शुक्रवार, 29 मार्च 2019

टीबी दवा खा रहे तो भूख न लगने उल्टी या मिचली की परेशानी पर हो जाएं सतर्क



पीजीआइ में इंडियन सोसाइटी आफ गैस्ट्रोइंट्रोलाजी का सेमीनार

 टीबी की दवा से प्रभावित लिवर बचाना होगा संभव
एटीटी लिवर ट्राक्सीसिटी से निपटने के लिए बनी गाइड लाइन
टीबी दवा खा रहे तो भूख न लगने उल्टी या मिचली की परेशानी पर हो जाएं सतर्क


टीबी से निपटने के लिए दी जाने वाली एटीटी( एंटी ट्यूबर कुलर) दवाओं से दस से 15 फीसदी लोगों का लिवर एंजाइम बढ़ जाता है। समय पर सही इलाज न मिलने पर कई बार लिवर फोल्योर की स्थित आ सकती है। लिवर फेल्योर से बचाने के साथ ही टीबी से निपटने के लिए गाइड लाइन पर संजय गांधी पीजीआइ में इंडियन सोसाइटी आफ गैस्ट्रोइंट्रोलाजी के वार्षिक अधिवेशन में चर्चा हुई। आयोजक प्रो.समीर महेंद्रा और प्रो. अभय वर्मा के मुताबिक लिवर एंजाइम एसजीओटी, एसजीपीटी यदि पांच गुना तक बढ़ जाए तो तुरंत एटीटी दवाएं बंद कर देना चाहिए। जब एंजाइम नार्मल हो जाए तो चारों दवाओं( रिफाम्पसिन, आइसोजनाज्ड, इथेमब्यूटाल, पायराजिनामाइड)  में पहले एक दवा एक सप्ताह देने के बाद लिवर एंजाइम देखना चाहिए। एंजाइम नाम्रल है तो दूसरे दवा ,  तीसरी, और चौथी दवा एक सप्ताह के बाद एंजाइम पर नजर रखने के साथ शुरू करना चाहिए। जिस के कारण एंजाइम बढ़ रहा है उसे नहीं देना चाहिए उसकी जगह लिवोफ्लाक्सिन शुरू करना चाहिए। विशेषज्ञों ने कहा कि टीबी की दवा ले रहे मरीज को यदि भूख में कमी, मिचली, उल्टी की परेशानी हो रही है तो तुरंत लिवर फंक्शन टेस्ट कराना चाहिए। 

क्रोंस के 90 फीसदी मरीजों मे चल जाती है एटीटी

प्रो. अभय वर्मा के मुताबिक आंत की टीबी और आटोइम्यून डिजीजी क्रोंस होने पर परेशानी एक सी होती है जिसके कारण क्रोंस के 90 फीसदी मरीज बिना जरूरत एटीटी खा कर आते है। टीबी की दवा शुरू करने से पहले पूरी तरह टीबी की पुष्टि बायोप्सी, सीटी स्कैन सहित अन्य जांच से होनी चाहिए। दोनों का इलाज पूरी तरह अलग है। 
 
लिवर टाक्सीसिटी होने पर बढ़ जाता कोर्स

विशेषज्ञों ने बताया कि लिवर टाक्सीसिटी होने पर दवा का कोर्स बढ़ जाता है। आंत में टीबी होने पर नौ से 12 महीने और बोन में टीबी होने पर 1.5 साल, लंग में होने पर नौ महीने से अदिक दवा चलानी पड़ती है। 

रविवार, 10 मार्च 2019

सीबीएमआर का स्थापना दिवस दस फीसदी अधिक कर सकते है काम- प्रो.आलोक धवन

सीबीएमआर का स्थापना दिवस 

दस फीसदी अधिक कर सकते है काम- प्रो.आलोक


सेंटर फार बायोमेडिकल सेंटर( सीबीएमआऱ) पीजीआई के स्थापना दिवस समारोह के मुख्य अतिथि भारतीय विष विज्ञान अनुसंधान के निदेशक प्रो. आलोक धवन ने कहा कि जितना काम हम करते है इससे दस गुना अधिक काम कर सकते हैं । पूरी क्षमता से काम करने की जरूरत है। शोध छात्रों को एक इनेसेटिव ग्रपु बना कर 20 से 25 फीसदी समय हाई रिस्क रिसर्च के लिए देना चाहिए। इसके लिए बाद प्रपोजल बना कर फंड के लिए कोशिश करें। साइस के लिए देश में पैसे की कोई कमी नहीं है। हम लोगों ने सुरक्षित फूड और पानी के लिए काम किया तो 10 से अधिक मानकों का इस्तेमाल 20 से अदिक कंपनियों करने लगी बस जरूर पहल की थी। आज 80 फीसदी फूड पैक हो कर आ रहा है इस लिए सेफ फूड की जरूरत थी । कहा कि सेंटर के यंगस्टर और काम करने वाले लोग बाहर यहां के एंबेस्टडर है इस लिए गरिमा बढाने के लिए कोशिश करें बुराई करना तो आसान है। निदेेशक प्रो. राजा राय ने बताया कि हम प्रोस्टेट कैंसर, मैनेनजाइिटस, लिवर फेल्योर, सहित कई बीमारियों का पता लगाने के लिए नान इनवेसिव तकनीक पर काम कर रहे है। कई शोध हो भी चुके हैं। जल्दी ही रूटीन में लागू करने की योजना है।

भर्ती होने के बाद अस्पताल में चालिस फीसदी में होता है इंफेक्शन

पीजीआई में हास्पिटल इंफेक्शन कंट्रोल पर सेमीनार

भर्ती होने के बाद अस्पताल में चालिस फीसदी में होता है इंफेक्शन

इंफेक्शन के कारण बढ़ जाता है इलाज का खर्च

यूटीआइ में फेल हो रही है 80 फीसदी एंटीबायोटिक 




यूटीआई के 50 से 80 फीसदी मामलों में सामान्य एंटीबायोटिक फेल हो रही है। इलाज के लिए इंजेक्टेबिल( कार्बोपेनम सहित अन्य) एंटीबायोटिक देना पड़ रहा है। यूटीआई का सबसे बडा कारण ई कोलाई है अंधाधुंध एंटीबायोटिक के इस्तेमाल के कारण बैक्टीरिया तमाम एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोध पैदा कर लिया है।  संजय गांधी पीजीआइ में हास्पिटल इंफेक्शन सोसाइटी( लखनऊ चैप्टर) के शुरूआत के मौके पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के डा. अनुज शर्मा ने कहा कि एंटीबायोटिक प्रतिरोध को कम करने के लिए स्टेट एक्शन प्लान शुरू होना चाहिए। इसमें पशुपालन, पर्यावरण , स्वास्थ्य विभाग सहित अन्य की भागीदारी तय होगी। दो राज्य इस पर काम कर रहे हैं। आयोजक प्रो. राजेश हर्षवर्धन और प्रो. रिचा मिश्रा ने कहा कि एंटी बायोटिक शुरू  करने पहले कल्चर और सेंसटिवटी जांच होनी चाहिए लेकिन इस जांच की सुविधा कम है। कहा कि  इंफेक्शन मरीज के  इलाज का खर्च बढा रहा है। लंबे समय तक बेड पर रहने के कारण दूसरे मरीज को भर्ती होने का मौका नहीं मिलता। इस तरह अस्पताल में होने वाले संक्रमण के कारण मरीज तो खुद परेशान हो ही रहा है। साथ में दूसरे मरीज को भी परेशान कर रहा इसके साथ इलाज करने वाले डाक्टर के लिए भी परेशानी खड़ी कर रहा है।

घट है इंफेक्शन

 संजय गांधी पीजीआई के हास्पिटल इंफेक्शन कमेटी के नोडल अाफीसर प्रो. राजेश हर्ष वर्धन ने कहा कि हास्पिटल इंफेक्शन की गाइड लाइन को फालो कर अस्पताल में होने वाले संक्रमण को घटा कर 33 फीसदी तक लाया जा सकता है।सबसे अधिक हास्पिटल जनित इंफेक्शन का खतरा सर्जरी वाले , अाईसीयू वाले मरीजों में होता है। आईसीयू में हास्पिटल जनित संक्रमण अाठ फीसदी मानक है लेकिन विकासशील देशों में यह चालिस फीसदी तक है। देखा गया है कि  यूटीआई( यूरनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन) 15 से 40 फीसदी , सर्जरी वाली जगह पर 15 से 25 फीसदी, सेप्टीसीमिया 7 से 10 फीसदी और वेंटीलेटर के कारण निमोनिया दो से पांच फीसदी मरीजों में होता है। इसके कारण मरीजों को अस्पताल में अधिक समय तक भर्ती रहना पड़ता है। 

केवल हैंड हाइजिन से कम हो सकता है इंफेक्शन

सोसाइटी के सचिव डा. रमन सरदाना ने कहा कि  केवल हाथ धुल कर मरीज को छूने से हास्पिटल जनित इंफेक्शन को 20 फीसदी तक कम किया जा सकता है लेकिन काम के दबाव और सुविधा की कमी के कारण 70 फीसदी लोग इसे फालोनहीं करते । वायरल इंफेक्शन के 70 फीसदी मामलों में एंटीबायोटिक का इस्तेमला हो रहा है। डाक्टर को एंटीबायोटिक लिखने और मरीज को एंटीबायोटिक खाने से पहले सौ बार सोचना चाहिए। शुरू करें तो तय समय तक खाएं।   

सोमवार, 4 मार्च 2019

8 घण्टे सर्जरी कर बनाया मूत्राशय-जंम से नहीं थी पेशाब की थैली लगातार टपकता था पेशाब

पीजीआई में  यूरोलॉजी वर्कशॉप


   8 घण्टे सर्जरी कर बनाया मूत्राशय

        यूरोलॉजी विभाग के प्रोफेसर एमएस अंसारी ने बताया कि यह जन्मजात बीमारी है। इसे मूत्राशय की एक्सस्ट्रोफी कहते हैं। एक्सस्ट्रोफी का अर्थ होता है एक खोखले अंग का उलटा होना। इसमें पेशाब की थैली अंदर नहीं होती है। लिंग तो होता है, लेकिन उसका पूर्णरूप से विकास नहीं होता है। पेट के अंदर पेशाब की थैली नहीं होने की वजह से लगातार पेशाब होती रहती है, जिससे लिंग क्षतिग्रस्त हो जाता है। प्रोफेसर अंसारी ने बताया कि करीब तीन माह पहले यह बच्चा ओपीडी में आया था। इसके बाद उसे आपरेशन की डेट दी गई थी। रविवार को आठ घंटे चली सर्जरी में पेशाब की थैली बनाई गई है। अब बच्चा सामान्य बच्चों की तरह पेशाब कर सकेगा। उसके लिंग को भी प्लास्टिक सर्जरी के माध्यम से ठीक किया गया है।

पांच हजार में एक बच्चे को होती है बीमारी

प्रोफेसर एमएस अंसारी ने बताया कि यह बीमारी पांच हजार बच्चों में किसी एक बच्चे को होती है। पेशाब की थैली नहीं होने की वजह से लगातार बूंद-बूंद पेशाब होती रहती है। इससे दुर्गंध आने लगती है। कुछ लोग बच्चे को डायपर लगाते हैंतो कुछ लोग कपड़ा बांध कर रखते हैं। इससे लिंग में संक्रमण होने का खतरा बना रहता है। इस तरह की दिक्कत होने पर तत्काल चिकित्सक से सलाह लेनी चाहिए। अल्ट्रासाउंड जांच में पेट के निचले हिस्से में उभार साफ तौर पर दिखता है। पेशाब की थैली नहीं होने, मूत्र नलिकाओं से अविकसित होने आदि का पता चल जाता है

13 साल तक लड़की की तरह पाला लेकिन था वह लड़का- पीजीआइ ने अर्धविकिसत जनांग को ठीक कर बनाया लड़का

पीजीआइ में यूरोलाजी वर्कशाप


13 साल तक लड़की की तरह पाला लेकिन था वह लड़का
पीजीआइ ने अर्धविकिसत जनांग को ठीक कर बनाया लड़का
हारमोन थिरेपी से लड़को की तरह करेगा व्यवहार
जागरण संवाददाता। लखनऊ  

तेरह वर्षीय सोम का पालन घर वाले लड़की की तरह कर रहे थे । 13 साल लड़की की तरह पालने के बाद सही समय पर मासिक धर्म नहीं शुरू हुआ तो घर वाले परेशान हो कर कई डाक्टरों को दिखाया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। एक डाक्टर ने पीजीआई में दिखाने की सलाह दी। घर वाले संजय गांधी पीजीआई के यूरोलाजिस्ट प्रो.एमएस अंसारी को दिखाया तो पता चला कि इसके जनांग तो लड़को वाले है जो अर्ध विकसित है। संस्थान में आयोजित यूरोलाजी के वर्कशाप में विशेष केस के तौर पर शनिवार को सर्जरी कर जनांग को लड़को की तरह बनाया गया। आगे जनांग को और विकिसत करने के लिए हारमोन थिरेपी  दी जाएगी। प्रो. अंसारी ने बताया कि यह सामाजिक और वैवाहिक जीवन पूरी जीने में सछम होगा। सोम की मानसिक स्थित भी लड़कियों की तरह है इसको बदलने के लिए हरामोन थिरेपी ही कारगर होगी। वर्कशाप में 13 केस की सर्जरी की गयी जिसमें 6 मामले डिसआर्डर आफ सेक्सुअल डिवलेपमेंट( एम्बूगुअस जेनेटेलिया), पांच मामले हाइपोस्पेडियास के जिसमें पेशाब का निकलने का रास्त सही जगह पर नहीं होता है। दो अन्य मामलों की सर्जरी की गयी।       

अब रतिक नहीं बितानी पडेगी ट्रांसजेंडर की तरह जिंदगी

अब रतिका को ट्रांसजेंडर की तरह जिंदगी नहीं बितानी पडेगी। विशेषज्ञों ने  अर्धविकसित जनांग को सर्जरी कर ठीक कर दिया है। अब आगे वह सामाजिक, वैवाहिक जिंदगी पूरी तरह जी सकेगी। संजय गांधी पीजीआई में पिडियाड्रिक यूरोलाजी वर्कशाप में रतिका की सर्जरी हुई। प्रो.एमएस अंसारी के मुताबिक पांच साल की रतिका अनुवांशिकी तौर पर लड़की थी लेकिन जनांग लड़को की तरह था चिल्ड्रेन हास्पिटल फिलाडेल्फिया यूएसए के डा. क्रिस्टोफर के सहयोग ने जनांग को माडीफाइ कर दिया गया। जनांग को लड़की की तरह बनाया गया। इसके वहां स्थित स्किन को ही इस्तेमाल किया गया। इसमें मूत्र नलिका पूरी तरह ठीक इस लिए केवल जनांग को ठीक किया गया। यह परेशानी जंमजात बनावटी विकृति के कारण होती है। प्रो.अंसारी के मुताबिक पहले  जागरूकता नहीं जिसके कारण कई बार ट्रांसजेंडर मान कर ऐसे लोगों को जीवन बिताना पड़ता था।

शुक्रवार, 1 मार्च 2019

पीजीआइ में दिमागी टीबी पर मंथन


रोशनी भी छीन सकता है दिमागी टीबी
एटीटी से काफी हद तक बचाना संभव



दिमागी टीबी को डाक्टरी भाषा में ट्यूबरकुलर मैनेनजाइटिस ( टीबीएम) कहते है टीबी का बैक्टीरिया दिमाग के खास हिस्से में जगह बना लेता है । धीरे -धीरे वहां पर चकत्ता बन जाता है। इससे दिमाग सूक्ष्म रक्त वाहिकाओं में रूकावट तक पैदा हो सकती है। विशेषज्ञों के मुताबिक टीबीएम का लक्षण कम लोगों में प्रगट होता है। देखा गया है कि सिर दर्द, उल्टी, आंख की रोशनी में कमी. प्रकाश से चिड़चिड़ा पन, अधिक उम्र में लोगों में एकाग्रता में कमी की परेशानी होतो न्यूरोलाजिस्ट से सलाह लेना चाहिए। बीमारी की पुष्टि के लिए एमआरआई, सीएफएस द्रव की जांच की जाती है। संजय गांधी पीजीआई में टीबीएम पर आयोजित अधिवेशन में न्यूरोलाजी विभाग प्रमुख प्रो. सुनील प्रधान ने बताया कि टीबी का सही समय पर पता लगना बहुत जरूरी है। एक बार दवा शुरू होने पर एक भी दिन दवा का नागा नहीं होना चाहिए। देखा गया है कि आरामा मिलते ही लोग दवा खाने में लापरवाही बरतने लगते हैं।  के पूर्व विभाग प्रमुख प्रो.यूके मिश्रा बताया कि सही समय पर एटीटी( एंटी ट्यूबर कुलर ट्रीटमेंट) देने से ऐसे मरीजों को काफी हद तक बचाया जा सकता है। 

सीएसएफ के परीक्षण से लगता है दिमागी टीबी का पता 

दिमागी टीबी पता करने के लिए रीढ़ की हड्डी( लंबर) से सीब्रोस्पाइनल(सीएसएफ) द्रव लिया जाता है। एक एमएल द्रव लेकर उसका परीक्षण किया जाता है। इसमें हाई प्रोटीन, कम ग्लूकोज और लिम्फोसाइट सेल की मात्रा अदिक होत है। कई एसिड फास्ट बैसिलाइ द्रव के स्मेयर में भी दिखते हैं। द्रव का कल्चर कराया जाता है जिसमें बैक्टीरिया ग्रो करता है।   

टीबी के तीन सौ मे से एक में टीबीएम की आशंका
प्राइमरी स्टेज पर टीबी के इलाज न होने पर तीन सौ लोगों में से एक में टीबीएम की आशंका रहती है। विशेषज्ञों का कहना है कि टीबी का बैक्टीरिया (माइक्रोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस) का संक्रमण फेफड़े से रक्त प्रवाह के जरिए ही दिमाग में जाता है। संक्रमण होते ही टीबी की दवा चलने पर टीबीएम की आशंका कम हो जाती है।