गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

.तो पीएचसी स्तर पर संभव होगी प्रोस्टेट कैंसर की जांच सीबीएमआर ने खोजा बायोमार्कर

 

...तो पीएचसी स्तर पर संभव होगी प्रोस्टेट कैंसर की जांच

 सीबीएमआर ने खोजा बायोमार्कर दक्षता जानने के लिए  संस्थानों से करार

 

प्रोस्टेट कैंसर का पता शुरूआती दौर में वह भी पीएचसी स्तर पर लगाने के लिए सेंटर आफ बायोमेडिकल रिसर्च ने रोड मैप तैयार कर लिया है। सेंटर के निदेशक डा. आलोक धावन के मुताबिक हमने प्रोस्टेट कैंसर के लिए चार बायोमार्कर का पता लगा है जिसके आधार पर इस कैंसर का पता शुरूआती दौर में लगाने के साथ कैंसर के स्टेज का भी पता लगाना  संभव है। इन बायोमार्कर का पता लगाने के लिए सेंटर ने तीन सौ अधिक मरीजों पर शोध जिसे विश्व स्तर पर मान्यता भी मिली है। इन बायोमार्कर का और अघिक मरीजों पर परीक्षण करने के लिए किंग जार्ज मेडिकल विवि, राम मनोहर लोहिया संस्थान के अलावा एम्स जोधपुर से करार किया है।  अधिक मरीजों पर शोध होगा तभी इन बायोमार्कर की सेंसटिवटी और स्पेसीफिसिटी यानि टेस्ट का सटीक है यह पता लगेगा। इसके बाद हम किट बनाने वाली कंपनी से करार करेंगे जो सरल तरीके से ऐसी किट बनाएगी जिससे पीएचसी लेवल पर जांच संभव हो सके। पीएचसी स्तर पर हिपेटाइटिस , प्रिगनेंसी सहित तमाम टेस्ट कार्ड या एग्यूलिटेशन के रूप में संभव हैं।    

 

यह परेशानी तो लें सलाह

-जलन और पेशाब में दर्द

-पेशाब करने और रोकने में कठिनाई

-रात में बार-बार पेशाब करने की इच्छा होना

-मूत्राशय के नियंत्रण में कमी

-मूत्र प्रवाह में कमी

-मूत्र में रक्त (हेमट्यूरिया)

-सीमेन में रक्त

लक्षण प्रारंभिक अवस्था में दिख सकते हैं या नहीं भी दिख सकते। अधिकांश प्रोस्टेट कैंसर का शुरुआत में पहचान करना मुश्किल है।

 

बेंच टू बेड निति पर काम करेगा सेंटर

 

प्रो.आलोक ने कहा कि यह प्रदेश का अकेला विशेष सेंटर है जो बीमारी का पता शुरूआती दौर पर  लगाने के लगातार शोध कर रहा है। तमाम शोध विश्व स्तर पर स्वीकार भी किए गए । इन शोधों का फायदा मरीजों  मिले इसके लिए बेंच टू बेड नीति पर काम शुरू किया है जिसका फायदा जल्दी मरीजों को मिलेगा।   

अब पहले पता लग जाएगा किसमें सफल होगा कॉकलियर इंपलांट- बच्चों में सुनाई देने का सटीक इलाज होगा संभव

 अब पहले पता लग जाएगा किसमें सफल होगा कॉकलियर   इंपलांट



सीबीएमआर ने स्थापित की तकनीक





अब जंम जात या किसी अन्य कारण ने सुनाई न देने की परेशानी से राहत दिलाने के लिए होने वाले कॉकलियर इंपलांट की सफलता का पता इंपलांट से पहले लगाया जा सकता है। सेंटर आफ बायोमिडकल रिसर्च(सीबीएमआर) ने ऐसी तकनीक स्थापित की है जिसमें फंक्सनल एमआरआई के जरिए दिमाग की प्लास्टीसिटी देख कर बताया जा सकता है कि इंपलांट कितना सफल होगा। इससे इंपलांट की सफलता दर काफी बढ़ जाती है। सेंटर के निदेशक प्रो.आलोक धावन के मुताबिक हम लोगों ने 50 से अधिक सुनाई न देने की क्षमता वाले बच्चों में शोध के साबित किया है कि दिमाग की प्लास्टीसिटी( लचीलापन) के आधार पर इंपलांट की सफलता का आकलन किया जा सकता है। जिन बच्चों में प्लास्टीसिटी अधिक होती है उनमें इंपलांट सफल होता है।  कॉकलियर लगने के बाद उनमें पूरी क्षमता से सुनाई देने लगता है। इस शोध के बाद हम लोगों ने रूटीन तौर पर जांच करने लगे है जिसमें बताते है कि किसमें यह सफल होगा।  संजय गांधी पीजीआइ के न्यूरो ईएनटी विभाग के प्रो.अमित केशरी के साथ मिल कर यह शोध किया गया । अब विभाग किसी भी मरीज में इंपलांट से पहले जांच करा कर सफलता का आकलन कर लेते है। विशेषज्ञों का कहना है कि  कॉकलियर इंपलांट काफी मंहगा होता है इसलिए लगने के बाद अपेक्षित परिणाम न मिले तो यह दुखद स्थित मरीज और चिकित्सक दोनों के लिए होती है। इस शोध के बाद दोनों लोगों को संतुष्टि मिलती है।

6 से 10 साल के बच्चों में भी संभव होगा इंपलांट

एक से तीन साल में बेस्ट रिजल्ट देता है लेकिन 6 साल तक करते है लेकिन 6 से 10  साल के बाद वाले बच्चों में क्यों नहीं करना है इसके लिए कोई मानक नहीं था जिससे जानने के लिए शोध किया गया किया तो पता चला कि फंक्सनल एमआरआई इस उम्र के बच्चों में कुछ हद तक इंपलांट का फैसला ले सकते हैं।  

 कैसे होता है इंप्लांट

कॉकलियर इंप्लांट उपकरण है, जिसे सर्जरी के द्वारा कान के अंदरूनी हिस्से में लगाया जाता है और जो कान के बाहर लगे उपकरण से चालित होता है। कान के पीछे कट लगाते है और मैस्टॉइड बोन (खोपड़ी की अस्थाई हड्डी का भाग) के माध्यम से छेद किया जाता है। इस छेद के माध्यम से इलेक्ट्रॉइड को कॉक्लिया में डाला जाता है। कान के पिछले हिस्से में पॉकेट को बनाया जाता है, जिसमें रिसीवर को रखा जाता है।  सर्जरी के लगभग एक महीने के बाद, बाहरी उपकरणों जैसे माइक्रोफोन, स्पीच प्रोफेसर और ट्रांसमीटर को कान के बाहर लगा दिया जाता है।

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

खोजा एसाइटिस से राहत दिलाने के लिए नुस्खा

 

पीजीआइः खोजा एसाइटिस से राहत दिलाने के लिए नुस्खा

लिवर सिरोसिस के मरीजों को मिली राहत नुस्खे को मिली विश्व स्तर पर मान्यता  


लिवर सिरोसिस या पेट की दूसरी बीमारी के कारण पेट में पानी भरने की परेशानी(एसाइटिस) से निजात दिलाने के लिए संजय गांधी पीजीआइ ने एक नया नुस्खा खोज लिया है। इस नुस्खे से गंभीर मरीज की जिंदगी की डोर लंबी हो रही है। इस नुस्खे को जर्नल आफ क्लिनिकल एंड एक्परीमेंटल हिपैटोलाजी के अलावा अमेरिकन गैस्ट्रोइंट्रोलाजी सोसाइटी के अलावा तमाम पेट रोग विशेषज्ञों के संगठनों ने स्वीकार किया। इस नुस्खे का खोज करने वाले पेट रोग विशेषज्ञ डा. गौरव पाण्डेय ने 40 से अधिक एसाइटिस के मरीजों में शोध के किया है।  इससे मरीज की स्थित में काफी सुधार आया। विशेषज्ञों का कहना है कि पेट में पानी भरने( एसाइटिस) होने पर पानी निकाला जाता है जिसमें कई तरह की परेशानी की आशंका रहती है। नए नुस्खे में एलब्यूमिन के साथ फ्यूरोसीमाइड के खास मात्रा में मिला कर इंट्रावेनस चढाया जाता है। किस मरीज में कितना नुस्खा देना है यह स्थिति के आधार पर तय करते हैं। इस नुस्खे का कोई कुप्रभाव भी नहीं है। डा. गौरव ने लिवर  सिरोसिस में नुस्खा कारगर है

 

नए नुस्खे से बच गया 23 वर्षीय युवक का जीवन

 

यह तो साबित किया ही था हाल में ही बड़ चैरी सिंड्रोम से ग्रस्त 24 वर्षीय रजक जो क्लीनिकल इम्यूनोलाजिस्ट प्रो.विकास अग्रवाल के देख –रेख में भर्ती था । उनमें भी पेट में पानी भर गया जिसके कारण जीवन खतरे में पड़ गया था। प्रो.विकास ने डा. गौरव पाण्डेय के सहयोग से इस परेशानी से मुक्ति दिला कर उसका जीवन बचा लिया। रजक अब पूरी तरह ठीक है।    

क्या है एसाइटिस

लिवर सिरोसिस, बड चैरी सिंड्रोम सहित तमाम पेट की बीमारी में पेट की कैवटी में पानी भरने लगता है जिससे पेट फूल जाता है। कई बार स्थित गंभीर हो जाती है। लिवरकैंसरकंजस्टिव हार्ट फेलियर या किडनी जैसी अन्य बीमारियों की वजह से पेट (एब्डॉमिनल कैविटी) में पेल येलो या पानी की तरह तरल पदार्थ जमा होने लगता हैजिसे एसाइटिस कहते हैं। एब्डॉमिनल कैविटी और चेस्ट कैविटी डायफ्रम से अलग होती है।

 

यह होती है परेशानी

- पेट फूल जाना

-अचानक वजन कम होना

-पेट में सूजन आना

-लेटने के दौरान सांस लेने में परेशानी महसूस होना

-भूख कम लगना

-पेट में दर्द महसूस होना

-मितली और उल्टी होना

-सीने में जलन महसूस होना

क्यों होती है परेशानी

 

क्यो होता है एसाइिटस

लिवर में घाव की वजह से एसाइटिस की समस्या होती है। इससे ब्लड वेसेल्स में ब्लड का दवाब बढ़ता है। दवाब बढ़ने की वजह से एब्डॉमिनल कैविटी में तरल पदार्थ जमा होने लगता हैजिस कारण एसाइटिस की बीमारी होती है

रविवार, 13 दिसंबर 2020

आधार कार्ड की तरह होगा जीनोम कार्ड जो बताएगा कौन सी दवा होगी कारगर

 

आधार कार्ड की तरह होगा जीनोम कार्ड जो बताएगा कौन सी दवा होगी कारगर 
पीजीआइ ने किया है कई शोध संस्थान से समझौता बढ़ेगी रफ्तार


वह दिन दूर नहीं है जब हर व्यक्ति के पास आधार कार्ड की तरह जिनोमकार्ड होगा जिसके जरिए डाक्टर जीनोम के आधार पर पता लगा लेंगे कि किस मरीज में कौन सी दवा कारगर साबित होगी। इस दिशा में कई स्तर पर काम हो रहा है। इंजीनिंयरिंग और चिकित्सा विज्ञान की संयुक्त शोध के जरिए यह संभव होने  जा रहा है। सुपर कंप्यूटर के जरिए हम लोग डीएनए, आरएनए की गुत्थी सुलझा रहे है इसे जिनोम स्टडी कहते है। यह व्यक्ति का जीनोम अलग होता है। इंडियन इंस्टीट्यूट आफ इंफार्मेनशन टेक्नोलॉजी रायपुर के डा. प्रदीप सिन्हा ने संजय गांधी पीजीआइ में शोध दिवस पर आयोजित वेबीनार कम सेमिनार के मौके पर कहा कि अभी एक समान लक्षण वाले या बीमारी वाले मरीज में जो दवा प्रचलित होती है दी जाती है । इस दवा से कुछ लोगों को फायदा होता है तो कुछ लोगों को दवा से फायदा नहीं होता है। चिकित्सक फिर कारण खोज कर दूसरी दवा देता है कई बार यह दवा भी कारगर साबित नही होती है ऐसे में बीमारी बढ़ती जाती है। इस तमाम परेशानी को देखते हुए बहुत तेजी से पर्सनलाइज्ड मेडिसिन पर काम हो रहा है जिसमें व्यक्ति के जीनोम के आधार पर दवा बनेगी और मरीज को दी जाएगी। हर व्यक्ति के पास आधार कार्ड की तरह जीनोम कार्ड होगा जिसे लेकर मरीज़ डाक्टर के पास जाएगा डाक्टर रीडर में कार्ड रीड करेगा और बता देगा कौन सी दवा किस मरीज में कारगर होगी। संस्थान के पिडियाट्रिक मेडिसिन विभाग के डा.मोनिक सेन शर्मा ने सुक्षाव दिया कि लखनऊ में ही कई शोध संस्थान है जो फैकल्टी नई है उनका वहां पर कोई परिचय नहीं है इन संस्थान के साथ काम करने के लिए एक प्लेट फार्म की जरूरत है जिसके बारे में रिसर्च सेल के प्रभारी प्रो.यूसी घोषाल ने बताया कि कई संस्थान के हम लोगों शोध के लिए समझौता किया है आने वाले दिनों में जूनियर फैकल्टी को शोध के कई मार्ग खुूलेंगे। प्रो.अमित केशरी ने कहा कि संस्थान के आईआईटी कानपुर के साथ साथ काम करने के लिए संस्थान में कोर लैब की तरह लैब की जरूरत है जिस पर संस्थान प्रशासन कामकरने की बात कही। इस मौके पर रजिस्ट्रार प्रो.सोनिया नित्यांनद, डीन प्रो.एसके मिश्रा,  माइक्रोबायलोजी विभाग की प्रमुख प्रो.उज्वला घोषाल सहित अन्य संकाय सदस्यों ने शोध पर बल देते हुए कहा कि शोध के बिना इलाज की नई दिशा तय करना संभव नहीं है। 

पीजीआई में बढेगा शोध का बजट
निदेशक प्रो.आरके धीमन ने कहा कि शोध के वर्तमान बजट को तीन गुना तक बढाने के योजना पर काम शुरू कर दिया है। इंट्रामुरल शोध के लिए बजट बढने के बाद अधिक संकाय सदस्यों को शोध का मौका मिलेगा । इसके साथ जो संकाय सदस्य पीएचडी करना चाहेंगे उनके लिए शोध का मार्ग प्रसस्त किया जाएगा। 

मरीज देखने के साथ करें लैब में शोध

नेशनल मेडिकल काउंसिल के प्रमुख डा.एसके सरीन ने कहा कि चिकित्सक को हाई ब्रिड होना पड़ेगा। मरीज देखने के साथ उन्हें लैब में रिसर्च करना होगा क्योंकि दिमाग किसी का हाथ किसी का होने से शोध संभव नहीं है। संजय गांधी पीजीआईजैसे संस्थान में ही केवल चिकित्सक लैब में शोध भी कर रहे है लेकिन इनकी संख्या भी कमहै। इस लिए संकाय सदस्यों को पीएचडी करना और करने की जरूरत पूरे देश के मेडिकल संस्थानों में है।

रविवार, 22 नवंबर 2020

अब कृत्रिम त्वचा से भरेगा घाव दिखेगा स्पाट लेस- पीजीआई में कृत्रिम त्वचा का रोपण

 


अब कृत्रिम त्वचा से भरेगा घाव दिखेगा स्पाट लेस

पीजीआई में कृत्रिम त्वचा का रोपण


बस्ती जिले रहने वाले  राम स्वरूप के चहरे का  कैंसर निकला , जल्दी भरा घाव और नहीं रहेगा चहरे पर निशान । यह संभव हुआ है  कृत्रिम त्वचा के रोपण तकनीक से जिसे संजय गांधी पीजीआई के प्लास्टिक सर्जरी विभाग ने स्थापित कर लिया है।  राम स्वरूप  वर्ष से मुंह कि त्वचा  कैंसर से ग्रस्त थे। यह कैंसर उनक के गाल और नाक के बीच के भाग मे में स्थित था। सामान्यतः ऐसे रोगी का आपरेशन दो चरणों मे किया जाता है जिसमें कि पहले चरण मे कैंसर को निकाला जाता है  दुसरे चरण मे कैसर निकालने  के बाद उत्पन्न घाव  में त्वचा प्रत्यारोपित कि जाती है इस पूरी प्रक्रिया में 2 से चार घंट का समय लग जाता है।  इस मरीज कैंसर निकालने के बाद कृत्रिम त्वचा (इंटिगरा) का सफल उपयोग किया गया और इसको लगाने से रोगी का घाव शीघ्र हीं भर गया। पहले त्वचा निकल जाने पर उसे ठीक करने के लिए फ्लैप तकनीक से त्वचा का रोपण करता था जिसमें तमाम तरह की परेशानी की आशंका रहती थी । विभाग के प्रमुख प्रो. राजीव अग्रवाल के मुताबिक फ्लैप तकनीक में त्वचा शरीर के किसी बाहरी अंग से निकाली जाती थी जहां से त्वचा लेते है वहां निशान पडता था साथ ही कई जहां रोपित की जाती थी वहां पर यह चिपकता नहीं था । इस तकनीक में चार से पांच घंटे लगने के बाद भी त्वचा रोपण की सफलता की आशंका रहती है। कृत्रिम त्वचा आ गयी है जिसे इंटिग्रा कहते है यह डर्मिस  का काम करती है । इसका रोपण करने के कुछ दिन बाद स्किन ग्राफटिंग की जाती है जिससे घाव जल्दी भरने के साथ किसी तरह का निशान नहीं रहता है। इंटिगरा एक बहुत ही  उपयोगी संसाधन है। सबी तरह के छोटे आकार के घाव कि प्लास्टिक सर्जरी में अत्यंत कारगर है।

 

 

3 से 4 सेंमी के घाव खुद जाते है भर   

 घाव का के भरने कि कुदरती क्षमता होती है और ऐसे सारे घाव जो अमुमन तीन से चार सेंटीमीटर तक चोडे होते है  वह व्यक्ति कि शारीरिक क्षमता से अपने आप ही  कुछ समय के  बाद भर जाते  है इन मानकों से अधिक बड़े होते है वे स्वतः नही भर पाते हैं उनमें त्वचा प्रत्यारोपण कि आवश्यकता हाती  है। अधिकांश घावों कि प्लास्टिक सर्जरी में त्वचा कि पतली परत हीं इस्तेमाल कि जाती हे और फ्लैप प्रोसिजर कम मात्रा में किया जाता हैं।

पुरूष महिलाओं के मुकाबले अधिक होते है विकलांगता के शिकार - दो फीसदी लोग विकलांगता के शिकार

 


पुरूष महिलाओं के मुकाबले अधिक होते है विकलांगता के शिकार 





दो फीसदी लोग विकलांगता के शिकार 

कुशीनगर विकलांगता के मामले में सबसे ऊपर और ज्योतिफुलेनगर सबसे कम 

पुरूष महिलाओं के मुकाबले अधिक होते है विकलांगता के शिकार 


कुमार संजय। लखनऊ 


 विकलांगता के दुख को समझने के लिए थोड़ी देर के लिए ही अपने एक पांव को 
बाँधकर कुछ देर चल कर देखें या एक हाथ से दिन भर काम करें, शायद ऐसा करने से 
भी आपको उनके कष्टों का मात्र एक प्रतिशत ही अनुभव होगा।  विकलांगता को मुख्य: 
दो भागों में बाँटा गया है. पहला शारीरिक और दूसरा मानसिक लेकिन विकलांगता 
चाहे जो भी हो वह जीवन को अत्यंत दुश्वार बना देती है। आंकडे गवाही दे रहे है 
कि  प्रदेश के हर एक लाख में से 2081 लोग विकलांगता के शिकार है। दो फीसदी लोग 
किसी न किसी विकलांगता के शिकार है। पूर्वाचल का कुशीनगर विकलांगता में पहले 
स्थान पर है । पुरूष महिलाओं की मुकाबले अधिक विकलांगता के शिकार है।  हाल में 
ही जर्नल आफ पब्लिक हेल्थ एंड रिसर्च के शोध प्रिवलेंस आफ डिसएबिलिटी इन उत्तर 
प्रदेश के शोध में बताया गया है कि सबसे अधिक सुनने की परेशानी 514 प्रति लाख 
है। देखने की परेशानी 382 प्रति लाख और चलने फिरने में परेशानी में 339 प्रति 
लाख लोगों में है। कारण के बारे में विशेषज्ञों का कहना है कम उम्र में चोट और 
अधिक उम्र में शारीरिक है जबकि मानसिक और बौद्धिक विकलांगता का कारण भी कई बार 
जंम जात है तो कुछ लोगों में उम्र है। शोध रिपोर्ट के मुताबिक सबसे अधिक 
विकलांगता के शिकार 60 से अधिक उम्र के लोग देखे गए है जिसमें सभी प्रकार की 
विकलांगता शामिल है। विकलांगों के प्रति समाज का दृष्टि कोण बदलने के लिए हम 
एक को अपने को बदलना होगा। 



टाप 10 जिले प्रति लाख विकलांगता 

कुशीनगर- 3922 

गाज़ियाबाद- 3102 

प्रयागराज-2992 

बलिया-2802 

आगरा-2748 

कौशांबी-2666 

लखनऊ-2616 

वाराणसी-2615 

जौनपुर-2600 

कानपुर नगर-2449 



सबसे कम विकलांगता वाले 10 जिले प्रति लाख 



ज्योतिफुलेनगर-1447 

बलरामपुर-1447 

ललितपुर-1500 

बांदा-1524 

चित्र कूट-1566 

संतकबीरनगर-1589 

मुज़फ़्फरनगर-1602 

हमीरपुर-1603 

चंदौली-1636 

आजमगढ़-1638 

किस आयु वर्ग में कितनी है विकलांगता प्रति लाख 

0 से 9- 1644 

20 से 39- 2070 

40 से 59-2314 

60 से अधिक-4276 



किस लिंग और परिवेश में कितना 

पुरूष-2263 

महिला-1881 



ग्रामीण-2039 

शहरी -2227 



किस उम्र में कितनी कौन सी परेशानी 

परेशानी   0-19        20-39          40 – 59       60 से अधिक 



देखने-   283            311            451         1112 

सुनने-   439            493            558         947 

बोलने –  115            144           152         163 

चलने-   202              403           375        878 

मानसिक – 81            110            96         70 

बौद्धिक-  25              51           54         44 

कई परेशानी- 85          84             85         396 



विकलांगों की साक्षरता दर 

एनएसओ यानि नेशनल स्टेटिस्टिकल ऑफिस के अनुसार विकलांगों की साक्षरता दर को 
मापने के लिए उन्हें अलग- अलग उम्र समूह में बांटा गया है। 7 या उससे अधिक 
उम्र के विकलांगों की साक्षरता दर 52.2 थी। 15 या उससे अधिक उम्र के विकलांगों 
में 19.3 प्रतिशत हाई सेकेंड्री या उसे अधिक स्तर तक पढ़ाई कर चुके हैं और 3 
से 35 की उम्र के विकलांगों में सिर्फ 10.1 प्रतिशत ऐसे लोग थे जो प्री- स्कूल 
कार्यक्रम में शामिल हुए हैं। 



इस वर्ग को सरकारी मदद 





3.7% विकलांग आत्मनिर्भर हैं अकेले रहते हैं। 62.1% विकलांगों की देखभाल करने 
के लिए केयर टेकर हैं। 21.8% लोगों को सरकार से सहायता मिलती थी, वहीं 1.8% 
विकलांगों की निजी संस्थान सहायता कर रही थी। 



नौकरी में स्थिति 



15 साल या उससे अधिक उम्र समूह की बात करें तो, श्रम बल भागीदारी दर विकलांगों 
में 22.8 प्रतिशत थी। वहीं बेरोजगारी दर 15 और उसे अधिक व्यक्तियों में 4.2 
प्रतिशत है। 




ट्रॉमा विश्‍व भर में मृत्‍यु और विकलांगता का सबसे बड़ा और प्रमुख कारण है। 
इससे निपटने के लिए जरूरी प्रशिक्षण दिया जाए तो काफी हद तक इन मौतों और 
विकलांगता को रोका जा सकता है। इस तरह की मौतों पर अंकुश न लग पाने का सबसे 
बड़ा कारण लोगों को इसके बारे में जरूरी प्रशिक्षण न  होना और मदद के लिए आगे 
न आना  भी है....प्रो. रूचिका टंडन न्यूरोलाजिस्ट एसजीपीजीआई 

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

टैप तकनीक और खास रसायन किडनी डोनर में दर्द करेगा छू - पीजीआई ने स्थापित की सर्जरी के बाद दर्द को ना करने की नई तकनीक

 



टैप तकनीक और खास रसायन किडनी डोनर में दर्द करेगा छू

 

पीजीआई ने स्थापित की सर्जरी के बाद दर्द को ना करने की नई तकनीक

विश्व स्तर पर मिली मान्यता

 

संजय गांधी पीजीआई ने किडनी देने वाले लोगों को दर्द से राहत दिलाने के लिए नई तकनीक स्थापित की है जिसे इंटरनेशनल स्तर पर स्वीकार किया गया है। इस तकनीक का नाम है ट्रांसवर्स एब्डामिनल प्लेन ब्लाक( टैप ) जिसमें किडनी निकालने के लिए जहां चीरा लगा होता है वहां अल्ट्रासाउंड से देखते हुए मांस पेशियों में खास दर्द से राहत दिलाने वाली दावाएं इजेक्ट की जाती है। इस तकनीक स्थापित करने वाले संस्थान के एनेस्थेसिया एवं पेन मैनेजमेंट एक्सपर्ट प्रो.संदीप साहू ने इस तकनीक में दी जाने वाले खास रसायन का पर शोध किया तो देखा कि लिवोवीकेन रसायन अभी तक दे जाने वाले रसायन के मुकाबले काफी असरदार और सुरक्षित है। इस रसायन की टाक्सीसिटी( विषाक्तता) अन्य के मुकाबले काफी कम है। एक बार इंजेक्ट करने पर किडनी दाता को 12 से 24 घंटे तक दर्द तक एहसास नहीं होता है। प्रो. साहू के मुताबिक किडनी देने वाले को किडनी देने के बाद दर्द न के बराबर हो इसके लिए हमने शोध किया । इसके लिए दो खास रसायन का रोपीवीकेन और लीवोवीकेन के प्रभाव का अध्ययन किया जिसके लिए किडनी देने वाले कुल 120 लोगों पर शोध किया । किडनी निकलाने के लिए होने वाली सर्जरी के बाद इनमें इन रसायन को इंजेक्ट करने के बाद दर्द का स्कोर देखा । साथ दर्द कितने घंटे बाद महसूस हुआ इसका अध्ययन किया तो पाया कि लीवोवीकेन और रोपी वीकेन से 12 से 24 घंटे तक दर्द का एहसास नहीं हुआ। कई बार रसायन रक्त संचार में भी जा सकता है क्यों कि मांसपेशियों में रक्त का प्रवाह होता है ऐसे में लीवोवीकेन काफी सुरक्षित है।

 

किडनी दाता में बढेगा आत्मविश्वास

 

किडनी देने के लिए सर्जरी होती है जिसमें दर्द के एहसास से कई दाता परेशान होते है इस शोध के बाद तमाम किडनी दाता को दर्द का एहसास नहीं होगा तो वह दूसरे को बताएंगे कि दर्द तो होता ही नहीं इससे परिजन किडनी देने के लिए आगे आएंगे।   

 

ऐसे हुआ शोध

संस्थान के विशेषज्ञों ने कपैरिजन आफ एनालजेसिक इफीसिएंसी आफ रोपीवीकेन एंड लीवोवीकेनल  इन अल्ट्रा साउंड गाइडेड ट्रांसवर्स एवडोमिनिस प्लेन ब्लाक एंड पोर्ट साइट इनफिल्टरेशन इन लेप्रोस्कोपिक नेफ्रेक्टमी विषय को लेकर शोध किया जिसमें मुख्य शोध करता प्रो संदीप साहू के आलावा डा. जाकिया सईद, डा. तपस कुमार सिंह, डा. दिव्या श्रीवास्तव , किडनी ट्रांसप्लांट एक्सपर्ट और यूरोलाजी विभाग के प्रमुख  प्रो. अनीश श्रीवास्तव और किडनी रोग विशेषज्ञ प्रो. धर्मेद्र भदौरिया ने शोध किया जिसे जर्नल आफ एनेस्थेसिया ने स्वीकार किया है। 

सोमवार, 16 नवंबर 2020

एक तिहाई लोगों को यह नहीं पता कि वह डायबटिक - हर तीसरे में डायबटीज की आशंका

 








एक तिहाई लोगों को यह नहीं पता  कि वह डायबटिक  

हर तीसरे में डायबटीज की आशंका

 कुमार संजय। लखनऊ

संजय गांधी पीजीआइ के इंडोक्राइनोलाजिस्ट प्रो.सुशील गुप्ता तमाम शोध के बाद कहा कि राजधानी के बुजुर्गों में हर तीसरे को डायबिटीज अपनी चपेट में ले रहा है। वहीं 20 से 70 वर्ष की कुल आबादी को मिला लें तो इस रोग से 9 प्रतिशत लोग जूझ रहे हैं। इनमें से एक तिहाई लोगों को पता ही नहीं होता कि वे डायबेटिक हैंजो डायबिटीज से जुड़ी कॉम्प्लीकेशन को और बढ़ा देती है। प्रो. सुभाष कहते है कि हमने शोध किया तो पाया कि 16 प्रतिशत नागरिकों का शुगर लेवल उन्हें डायबिटिक बताने के लिए काफी था। साथ ही सामने आया कि इनमें से एक तिहाई लोगों को यह नहीं पता था कि वे इस रोग से पीड़ित हैं।


दिल और किडनी की बीमारी का गहरा रिश्ता


संजय गांधी पीजीआइ के हृदय रोग विशेषज्ञ प्रो. सुदीप कुमार के मुताबिक डायबटीज नियंत्रित न होने पर दिल और किडनी की बीमारी की आशंका बढ़ जाती है। देेखा गया है कि डायबटीज के साथ 10 से 12 साल जिंदगी गुजारने वाले 15 से 20 फीसदी लोग अनियंत्रित शुगर के कारण दिल औक कीडनी की बीमारी  के चपेट में आते है। फालो अप पर लगातार रहना चाहिए। 

     

क्या है डायबिटीज

प्रो.सुभाष यादव के मुताबिक  जो भोजन लेते हैं उसे हमारी पाचन ग्रंथियां पचा कर ऊर्जा और हमारी वृद्धि के लिए उपयोग करती हैं। इस प्रक्रिया में भोजन का अधिकतर हिस्सा टूट कर ग्लूकोज बनाता है। ग्लूकोज एक किस्म की शुगर है और यह हमारे शरीर के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। यह ग्लूकोज हमारी रक्त में घुलकर कोशिकाओं तक पहुंचता है जिसका उपयोग कोशिकाएं करती हैं। लेकिन ग्लूकोज को कोशिकाओं में पहुंचाने के लिए इंसुलिन हार्मोन की जरूरत होती है जो पैंक्रियाज की बीटा सेल्स पैदा करती हैं। जब भी हम कुछ खाते हैं तो पैंक्रियाज यह इंसुलिन अपने आप जरूरी मात्रा में छोड़ती है। यही इंसुलिन शुगर कंट्रोलर की भूमिका अदा करता है। इंसुलिन को लेकर आई समस्या ही डायबिटीज का कारण होती है।


डायबिटीज टाइप

टाइप 1 : टाइप 1 डायबिटीज में पैंक्रियाज इंसुलिन बनाना पूरी तरह से बंद कर देता है। कुल डायबिटीज में यह करीब 10 प्रतिशत मामलों में है।

टाइप 2 : यहां इंसुलिन तो बनता हैलेकिन वह काफी कम होता है जो ग्लूकोज को कोशिकाओं में पहुंचाने के लिए काफी नहीं होता। 90 फीसदी डायबिटीज के मामले टाइप 2 के मिल रहे हैं।

 

  

 

इंसुलिन को बोझ नहीं मानें


 इंसुलिन लेने को पेशेंट्स बोझ मानने लगते हैं। ऐसा करना खतरे को बढ़ाता है। इसे जीवन भर के लिए अपनाना हैइसलिए गंभीरता से अपनाएं। जब शुगर का स्तर गोली से कंट्रोल नहीं होता तो हम लोग इंसुलिन देते है देखा गया कि तमाम लोग  बाद फिर गोली पर आ जाते है।  



बच्चों में बढ़ता मोटापा बढ़ा रहा रिस्क

प्च्चों में अब तक केवल डायबिटीज टाइप ही मिलता रहा है क्योंकि इसकी प्रमुख वजह अनुवांशिक होती है। लखनऊ में हर 10 हजार बच्चों में से एक में टाइप डायबिटीज पाया जा रहा है। लेकिन जैसे-जैसे बच्चों के खाने-पीने की आदतों में बदलाव आते जा रहे हैंउनमें मोटापा बढ़ रहा है और यही उन्हें डायबिटीज के रिस्क फैक्टर की ओर धकेल रहा है। 12 से 14 वर्ष की उम्र में बढ़ना शुरू हुआ मोटापा 20-22 की उम्र तक डायबिटीज में बदल रहा है।

 

आकंडे दे रहे है गवाही

 

-50  लाख लोग हर वर्ष दुनिया भर में डायबिटीज से मर रहे हैं

-40 करोड़ लोग डायबिटीज के साथ जी रहे हैं दुनिया मेंइनमें 7 करोड़ भारत में और 1.10 करोड़ यूपी में और 2.70 लाख लखनऊ में रह रहे हैं।

-225 खरब रुपये इसके इलाज पर दुनिया भर में लोगों को हर साल खर्च करने पड़ रहे हैं।

-10 हजार में से एक बच्चा डायबिटीज टाइप 1 का पेशेंट।

-12 से 14 वर्ष की उम्र में बढ़ते वजन की वजह से भी डायबिटीज टाइप 1 का रिस्क।

 

लक्षण : हो जाइए सजग अगर

-बार-बार पेशाब जाने की जरूरत महसूस होती है।

-अचानक वजन तेजी से घटने लगा है

-शरीर में एनर्जी की कमी महसूस हो रही है

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प्यास और भूख बहुत लगने लगी है

 

नाश्ते में पौष्टिकता का रखें ध्यान

पीजीआइ की पोषण विशेषज्ञ अर्चना सिन्हा और निरूपमा सिंह के मुताबिक 70 प्रतिशत टाइप-2 डायबिटीज के रोगी इसकी चपेट में आने से बच सकते थे सही खान-पान और नियमित व्यायाम की आदतें विकसित की होती। नाश्ते में फलहरी सब्जियांसाबुत अनाजमेवेमछलीअंडे का उपयोग बढ़ाएं। साथ ही भोजन में स्वाद के बजाय पौष्टिकता को महत्व दें।

क्या नहीं खाएं 

-स्वादिष्ट लगने वाली पेस्ट्रीनाश्ते में परोसे जाने वाले अधिकतर सीरियल्सफ्राइड फूडकोल्ड ड्रिंक्समीठा