाती हैं। इतना ही नहीं, यदि अपनों की जान पर बन आए तो अपनी जान तक देने को हो जाती हैं तैयार। ऐसी हैं ये वीरांगनाएं। जी हां, इस दौर में भी सीता, सावित्री और गांधारी जैसी महिलाओं की कमी नहीं है जो हर हाल में पति का साथ देने के लिए तैयार रहती हैं। फिर चाहे वह अंगदान ही क्यों न हो। आठ मार्च को मनाए गए वल्र्ड किडनी डे और महिला दिवस के मौके पर ऐसी ही कुछ शक्ति स्वरूपा महिलाओं से रूबरू होने का मौका मिला। ये वो महिलाएं थीं जिन्होंने पति की जान बचाने के लिए अपनी किडनी तक दान कर दी। ऐसे मामलों में पुरुष थोड़ा कतराते हैं, इस बात को कुछ महिलाओं ने स्वीकारा भी। पांच से दस मार्च तक मनाए गए ‘वल्र्ड किडनी डे’ के मौके पर पीजीआइ हॉस्पिटल में बुलाई गईं सक्सेसफुल किडनी डोनर महिलाओं ने संगिनी में साझा किए अपने अनुभव। कुसुम भारती की रिपोर्ट..

पति भी दे सकते हैं किडनी

आजमगढ़ की नीलम त्रिपाठी कहती हैं, मेरी शादी 2001 में हुई थी। पति की दोनों किडनी खराब होने की बात साल 2013 में पता चली। इसके बाद डायलिसिस शुरू हुआ। मेरी ज्वाइंट फैमिली है और जब बात आई पति को किडनी दान करने की तो कोई आगे नहीं आया। जब परिवार के किसी सदस्य ने साथ नहीं दिया तो मैंने अपनी किडनी दान करने का फैसला लिया। यदि मुङो जरूरत पड़ती तो वह भी मुङो किडनी दे सकते थे।

पति अपनी किडनी न देते शायद!

जौनपुर से चेकअप कराने आईं, अनीता देवी कहती हैं, एक अगस्त 2016 में पता चला कि पति की दोनों किडनी खराब हैं। यह सुनकर मैं परेशान हो गई कि अब क्या होगा। उस वक्त पति की पूना में पान की दुकान थी जिससे घर का खर्च चलता था। उनका इलाज कैसे होगा यही सोचकर परेशान थी। पूना में ही उनका डायलिसिस शुरू हो चुका था। मैं किसी भी तरह उनकी जान बचाना चाहती थी। फिर मैंने अपनी किडनी देकर उनकी जान बचाई। परिवार में बारह साल का बेटा और आठ साल की बेटी है। पति के इलाज के लिए सांसद निधि से तीन लाख रुपये और मुख्यमंत्री की ओर से पांच लाख रुपये दिए गए जिससे इलाज हुआ। वह कहती हैं, प}ी हमेशा पति का साथ देने को खड़ी रहती है। यदि यह रोग मुङो होता तो शायद पति कभी अपनी किडनी नहीं देते।

भाई-बहन भी नहीं हुए तैयार

कानपुर की विनीता यादव कहती हैं, 2012 में पति की किडनी खराब हुई थीं। तब से लगातार उनका इलाज चला। पति का लोहे के बुरादे का कारोबार है। किसी तरह कई सालों तक हम इलाज कराते रहे। डायलिसिस कराने से पति को भी कष्ट होता था। बार-बार कष्ट के साथ पैसा भी खर्च हो रहा था। पति के तीन भाई और तीन बहने हैं। मगर, किडनी देने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ। पर, मैं तो प}ी हूं इसलिए मुङो तो उनका साथ देना ही था। इस साल फरवरी में मैंने पति को अपनी किडनी दी। मेरा मानना तो यही है कि ऐसे काम केवल प}ियां ही कर सकती हैं।


पति की सोच पर निर्भर करता है सब

गोंडा की मंजू सिंह कहती हैं, पति सउदी अरब में काम करते थे। जब वहां उनकी तबियत ज्यादा खराब हुई तो वह इंडिया आ गए। इलाज के दौरान 2013 में पता चला कि उनकी दोनों किडनी खराब हैं। परिवार में ससुर, सास हैं जो शुगर की मरीज हैं। दो देवर और दो ननद हैं। किडनी देने के नाम पर कोई आगे आने को तैयार नहीं था। फिर मैंने उन्हें किडनी देने का फैसला लिया। जांच के दौरान जब मेरी किडनी में पथरी का पता चला तो डॉक्टरों ने कहा कि पहले तुम्हारा ऑपरेशन करेंगे उसके बाद किडनी ट्रांसप्लांट करेंगे। वह कहती हैं, पति-प}ी गाड़ी के दो पहिए हैं और एक-दूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं। पर, अंगदान जैसे गंभीर मुद्दे पर प}ी तो तुरंत तैयार हो जाती है, लेकिन पति ऐसा करेगा या नहीं यह उसकी सोच पर निर्भर करता है।

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पति से है पत्नी की पहचान

ट्रांसपोर्ट नगर, लखनऊ निवासी, नविता श्रीवास्तव कहती हैं, अपने शरीर का एक अंग देना किसी के लिए भी बड़ी बात है। हर किसी के लिए यह इतना आसान नहीं है, पर एक प}ी की पहचान तो पति से ही होती है इसीलिए प}ियां आसानी से अपनी किडनी देने को तैयार हो जाती हैं। 2014 में मैंने पति को अपनी किडनी दी। वह पहले ही मुङो बहुत प्यार करते थे। ट्रांसप्लांट के बाद अब तो और भी चाहने लगे हैं क्योंकि उनका कहना है कि इतना बड़ा काम प}ी ही कर सकती है।

बड़ी हिम्मत का काम है अंगदान

महानगर निवासी साधना मिश्र कहती हैं, पति दिनेश मिश्र पीएसी में पुलिस इंस्पेक्टर हैं। 2011 में धीरे-धीरे लक्षण दिखने लगे फिर इलाज शुरू हुआ। सख्त ड्यूटी के चलते उनका ठीक से इलाज शुरू नहीं हो पाया। मैंने सोचा कि बार-बार डायलिसिस कराने से अच्छा है कि किडनी ट्रांसप्लांट करा दी जाए। परिवार में ससुर और देवर भी हैं पर ससुर को कैंसर और देवर डायबिटिक हैं इसलिए उनसे कह नहीं सकती थी। मैं खुद अस्थमा की मरीज हूं पर डॉक्टरों ने मुङो दिलासा दिया कि इलाज के बाद मैं पति को किडनी दे सकती हूं। 2015 में मैंने अपनी किडनी पति को दान दी। अपने शरीर का हिस्सा किसी को देना बहुत हिम्मत का काम है पर मुङो लगता है ज्यादातर प}ियां इस काम को आसानी से निभा ले जाती है।

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जागरूकता की कमी है

इंदिरानगर निवासी, श्रीवृद्धि शर्मा कहती हैं, किडनी को लेकर अभी भी लोगों में अवेयरनेस नहीं है, खासतौर से महिलाओं में। जब मुङो यह पता चला कि नेफ्रोटिक सिंड्रोम की बीमारी से ग्रस्त हूं तो मैं खुद हैरान रह गई थी। पीजीआइ में मेरा इलाज कर रहे डॉ. नारायन ने बताया कि यह किडनी की ऐसी बीमारी है जो बहुत रेयर है और लाखों में किसी एक को होती है। इस बीमारी के बारे में लोगों को जागरूक होने की जरूरत है। 2017 में मेरे चेहरे वगैरह पर सूजन आने लगी थी। उस वक्त मैं एमबीए करने इंदौर गई थी। डॉ. नारायन के इलाज के बाद मैं बिल्कुल ठीक हो गई। हालांकि, बीमारी का पता लगने के बाद मेरे पापा किडनी देने को तैयार थे, पर ऐसी नौबत आई नहीं।







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