मंगलवार, 15 जून 2021

पीजीआई के विशेषज्ञों ने यह स्थापित किया देश में पहली बार

 




संजय गांधी पीजीआई के विशेषज्ञों ने चिकित्सा जगत में कुछ काम ऐसा किया जो देश में पहली बार हुआ या प्रदेश में पहली बार हुआ। डाक्टरर्स डे के मौके पर कुछ ऐसी ही उपलब्धियों को बताने की कोशिश की है।


कुमार संजय। लखनऊ

किडनी ट्रासंप्लांट के लिए खत्म हुई दाता और मरीज के बीच ब्लड ग्रुप की मैचिंग

एक - देश के किसी सरकारी अस्पताल में पहली एबीओ इंकपटेबिल किडनी ट्रांसप्लांट एसजीपीजीआई में हुआ जिसे किडनी रोग विशेषज्ञ प्रो.नारायन प्रसाद और यूरो सर्जन प्रो.अनीस श्रीवास्तव ने अंजाम दिया। इस तकनीक के स्थापित होने के बाद किडनी ट्रांसप्लांट के डोनर और मरीज के ब्लड ग्रुप एक होने की जरूरत खत्म हो गयी। इस तकनीक के स्थापित होने के बाद अब 25 से अधिक किडनी ट्रांसप्लांट हो चुका है। इस तकनीक में पहले मरीज का इम्यून सिस्टम इस लायक बनाया जाता है कि दूसरे ब्लड ग्रुप की किडनी को वह स्वीकार करें। विशेषज्ञों का कहना है कि किडनी लगने के बाद शरीर दूसरे ब्लड ग्रुप वाली किडनी स्वीकार कर लेता है।

आयोइम्यून डिजीज के इलाज हुआ संभव

दो- भारत में पहली बार किसी सरकारी अस्पताल में क्लीनिकल इम्यूनोलाजी विभाग स्थापित हुआ जिसमें पढ़ाई. परीक्षण और रिसर्च का काम शुरू हुआ। यह काम किया 12 साल इंग्लैंड में बतौर संकाय काम करने वाले प्रो.आरएन मिश्रा ने। प्रो.मिश्रा ने बिभाग शुरू करने के बाद पहली डीएम इम्यूनोलाजी पाठयक्रम शुरू किया जिससे देश को पहली बार इस विशेषज्ञता का डाक्टर मिला। प्रो.मिश्रा ने आटोइम्यून डिजीज को पता लगाने के लिए एटी न्यूक्लियर एंटीबाडी, एक्सट्रेक्टिबल एटीबाडी. सहित तमाम परीक्षण शुरू किया। विभाद हर साल देश को दो विशेषज्ञ दे रहा है। देश में केवल तीन संस्थान है जहां यह पढ़ाई अब शुरू हो गयी है। इन विभाग एसएलइ, रूहमटायड अर्थराइटिस, पाली मायोसाइटिस, स्कैलोडर्मा सहित 70 से 80 आटो इम्यून डिजीजी का इलाज संभव है

मस्कुलर डिस्ट्राफी बीमारी के मरीजों को उम्मीद

तीन- भारत ने पहली मांसपेशियों की बीमारी मस्कुलर डिस्ट्राफी पता करने के लिए लक्षण पूरे विश्व को दिया। यह लक्षण न्यूरोलाडिस्ट प्रो.सुनील प्रधान ने खोजा। इनके खोजे गए लक्षण को प्रधान साइन के नाम से पूरे विश्व में पढ़ाया जाता है। इस खोज के लिए इन्हें र्शांत स्वरूप भटनागर, पदम श्री जैसे तमाम सम्मान मिले हैं। प्रो.सुनील ने बताया कि इस बीमारी को पता करने के लिए मांसपेसी की बायोप्सी की जाती थी जिसकी सुविधा हर जगह नहीं होती थी। अब केवल लक्षण के आधार पर बीमारी का पता लगा कर इलाज की दिशा तय की जा सकती है। इस बीमारी मांसपेशियां धीरे-धीरे कमजोर हो जाती है । आगे चल कर बीमारी गंभीर हो जाती है।

आईबीएस का इलाज हुआ संभव

चार- भारत में पहली बार पीजीआई पेट की चाल की गड़बड़ी बता करने के लिए मोटैलटी लैब की स्थापना हुई। संस्थान के पेट रोग विशेषज्ञ प्रो.यूसी घोषाल ने इस बीमारी पर लगातार काम कर रहे हैं। इन्होंने इंडियन सोसाइटी की भी स्थापना कर पूरे विश्व में संस्थान का मान बढ़ाया है। वह अमेरिका स्थित रोम फाउडेशन के को चेयरमैन भी है जो इरेटबुल बाउल सिंड्रोम परेशानी के लिए मानक तय करता है। प्रो.घोषाल ने बताया कि इस बीमारी का कारण पेट, छोटी आत की चाल में गड़बड़ी है। इसको पता करने के लिए लैब की स्थापना की देखा कि आईबीएस से ग्रस्त मरीजों में किस तरह चाल होती है। इस बीमारी को पहले मानसिक बीमारी मानी जाती थी जिस पर पेट रोग विशेषज्ञ ध्यान नहीं देते थे।

लिवर ट्रासंप्लांट से मरीजों को मिल रही है जिदंगी

पांच- भारत में पहली बार लिवर ट्रांसप्लांट किसी सरकारी अस्पताल में पहली बार पीजीआई के गैस्ट्रो सर्जन प्रो.राजन सक्सेना ने किया। वह 20 से अधिक लिवर ट्रांसप्लांट को अंजाम दे चुके हैं। कुछ परेशानी के कारण बीच में इस अभियान को थोड़ा ब्रेक लग गया था। प्रो.राजन ने कैडेवर लिवर ट्रांसप्लांट को भी अंजाम दिया। अब विभाग दोबारा लिवर ट्रांसप्लांट को गति देने की प्लानिंग कर रहा है। 
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शनिवार, 12 जून 2021

87 फीसदी में पोस्ट कोविड से जुड़ी कोई एक मिल रही है परेशानी - मल्टीडिसीप्लिनरी और मल्टी-केयर अप्रोच से संभव है जिंदगी पटरी पर लाना

 

87 फीसदी में पोस्ट  कोविड से जुड़ी कोई एक मिल रही है परेशानी

 मल्टीडिसीप्लिनरी और मल्टी-केयर अप्रोच  से संभव है जिंदगी पटरी पर लाना

 पोस्ट कोविड रिहैबिलिटेशन की जरूरत 

 

कोरोना से ठीक होने  तीन महीने बाद भी कई लोग थकानबुखारसिरदर्द और गंध न आने की शिकायत कर रहे हैं। सबसे आम शिकायत है थकान। दिमागी बीमारियां भी लोगों को परेशान कर रही हैं। इस परेशानी को पोस्ट लांग कोविड  नाम दिया गया है। संजय गाँधी पीजीआई के एनस्थेसिया एवं आईसीयू एक्सपर्ट प्रो.संदीप साहू कहते है कि  लॉन्ग कोविड को लेकर कोई स्पेसिफिक डेटा नहीं है।  दूसरे देश  का डेटा हैवहां भी हमने घातक दूसरी लहर देखी है। भारत में दूसरी लहर के आंकड़ों को देखकर अंदाजा लगाए तो लॉन्ग कोविड से जूझ रहे लोगों का आंकड़ा बहुत अधिक हो सकता है। यह पहले से तनावग्रस्त हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर पर बोझ बढ़ा सकता है। प्रो साहू कहते है कि  देखा गया है कि 87.4 से 90  फीसदी पोस्ट कोविड  मरीजों ने शिकायत की कि उनमें कम से कम एक लक्षण कायम रहा।रिकवर होने के बाद भी ऐसे लोगों पर एक साल तक निगरानी रखनी जरूरी है। लॉन्ग कोविड से जूझ रहे लोगों को मल्टीडिसीप्लिनरी और मल्टी-केयर अप्रोच से ही ठीक किया जा सकता है। देखा गया है कि कुछ लोगों में मल्टी ऑर्गन इफेक्ट भी हुआ है जिसमें  शरीर के कई अंगों को नुकसान पहुंचता  है। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन की एक रिपोर्ट में 3,171 कोविड मरीजों की स्टडी की गईजिन्हें अस्पताल में भर्ती नहीं किया गया था। उनमें से 69 फीसदी को छह महीने में एक या अधिक बार डॉक्टरों के पास जाना पड़ा।पोस्ट कोविड रिहैबिलिटेशन सेंटर की जरूरत है जिसमे साइकोलॉजिस्टफिजियोथेरेपिस्ट और चिकित्सक को मिल कर काम करना होगा।  

  

  

पोस्ट लांग कोविड क्या है?

 

यह लक्षण कुछ हफ्तों या महीनों बाद तक भी रह सकते हैं। यानी भले ही शरीर से वायरस निकल गया होउसके लक्षण खत्म नहीं होते। कुछ लक्षण ऐसे हैं जो जाते नहीं बल्कि बने रहते हैं। वहीं कुछ लक्षण ऐसे हैं जो थोड़े-थोड़े दिन में फिर दिखते हैं। ज्यादातर मरीजों में कोविड नेगेटिव आना बताता है कि माइक्रोबायोलॉजिकल तौर पर शरीर ने रिकवर कर लिया है। पर क्लीनिकल लक्षण खत्म नहीं हुए हैं। इस आधार पर लॉन्ग कोविड को हम शरीर से वायरस के खत्म होने से लक्षण खत्म होने तक लगने वाला समय कह सकते हैं।

 

लांग कोविड के दो स्टेज हैं-

स्टेज-1: पोस्ट एक्यूट कोविड लक्षण 3 से 12 हफ्ते तक बने रहते हैं

स्टेज-2: क्रॉनिक कोविड 12 हफ्ते बाद भी लक्षण बने रहते हैं

 

 

यह तो पोस्ट कोविड क्लीनिक में लें सलाह 

 

थकान सबसे आम लक्षण था। खांसी, सांस लेने में परेशानी स्किन पर रैशेजधड़कन का तेज होनासिरदर्दडायरिया और 'पिन्स एंड नीडिल्ससेंसेशन अन्य लक्षण हैं। यह हल्केमामूली या गंभीर लक्षणों वाले मरीजों को हो सकता है। अब तक इसे लेकर कोई स्पेसिफिक ट्रेंड नहीं दिखा है।  

 

शुक्रवार, 11 जून 2021

स्तनपान कराने वाली महिलाएं लगवा सकती है कोरोना की टीका






 स्तनपान कराने वाली, गर्भधारण कर चुकी है या योजना बना रही है तो इन्हें कोरोना का टीका लगवाना चाहिए। विश्वस्वास्थ्य संगठन ने हाल में ही कहा है कि स्तनपान कराने वाली महिलाएं टीका लेती हैतो संभव है कि स्तनपान करना शुशि भी कोरोना वायरस के संक्रमण से सुरक्षित रहे।संजय गांधी पीजीआइ के मैटरनल एंड रिप्रोडक्टिव हेल्थ विभाग की प्रो. इंदु लता साहू ने इन सवालों का जवाब दिया।

 

 

    -जो महिलाएं शिशुओं को स्तनपान करा रही हैं,उनके लिए क्या सलाह है क्या उन्हें टीका लगवाना चाहिए

 -      जवाब हां है।जिन महिलाओं ने जन्म दिया है और जो अपने बच्चोंको स्तनपान करा रही हैंवे वैक्सीन ले सकती हैंजबयह वैक्सीन उपलब्ध हो जाए तो उन्हें यह टीका लगवाना चाहिए। इसमें बिल्कुल भी खतरानहीं है क्योंकि अभी जितने भी टीके लग रहे हैंउनमें से किसी में भी जीवित वायरस नहीं है। और इसलिए स्तन के दूध के माध्यम से संचरण का कोई खतरानहीं है। वास्तव मेंमां के पास जो एंटीबॉडी होते हैंस्तन के दूध के माध्यम से बच्चे तक जा सकते हैं और शायद बच्चे की थोड़ी सी रक्षाकरने के लिए ही काम कर सकते हैं। लेकिन बिल्कुल कोई नुकसान नहीं है। यह बहुत सुरक्षित है। और इसलिए स्तनपान कराने वाली महिलाएं निश्चित रूप से वर्तमान में उपलब्ध टीकों को ले सकती हैं। 

 

 -      पीरियड में हो तो टीका लगवा सकती है

 

 -      लगवा सकती है क्योंकि  वैज्ञानिक रूप से ऐसा कुछ भी नहीं है जो मासिक धर्म वाली महिला को टीका लगवाने के रास्ते में आड़े आए।  जानते हैंवह थोड़ी थकान महसूस कर सकती हैलेकिन अगर वह तारीख है जिस पर आपकी टीकानियुक्ति है और  यदि आपके पीरियड्स हैं,तोआगे बढ़ने और टीका लगवाने में कोई समस्या नहीं है। 


-      हम टीकों और प्रजनन क्षमता और बांझपन के बारे में बहुत सारी गलत सूचना सुनते हैं क्या यह मिथक है


  -      हाँ,यहएक आम मिथक है। और मुझे यह कहकर शुरू करना चाहिए कि इस चिंता के पीछे कोई वैज्ञानिक प्रमाण या सच्चाई नहीं है कि टीके किसी भी तरह से प्रजनन क्षमता में हस्तक्षेप करते हैंया तो पुरुषों में या महिलाओं मेंक्यों टीके क्या करते हैं वे उस विशेष प्रोटीन या एंटीजन के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को उत्तेजित करते हैं। वायरस या बैक्टीरिया। तो इस मामले मेंकोविड वैक्सीन एंटीबॉडी प्रतिक्रिया और कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन के खिलाफ एक सेल मध्यस्थता प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया दोनों को उत्तेजित करता है। इसलिएऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे वे पुरुषों या महिलाओं में प्रजनन अंगों के कामकाज में हस्तक्षेप कर सकें। इसलिए,मुझे लगता है कि लोग निश्चित हो सकते हैं कि ये टीके किसी भी तरह से प्रजनन क्षमता में हस्तक्षेप नहीं करते हैं।  

 

-      क्या गर्भवती हैं या गर्भवती होने की योजना बना रही हैं

  -      गर्भावस्था में टीके के लिए अभी भारत में उपलब्ध टीका नहीं है । जो टीके देश में है उनका अध्ययन नहीं हुआ है।  मैसेंजर आरएनए प्लेटफार्म पर बने टीके जैसे फाइजर के आने वाले यह टीका गर्भवती महिलाएं लगवा सकेंगी ।  टीके के लिए हमने जिन प्लेटफार्मों का उपयोग किया हैवे एमआरएनए प्लेटफॉर्मनिष्क्रिय वायरस या वायरल वेक्टर प्लेटफॉर्म या सबयूनिट प्रोटीन हैं। उनमें से कोई भी जीवित वायरस नहीं है जो शरीर के भीतर गुणा कर सकता है और संभावित रूप से एक समस्या पैदा कर सकता है। इसलिएमुझे लगता है कि यह महत्वपूर्ण है कि हर देश में गर्भवती होने की योजना बनाने वाली महिलाओं को लाभ बनाम जोखिम के बारे में बताया जाए और अगर वे इसे लेना चाहती हैं तो उन्हें वैक्सीन की पेशकश की जाए।

बुधवार, 9 जून 2021

जीपीएस और अल्ट्रा साउंड से संभव है सफल ब्रेन ट्यूमर की सर्जरी




विश्व ब्रेन ट्यूमर डे आज 

 

जीपीएस और अल्ट्रासाउंड  से बिना दिमाग को नुकसान पहुंचाएं संभव हो गई सफल सर्जरी

ब्रेन का हर ट्यूमर कैंसर नहीं होता है

ट्यूमर का पता जल्दी लगे तो बढ़ जाती है इलाज की सफलता दर

 जागरण संवददाता।लखनऊ

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ब्रेन ट्यूमर का नाम सुनते कई लोग परेशान हो जाते है। अब ब्रेन ट्यूमर की सफलता दर जीपीएस और अलट्रासाउंड जैसे तकनीक से काफी हद तक सफल हो रही है।सर्जरी के सफलता के  तकनीक और मल्टी स्पेशलिटी एप्रोच कारगर साबित हो रही है।  विश्व ब्रेन ट्यूमर डे के मौके पर संजय गांधी पीजीआइ के न्यूरो सर्जरी विभाग के विशेषज्ञों के मुताबिक कैंसर विहीन ब्रेन ट्यूमर मेनिनजियोमापिट्यूटरी एडेनोमालो ग्रेड ग्लायोमास्वानोमा एपीडर्मायड सहित अन्य ब्रेन ट्यूमर की सर्जरी के सफलता जिंदगी काफी अच्छी हो जाती है।  अल्ट्रासोनिक सक्शन एस्पिरेटर तकनीक काफी कारगर साबित हो रही है।  इस तकनीक के तहत बडे ब्रेन ट्यूमर को छोटो-छोटे टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है। इससे पूरा ट्यूमर सक्शन कर निकाल लेते है। इससे ट्यूमर के आस-पास के हिस्से को नुकसान नहीं होता है

सर्जरी की सफलता के पीछे काम करती है टीम

विभाग के प्रो. संजय बिहारी कहते है कि न्यूरो सर्जरी के सफलता किसी एक विशेषज्ञ से संभव नहीं है । इसके पीछे टीम भवना बहुत जरूरी है जो कि हमारे विभाग में है।  प्रो. राजकुमार,  डा. अवधेश जायसवाल,डा. अरुण कुमार श्रीवास्तवडा. अनंत मेहरोत्राडा. कुंतल कांति दासडा. जायस सरदाराडा. कमलेश सिंह भैसोराडा. वेद प्रकाशडा. पवन कुमार के आलावा न्यूरो ओटो सर्जरी के  डा. अमित केशरी और डा. रवि शंकर टीम है। यह एक पूरी यूनिट है जो हर केस की मॉनिटरिंग करती है। एक केस में तीन से चार सर्जन लगते है। रोज चार से पांच सर्जरी का लक्ष्य होता है। इनके आलावा नर्सिंग पेशेंट हेल्परओटी टेक्नोलाजिस्टसेनेटरी वर्कर की सर्जरी की सफलता में अहम भूमिका है।  

न्यूरो सर्जरी के सफलता की  तकनीक

न्यूरो नेविगेशन- इस तकनीक के तहत ब्रेन के ट्यूमर वाले हिस्से की 3-डी पिक्चर सामने होती है जिससे पता लगा जाता है कहां पर पर ट्यूमर है और कहां से जाना है

इंट्राऑपरेटिव अल्ट्रासाउंड – इस तकनीक से कहां पर ट्यूमर है पूरी जानकारी मिल जाती है

इंडोसाइनीन ग्रीन ट्रैकर- इस तकनीक के तहत इस खास डाई को इजेक्ट कर दिया जाता है दिमाग की नसों में विशेष रंग दिखाता है इससे ट्यूमर के आस पास के नसों का पता लग जाता है। सर्जरी के दौरान इन नसों को क्षतिग्रस्त होने की आशंका रहती है। इस तकनीक से नसें बच जाती है।

इलेक्ट्रो फिजियोलॉजी – सर्जरी के दौरान हाथ-पैर में करंट का प्रवाह देखते रहते है क्योंकि दिमाग से ही करंट मिलता है। करंट कम होने का मतलब होता है इन्हे करंट देने वाला दिमाग का हिस्सा प्रभावित हो रहा है। उस हिस्से को बचा लेते है इससे हाथ-पैर में कमजोरी की परेशानी से बचा लेते है।

इंट्राऑपरेटिव वायोप्सी- सर्जरी के दौरान ही ट्यूमर का हिस्सा पैथोलॉजी विभाग के भेजते है । पैथोलाजिस्ट सर्जरी के दौरान ही देख कर बता देते है कि कैसा ट्यूमर है।

पोस्ट ऑपरेटिव एनेस्थेसिया- सर्जरी के बाद मरीज को सात से आठ घंटे के लिए होश में नहीं लाते है। एनेस्थीसिया और न्यूरो सर्जरी विभाग के विशेषज्ञ लगातार मॉनिटरिंग करते है ।

माइक्रोस्कोप- इस तकनीक में हम ट्यूमर और उसके आस पास के नसों को बडा कर देखते हुए सर्जरी करते है इससे जहां जरूरत है केवल नहीं पर सर्जरी की जाती है।

हाई क्वालिटी एमआरआई और सीटी स्कैन- इस जांच से ट्यूमर की बारे में सारी जानकारी मिल जाती है 

री साइक्लिड एयर- सर्जरी में संक्रमण से बचाना बडा चैलेंज होता है। हमारी ओटी में विशेष तकनीक का एयर री साइक्लिंग सिस्टम है जिससे सौ फीसदी हवा साफ होती है।

कोरोना काल में भी नहीं थमी सर्जरी

कोरोना काल में भी हम लोगो हर महीने 60 से 70  मरीजों में सर्जरी किया। इनमें कोरोना का संक्रमण नहीं था। इसमें इमरजेंसी के आलावा ऐसे लोगों की न्यूरो सर्जरी की गई जिनमें सर्जरी लंबे समय तक टालना संभव नहीं था।

परेशानी तो हो जाए सचेत

लगातार सिरदर्द या देर से शुरू होने वाला सिरदर्द (50 साल की आयु के बाद)उल्टी आनाअचानक आंखों में धुंधलापन आना,आपको होने वाले सिरदर्द के लक्षणों का बार बार बदलनाडबल विजन (दोहरी दृष्टि)शरीर के किसी भी भाग में कमजोरी महसूस होना और खड़े होने और चलने के दौरान असंतुलन का होना कुछ ऐसे लक्षण हैं जिनके दिखते ही आपको किसी डॉक्टर से परामर्श लेने की आवश्यकता है।

 

बच्चों में कम है कोरोना संक्रमण की आशंका

 



पांच साल से कम उम्र के बच्चों में नहीं कोरोना के संक्रमण की आशंका 

 बच्चों में  है कोरोना  का प्रभाव कम करने के लिए  आईएल-10 का सुरक्षा कवच

वायरस के फेफड़े में कोरोना के  घुसने का रास्ता बच्चों में नहीं होता है विकसित

 

कोरोना के तीसरी लहर में सबसे अधिक बच्चे प्रभावित होंगे लोगों यह सूचना अभिभावकों को काफी डरा रही है। संजय गाधी पीजीआइ के एनेस्थीसिया और आईसीयू एक्सपर्ट प्रो. एसपी अंबेश ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पांच साल कम उम्र को बच्चों में कोरोना वायरस के संक्रमण की आशंका बहुत ही कम है लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि कोरोना के नियमों के पालन लापरवाही बरतें। प्रो. अबेश ने कहा कि  पूरे विश्व में दो साल से कम उम्र को बच्चों में कोरोना का संक्रमण के मामले 23 से भी कम है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों में वायरस के घुसने के लिए फेफड़े में पाए जाने वाला एंजियोटेंशिन कन्वर्टिंग एंजाइम(एसीई) रिसेप्टर विकसित नहीं होता है।    इसके विकसित न होने के कारण वायरस श्वशन तंत्र के जरिए फेंफडे में पहुंच कर फेफड़े में नहीं पहुंच पाएंगा क्योंकि घुसने के लिए रिसेप्टर बच्चों में विकसित नहीं होता है। वायरस के फेफड़े में घुसने के लिए एक और रास्ता है जिसे  ट्रांस मेम्बरेन सिरीन प्रोटीएस2( टीएमपीआरएसएस2)  रिसेप्टर भी एक रास्ता होता है, यह भी विकसित नहीं होता है इसलिए हम साफ तौर पर कह सकते है कि पांच साल के बच्चे में कोरोना की आशंका बहुत कम है। पांच से 12 साल में कोरोना वायरस का संक्रमण का खतरा है क्योंकि इस उम्र में एसीई और ट्रांस मेंब्रेन सिरीन प्रोटीएस विकसित हो रहा होता है। इसके अलावा इस उम्र के बच्चों में आईएल -10 होता है तो एंटी इंफ्लामेटरी होता है यह साइटोकाइन स्ट्राम को रोकता है इससे अंगो  को नुकसान नहीं होता है।  

 

 

स्वाइन फ्लू की तरह टेट्रा वेरिएंट वैक्सीन की जरूरत

प्रो. अबेश ने कहा कि स्वाइन फ्लू की तरह कोरोना के लिए भी टेट्रा वैलेंट वैक्सीन पर काम करने की जरूरत है। देखा जाए तो कोरना के चार वैरिंएंट आ चुके है संभव है कि आगे भी वायरस में बदलाव आए। ऐसा स्वाइन फ्लू मे देखा गया है।

 

बच्चों में नहीं म्यूकर माइकोसिस की आशंका

 

बहुत ही कम बच्चे ऐसे होंगे जिनमें  इम्यूनो सप्रेसिव  चल रही हो। बच्चे डायबिटीज से ग्रस्त भी बहुत ही रेयर है। रक्त में  शुगर भी बढा नहीं होता है। देखा गया है कि यह परेशानी उनमें अधिक हुई जिनमें  सीरम फेरिटिन का स्तर काफी बढा हुआ था । इसकी आशंका  बच्चों में कम है इसलिए कह सकते है बच्चों में बहुत कम आशंका है।  

 

सोमवार, 7 जून 2021

राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद के अध्यक्ष ने मुख्यमंत्री से मिलकर संविदा कर्मचारियों को नियमित करने की मांग की

  राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद के अध्यक्ष जे एन तिवारी ने प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखकर संविदा कर्मचारियों के नियमितीकरण की याद दिलाई है। उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर बताया कि विगत वर्ष 6 मई को मुख्यमंत्री से मुलाकात के दौरान उन्होंने संविदा कर्मियों के नियमितीकरण का मुद्दा उनके समक्ष रखा था। उस समय मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया था कि संविदा कर्मियों के नियमितीकरण के लिए कोई रास्ता जरूर निकाला जाएग।




एक वर्ष से राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद इस प्रकरण को लगातार मुख्य सचिव एवं अन्य सक्षम अधिकारियों के स्तर पर उठाकर कार्यवाही की मांग कर रही है। 28 अक्टूबर 2020 को मुख्य सचिव के साथ बैठक में यह मुद्दा उठा भी गया था और अगस्त 2013 तक रिक्त पद के सापेक्ष निर्धारित अर्हता रखने वाले संविदा कर्मचारियों को जो, 3 साल तक सेवा कर चुके हैं, उन्हें नियमित करने पर सहमति बनी थी।


इसके लिए मुख्य सचिव ने सभी विभागों से सूचना एकत्र करने के निर्देश भी दिए थे। लेकिन लगभग 7 माह बीत चुके हैं और अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है। श्री तिवारी ने मुख्यमंत्री को याद दिलाया है कि विधानसभा चुनाव से पहले संविदा कर्मियों के नियमितीकरण के संबंध में निर्णय अवश्य करा दें। जिसका राजनीतिक फायदा चुनाव में पार्टी को मिल सकता है। कर्मचारियों की अन्य मांगों पर भी कार्यवाही के समुचित निर्देश मुख्य सचिव को देने का अनुरोध भी मुख्यमंत्री से संयुक्त परिषद के अध्यक्ष ने किया है।

रविवार, 6 जून 2021

कोरोना काल में बच्चे और युवों की बदली दिनचर्या बना सकता है बीमार

 





कोरोना काल में बच्चे और युवों की बदली दिनचर्या बना सकता है बीमार

 

सेट करें रूटीन नहीं हो जाएगी देर  

 

कोरोनाकाल में स्कूल की छुट्टी है। कोचिंग बंद है... घर में ही रहना है ...क्या करेंगे जल्दी उठ कर ...देर से सोना...दिन में खा कर सो जाना ...कुछ अच्छा हो जाए तो पकौड़ी भी बन गयी....इस तरह  दिनचर्या बदल गयी। इसके साथ घर में कुछ लोग बीमार भी हो गए अधिकांश की शारीरिक व मानसिक सेहत अब पहले जैसी नहीं रही।  मोटापा से पीड़ित हो गए । बहुत से लोग गहरे मानसिक अवसाद से पीड़ित हैं। ऐसे में किंग जार्ज मेडिकल विवि के मानसिक रोग विशेषज्ञ डा.एसके कार कहते है कि  महामारी के कारण शरीर में आए अनचाहे बदलाव जैसे वजन बढ़नाचिड़चिड़ापननींद कम या बहुत ज्यादा आने को स्वीकारने की जरूरत है। जब तक आप अपने अंदर आए अनचाहे बदलावों को नजरअंदाज करते रहेंगेतब तक उनमें सुधार नहीं किया जा सकता।

 

आज से बनाए योजना

 

 अनचाहे बदलावों को सुधारने के लिए हमें एक नियत समयावधि के लिए योजना बनानी चाहिए। साथ ही यह भी याद रखने की जरूरत है कि आप जो सुधार करना चाहते हैंउनकी समयावधि व्यावहारिक हो ताकि आप आसानी से उसे प्राप्त भी कर सके। उदाहरण के लिए आप अपना दो किलो वजन एक महीने के अंदर घटाना चाहेंगे तो यह व्यावहारिक होगाजबकि महीनेभर में पांच किलो वजन घटाना मुश्किल ये आपकी स्थितियों के मुताबिक असंभव भी हो सकता है।

 

अच्छी नींद भी जरूरी

सुनिश्चित कीजिए कि आप जिस जगह सो रहे हैंवह एक शांत और कम रोशनी वाला कमरा हो ताकि आपकी नींद में खलल न पड़े। सोने से पहले टहलना या फिर किताब पढ़ने जैसी आदतों को दोबारा अपनाना शुरू करें। कमरे के अंदर ही या बालकनी में टहलना बेहतर होगा। साथ ही कैफीनयुक्त पेय का कम करें। मोबाइल फोन और कंप्यूटर से दूरी रखें। 

 

दिनचर्या बनाएं

 शरीर को एक तय दिनचर्या में ढालें। उसके हिसाब से ही व्यायामनहाना-धोनाभोजन करें और नींद लें। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि एक निश्चित दिनचर्या के अभाव में हमारा शरीर और मस्तिष्क सामान्य व्यवहार नहीं करता।

-    योग, व्यायाम, प्राणायाम को दिनचर्या में शामिल करें

 - सोशल मीडिया पर तमाम गलत जानकारी होती है बिना पड़ताल किए उस पर अमल न करें

-आन लाइन क्लास के बाद को दूसरे गतिविधियों में शामिल करें जैसे पेटिंग, किताबें  पढना, घर के छत पर ही टहलना शुरू करें 


फैक्ट...फिगर

 - 10 फीसदी लोग मानसिक परेशानी के शिकार रहे

-42 फीसदी वयस्कों का वजन 6-7 किलो तक अनचाहे रूप से बढ़ गया है।

-66 फीसदी लोगों ने अपनी नींद के पैटर्न में बदलाव दर्ज किया है एक साल में।

-23 फीसदी लोग तालाबंदी के कारण नशे का अत्यधिक प्रयोग करने लगे।

एक दिन में नहीं बन जाती है वैक्सीन कई चरणों के परीक्षण के बाद मिलती है मंजूरी - टीके पर शक मतलब जीवन से खिलवाड़

 


 एक दिन में नहीं बन जाती है वैक्सीन कई चरणों के परीक्षण के बाद मिलती है मंजूरी

        टीके पर शक मतलब जीवन से खिलवाड़

       

          वैक्सीन बनाना आसान नहीं है एक दिन का काम नहीं है। कई चरणों के परीक्षण के बाद इसके इस्तेमाल की मंजूरी मिलती है। इस लिए टीके पर शक करने का मतलब है कि अपने जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे है। सफलता मिलने के बाद कई चरणों का क्लीनिकल ट्रायल शुरू बोता है।  पहले फेज में दवा या वैक्सीन की जांच कुछ सौ लोगों में होती है।  फेज-2 ट्रायल्स थोड़े ज्यादा लोगों में होते हैं। देखा जाता है कितनी  सुरक्षित है इम्यून रिस्पांस कितना आ रहा है। इसके बाद बड़े पैमाने पर ट्रायल्स होते हैं।

 

26 हजार लोगों पर हुआ कोवैक्सीन का परीक्षण

तीसरे चरण में वैक्सीन के मामले में करीब 26 हजार लोगों को वैक्सीन लगाई गई। इन्हें दो ग्रुप में बांटा गया। कोआधे लोगों को प्लेसिबो यानी सलाइन वॉटर दिया गया और आधे लोगों को वास्तविक वैक्सीन देने के बाद देखा गया कि किस ग्रुप से कितने लोगों को वायरस इन्फेक्शन होता है। वैक्सीन की इफेक्टिवनेस देखी जाती हैजिसे मेडिकल भाषा में एफिकेसी कहा जाता है। इसका मतलब है कि वैक्सीन कितने प्रतिशत लोगों को वायरस इन्फेक्शन से बचाकर रखेगी। देखा गया कि  वैक्सीन कोरोना वायरस रोकने में 78 फीसदी इफेक्टिव रही। वैक्सीन वाले ग्रुप में भी किसी भी पॉजिटिव मरीज में गंभीर लक्षण नहीं देखे गए। आईसीएमआर का कहना है कि कोवैक्सीन यूकेदक्षिण अफ्रीकाब्राजील के साथ ही भारत में मिले डबल म्यूटेंट वैरिएंट पर भी कारगर रही है

 

       

       

       

       

        कोवैक्सीन इनएक्टिवेटेड प्लेटफार्म पर बनी

      को  वैक्सीन की बात करें तो यह परंपरागत इनएक्टिवेटेड प्लेटफॉर्म पर बनी है। इसमें मरे हुए वायरस का इस्तेमाल किया गया है। इस वायरस को कमजोर कर इंजेक्ट किया जाता हैजिससे शरीर उसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने लगता है। जो भी म्यूटेशन अब तक हुए हैंवह वायरस की भीतरी संरचना में हुए हैं। इससे वायरस का आकार नहीं बदला है। इस वजह से कोवैक्सीन अलग-अलग वैरिएंट्स पर कारगर साबित हुई है।

       

       

        फाइजर की वैक्सीन मैसेंजर आरएनए पर बनी

        फाइजर और मॉडर्ना की वैक्सीन आरएनए प्लेटफॉर्म पर बनी है। इसमें वैक्सीन लगने पर शरीर को मैसेज मिलता है कि वायरस का हमला हो गया हैउससे लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनानी है।

       

        कोवीशील्ड वी वायरल वेक्टर प्लेटफार्म पर

        कोवीशील्ड और रूसी वैक्सीन स्पुतनिक वी वायरल वेक्टर प्लेटफॉर्म पर बनी है। इसमें किसी और वायरस को लेकर उसमें आवश्यक बदलाव किए और उसे नए कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन जैसा बनाया और शरीर में इंजेक्ट कर दिया। इससे शरीर उस स्पाइक प्रोटीन के खिलाफ एंटीबॉडी बनाता है। म्यूटेशन की वजह से वैरिएंट्स में स्पाइक प्रोटीन का आकार बदल सकता है।

 

 


 

किस आधार पर वैक्सीन बनाना पहले  यह फैसला लेना होता है।  इसमें वायरस को इनएक्टिवेटेड रूप मैसेंजर आरएनए के रूप में वी वेक्टर रूप में सहित अन्य तरह से वैक्सीन तैयार की जाती है। इसके बाद इस वैक्सीन कंप्यूटर मॉडल पर विस्तृत कार्य योजना तैयार की जाती है। वैक्सीन तैयार करने के बाद चूहेखरगोशगिनी पिग बंदर सहित अन्य जीव पर पहले जिसके खिलाफ वैक्सीन तैयार की उस वायरस से इफेक्ट कर उनमें वैक्सीन इंजेक्ट देते है फिर उनमें 

बनी एंटीबाडी का अध्ययन करते है। यह सब करने में लंबा समय लगता है इस लिए शक करने की कोई गुंजाइश नहीं है.....प्रो.चिन्मय साहू माइक्रोबायोलॉजिस्ट संजय गांधी पीजीआई

मंगलवार, 1 जून 2021

कोरोना टीके के बीच अंतर से मजबूती से होगा मुकाबला

 




कोरोना टीके के बीच अंतर से मजबूती से होगा मुकाबला

 

पहले और दूसरे टीके बीच तीन से 4  महीने का अंतर तो कोरोना से लडाई को लिए मजबूत इम्यून सिस्टम

 

  पहले और दूसरे डोज के बीच समय को बताया सही

 

कुमार संजय

 

जनवरी - दो डोज़ के बीच 28 दिन

 

मार्च - दो डोज़ के बीच 45 दिन

 

मई - दो डोज़ के बीच 90 से 120 दिन( 12 से 16 सप्ताह) 

 

यह है कोरोना वैक्सीन के पहले और दूसरे डोज के बीच का अंतराल । इस अंतराल को लेकर  लोग भ्रम में पड़ गए कि पहली और दूसरी वैक्सीन में कितना अंतर होना चाहिए । इसका जवाब शोध वैज्ञानिकों ने दे दिया है।  इंटरनेशनल मेडिकल जर्नल लांसेट के रिपोर्ट  सिंगल डोज एडमिनिस्ट्रेशन एंड द इंफुलएंस आफ दी टाइमिंद आफ बूसटर डोज आऩ म्यूनोजेनसिटी एंड इफीसिंएंसी आफ एजेडजी 1222 वैक्सीन ः ए पूल्ड एनलसिस आफ रैंडोमाइज्ड ट्रायल  के मुताबिक  8597 ऐसे लोगों पर शोध के बाद दिया है जिन्हें भारतीय वैक्सीन लगी।   वैक्सीन की इफेक्टिवनेस और शरीर का इम्यून रिस्पांस  दोनों डोज की देरी से प्रभावित होता है। कोवीशील्ड के मामले में दो डोज में अंतर जितना अधिकइफेक्टिवनेस भी उतनी ही अधिक होगी। जब 6 हफ्ते से कम अंतर से दो डोज दिए गए तो इफेक्टिवनेस 50-60 फीसदी रही जबकि अंतर बढ़ाकर 12-16 हफ्ते करने पर 81.3 बढ़ गयी। दो डोज के बीच अंतर बढ़ने से  अधिक से अधिक लोगों को इन्फेक्शन से बचाने के लिए वैक्सीन का एक डोज दिया जा सकेगाऔर  वैक्सीन की इफेक्टिवनेस भी बढ़ेगी। अगर दो डोज के बीच का अंतर बढ़ाया जाता है तो कोरोना वायरस के खिलाफ आईजी एंटीबॉडी रिस्पॉन्स दोगुना तक हो सकता है।   टीके के पहले खुराक के 22 वें 90 वें दिन के बाद  प्रभावशीलता 76·0% थी और इस शुरुआती 3 महीने की अवधि के दौरान सुरक्षा के लिए एंटीबॉडी स्तर कम नहीं हुआ। इस प्रकार देर से दूसरी खुराक के लिए रणनीति सुरक्षित है।

बाक्स 

संक्रमित हो गए है तो निगेटिव होने के चार सप्ताह बाद 

-  हाल में ही कोरोना पॉजिटिव हुआ थामुझे कब टीका लेना चाहिए 

- कोरोना निगेटिव होने के चार सप्ताह बाद आप टीका ले सकते हैं।

 - एक खुराक लेने के बाद यदि कोरोना हो जाये तो दूसरी खुराक कब लेनी चाहिए?
- निगेटिव होने के चार सप्ताह बाद आप टीका ले सकते हैं



 

पहले डोज के बाद पैदा होने लगता है इम्यून रिस्पांस

 

 वैक्सीन का पहला डोज लगने पर आपके शरीर में पर्याप्त मात्रा में इम्यून रिस्पांस पैदा होता है। इनेक्टिव या मृत वायरस जब सिस्टम में आता है तो एंटीबॉडी बनती है। शरीर इन्फेक्शन के पैटर्न को समझता है। यह पहला डोज लेने के कुछ ही घंटों या दिनों में यह होने लगता है। कुछ हद तक प्रोटेक्शन तो मिल ही जाती है।दूसरा डोज निश्चित तौर पर यह इम्यून रिस्पांस बढ़ाता है और इम्यून सिस्टम में मेमोरी-बी सेल्स को इंफेक्शन फैलाने वाले वायरस को याद रखने के लिए तैयार करता है। पहले डोज के बाद दूसरे का इंतजार कर रहे थेउन्हें बहुत अधिक चिंतित होने की जरूरत नहीं है। पर पूरी तरह प्रोटेक्शन हासिल करने के लिए दूसरा डोज लेना बेहद जरूरी है।

 

 

नई गाइड लाइन से पहले वाले न हो परेशान

  बुजुर्गों के साथ-साथ हेल्थकेयर और फ्रंटलाइन वर्कर्स को 6 हफ्ते से कम अंतर से कोवीशील्ड के दो डोज लगाए गए हैं। इन लोगों को नई गाइडलाइन की वजह से चिंता नहीं करनी चाहिए। उनके शरीर में दो डोज के बाद एंटीबॉडी रेस्पॉन्स प्रभावी हो जाती है।  वैक्सीन के दोनों डोज लग चुके हैं तो आपकी इम्यूनिटी अच्छे स्तर पर होगी। आपके गंभीर बीमार होने या मौत की संभावना शून्य हो चुकी होगी। जिन्हें दोनों डोज लग चुके हैंउन्हें इन्फेक्शन हो भी गया तो लक्षण बहुत हल्के या मामूली होंगे.... माइक्रोबायोलॉजिस्ट एसोसिएट प्रोफेसर अतुल गर्ग