मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

एंकलाइजिंग स्पांडिलाइटिस के मरीजों में अधिक है दिमाग और दिल का खतरा

एएस के मरीजों में अधिक है दिमाग और दिल का खतरा
पीजीआई के एल्यूमिनाइ  ने विश्व स्तर पर दिखायी प्रतिभा
पहली बार एक लाख से अधिक लोगों पर हआ शोध
कुमार संजय। लखनऊ
संजय गांधी पीजीआई से शिक्षा हासिल करने वाले विशेषज्ञ  ने विश्व स्तर पर  क्लीनिकल शरीर प्रतिरक्षा विज्ञान के क्षेत्र में बड़ी कामयाबी हासिल की है। डा.निजिल हारून संस्थान के क्लीनिकल इम्यूनोलाजी विभाग से डाक्ट्रेट आफ मेडिसिन इन क्लीनिकल इम्नोलाजी की डिग्री हासिल करने बाद यह टोरेंटो कनाडा में शोध करने चले गए। डा.हारून ने एंकलाइजिंग स्पोंडलाइटिस(एएस) बीमारी पर लंबे समय तक शोध करने बाद साबित किया है कि इस बीमारी के लोगों में ब्रेन स्ट्रोक की आशंका 60 फीसदी और  हार्ट एटैक की आशंका 35 फीसदी सामान्य लोगों को मुकाबले अधिक होती है। अब तक सबसे अधिक मरीजों अर सामान्य लोगों पर सबसे बड़ा शोध है। डा.हारून ने बताया कि 21427 मरीज एवं 86606 सामान्य लोगों पर शोध किया इस तरह देखा जाए तो कुल एक लाख से अधिक लोगों पर यह शोध हुआ है। इससे इस शोध की अहमियत विश्व स्तर पर अर अधिक बढ़ गयी है। इस शोध को 17.8 इंपैक्ट वाले एनल्स आफ इंटरनल मेडिसिन ने स्वीकार किया है। डा.हारून के गुरू संस्थान के क्लीनिकल इम्यूनोजाली विभाग के प्रमुख प्रो.अरएन मिश्रा ने कहा कि इससे संस्थान का मान विश्व स्तर पर बढ़ा है। इस शोध से एंकलाइजिंग स्पोनडलाइटिस बीमारी के मरीजों को सर्तक कर दोनों परेशानियों से बचाया जा सकेगा।  

क्या है एंकलाइजिंग स्पांडिलाइटिस

 शरीर प्रतिरक्षा विज्ञानीयों के मुताबिक  एंकलाइजिंग स्पांडिलाइटिस रीढ़ की हड्डी की बीमारी है। इस बीमारी से प्रभावित मरीज के रीढ़ की हड्डी में दर्द व खिचाव रहता है। कभी-कभी यह अन्य जोड़ो आंख व दिल को प्रभावित कर सकता है। इस बीमारी का कारण नहींं पता है। ६६ प्रतिशत मरीजों में बीमारी का करण एचएलए-बी-२७ देखा गया है। यह एक जंम जात एंटीजन है जो कोशिकाओं पर पाया जाता है। यह बीमारी १५ से २५ वर्ष की आयु में शुरु होती है। लेकिन दर्द इतना हल्का होता है कि व्यक्ति को इसका अधिक एहसास नहींं होता। इस बीमारी के चपेट में अधिकतर पुरुष ही आते हैं। २५ प्रतिशत मरीजों में उनके परिवार के सदस्य इस बीमारी से प्रभावित होते हैं। उन्हों ने बताया कि पीढ़ का सभी दर्द एस्प नहीं होता। एस्प का दर्द महीनों व सालों तक बना रहता है। इस बीमारी से प्रभावित लोगों में प्रात:काल उठने पर पीठ में अकडऩ रहती है जो धीरे-धीरे कम हो जाती है। लंबे समय कत बैठे रहने पर दर्द बढ़ जाता है। व्यायाम करने पर दर्द कम हो जाता है।  लंबे समय तक बीमारी के साथ रहने पर हिप व कूल्हे का जोड़ २५ से ३० प्रतिशत लोगों में प्रभावित हो सकता है। ५० प्रतिशत लोगों की आंख प्रभावित हो सकती है। आंख में लालपन,दर्द व धुंधला दिखाई पडऩे की परेशानी हो सकती है।  पांच प्रतिशत मरीजों का दिल प्रबावित हो सकता है। संजय गांधी पीजीआई के प्रो. आर.एन.मिश्रा ने बताया कि इस बीमारी के इलाज व परीक्षण की विशेषज्ञता यहां पर उपलब्ध है। दवाओं के जरिए बीमारी के प्रभाव को कम किया जा सकता है। 



दस साल में 66 फीसदी बढ़ा है एटीबाय़ोटिक का इस्तेमाल

11 एंटीबायोटिक गोली खाता है देश के एक व्यक्ति

दस साल में 66 फीसदी बढ़ा है एटीबाय़ोटिक का इस्तेमाल

वर्ल्ड एंटीबायोटिक रिपोर्ट 2015 का खुलासा

भारत सहित विश्व के 69 देशों के आकड़ों पर जारी हुई रिपोर्ट

 कुमार संजय। लखनऊ
सर्दी , जुखाम में एंटीबायोटिक खाने की बढ़ती प्रकृति के कारण बीते दस साल में एंटीबायोटिक का इसतेमाल देश  में 66 फीसदी तक बढ़ा है दूसरे देशों के मुकाबले काफी अधिक है। भारत में 11 एंटीबायोटिक पिल्स एक व्यक्ति इस्तेमाल करता है जो तमाम विकासशील देशों के अधिक है। इतना ही नहीं देश में  लगभग 1300 करोड़ एंटीबायोटिक्स पिल्स प्रतिवर्ष प्रयोग में ली जाती हैं। चीन में 1000 करोड़वहीं अमरीका में यह आंकड़ा 700 करोड़ सालाना है। इस तथ्य का खुलासा हाल में जारी सेंटर फाऱ डिजीज डायनमिक्स , इकोनामिक एंड पालसी ने वर्ल्ड एंटीबायोटिक्स रिपोर्ट 2015 में हुआ है । पिछले दस साल में एंटी बायोडिक के इस्तेमाल पर विश्व के 69 देंशों से डाटा कलेक्शन के अधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गयी है जिसमें भारत भी शामिल है। बताया गया है कि बीतेहै। संजय गांधी पीजीआई की माइक्रोबायलोजिस्ट प्रो.उज्वला घोषाल कहती है कि एंटीबायोटिक्स के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल से भारत में लोगों की रोगप्रतिरोधक क्षमता पर भी बुरा असर पड़ा है। देश के लोगों ने इतनी एंटीबायोटिक ले ली हैं कि उनके शरीर में रेजिस्टेंट पैदा होने से अब एंटीबायोटिक्स ने काम करना बंद कर दिया है। ऐसे में छोटी-छोटी परेशानियां बड़ी समस्याओं का रूप ले रही हैं। देश में 80 फीसदी संक्रामक रोग वायरस से होते हैंऐसे में एंटीबायोटिक्स की जरूरत नहीं होती।

80 फीसदी लोगों में नही होती एंटीबायोटिक की जरूरत

मेडिकल साइंस के अनुसार एंटीबायोटिक केवल उन्हीं रोगों में दी जानी चाहिएजो बैक्टीरिया या अन्य परजीवी (वायरस के अलावा) के कारण होते हैं। देश में 80 फीसदी संक्रामक रोग वायरस से होते हैं। ऐसे में एंटीबायोटिक की जरूरत ही नहीं होती। वायरस से होने वाले रोगों में एंटीबायोटिक देना वाकई खतरनाक है। इसके अधिक प्रयोग से शरीर में मौजूद अच्छे बैक्टीरिया भी खत्म हो जाते हैं और शरीर जल्दी-जल्दी संक्रमण की चपेट में आने लगता है। बिना जरूरत के एंटीबायोटिक की हैवी डोज देने से शरीर में रेजिस्टेंट बैक्टीरिया पनपने लगते हैं। इन पर किसी भी तरह की एंटीबायोटिक का असर नहीं होता।

डायबिटीज का खतरा
बुखारखांसी या जुकाम होने पर एंटीबायोटिक्स से परहेज करना चाहिए। इनका बार-बार इस्तेमाल करने से डायबिटीज का खतरा53 फीसदी तक बढ़ जाता है। दुनियाभर में  सबसे ज्यादा डायबिटीज के मरीज भारत में हैं। ऐसे में हमें एंटीबायोटिक्स पर काफी गंभीरता से विचार करना होगा।

मेटाबॉलिज्म असंतुलित
शोधकर्ताओं के मुताबिक एंटीबायोटिक्स से पेट में बैक्टीरिया की संख्या व उसका स्वरूप बदल जाता है। इसका लगातार प्रयोग करने से मेटाबॉलिज्म असंतुलित हो जाता है। एंटीबायोटिक्स की वजह से अच्छे बैक्टीरिया की संख्या कम हो जाती है व खराब बैक्टीरिया की संख्या बढऩे से पेनक्रियाज का संतुलन बिगड़ जाता है और डायबिटीज का खतरा बढऩे लगता है।


बैक्टीरिया और वायरस में अंतर
बैक्टीरिया सजीव होते हैं। ये अच्छे और बुरे दोनों तरह के पाए जाते हैं। बुरे बैक्टीरिया शरीर में रोग पैदा करते हैं। जरूरत से ज्यादा एंटीबायोटिक इस्तेमाल करने से अच्छे बैक्टीरिया भी खत्म हो सकते हैं। निमोनियासाइनस इन्फेक्शनब्रॉन्काइटिस और स्किन इन्फेक्शन बैक्टीरिया की वजह से होते हैं। डॉक्टर की सलाह से एंटीबायोटिक लें। सामान्य सर्दीएलर्जीफ्लू जैसी परेशानियां वायरस के कारण होती हैं। वायरस पर एंटीबायोटिक का असर नहीं होता। इसलिए इनका सेवन नहीं करना चाहिए।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने किया आगाह
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आगाह किया है कि एंटीबायोटिक्स के ज्यादा इस्तेमाल से दवाओं के प्रति प्रतिरोध बढ़ रहा है जिससे इलाज विफल हो रहे हैं। यह प्रतिरोध जटिल सर्जरी और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के प्रबंधन को भविष्य में ज्यादा मुश्किल बना सकता है। ऐसे में भारत और साउथ-ईस्ट एशियाई देश के लोगों की सेहत के सामने मौजूद इस खतरे पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है।

इन बातों का रखें खयाल
घर में एंटीबायोटिक दवाएं रखने से परहेज करें। कोई भी दवा विशेषज्ञ की सलाह से ही लें।  डॉक्टर से एंटीबायोटिक के बारे में सारी शंकाओं का समाधान करा लें। एक्सपायरी दवा का इस्तेमाल बिल्कुल न करें। अपने पास रखी पुरानी पर्ची पर लिखी गई दवाओं को अपनी मनमर्जी से न लें।  
विशेषज्ञ की राय
एंटीबायोटिक के प्रयोग को कम करने के  लिए प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत बनाए रखना जरूरी है। संतुलित आहारनियमित व्यायाम व पर्याप्त पानी पीने जैसी आदतें अपनाकर इसके प्रयोग को कम कर सकते हैं। हर रोग में एंटीबायोटिक की जरूरत नहीं होती इसलिए कोई भी दवा डॉक्टरी परामर्श से ही लें।
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अवसाद है जीवन खत्म करने की जड़

विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस आज
 
शुक्र है कि समय रितिका ने विशेषज्ञ से सलाह
38 फीसदी बीमारी के बाद भी नहीं लेते है दवाई
अवसाद है जीवन खत्म करने की जड़
कुमार संजय । लखनऊ
 
35 साल की रितिका (परिवर्तित नाम) के लिए सबकुछ बोझ बन गया था।  अचानक अपने काम और आसपास के लोगों में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। वह अपने निजी जीवन पर भी ध्यान नहीं दे पा रही थीं। रितिका बताती हैं, "मैं सुबह उठना नहीं चाहती थी। मुझे दफ्तर जाने के लिए खुद को धकेलना होता था। मैं अक्सर देरी से दफ्तर पहुंचती थी। यदि मुझे थोडा भी अतिरिक्त काम दे दिया जाता था तो मैं उदास हो जाती थी। दोस्तों और परिवार के साथ बाहर जाने में भी मुझे दिलचस्पी नहीं रह गई थी।"  

एक मित्र ने उन्हें मनोचिकित्सक के पास जाने की सलाह दी। इसके बाद ही रितिका को एससास हुआ कि वह अवसाद के लक्षणों से गुजर रही हैं।  वह बताती हैं, "तब तक मुझे नहीं पता चल पाया था कि मैं अवसाद से ग्रस्त हूं। मुझे इस स्थिति की गंभीरता के बारे में तब तक पता नहीं था जब तक कि मेरी चिकित्सक से मुलाकात नहीं हुई। मुझे बताया गया कि अत्यधिक अवसाद के कारण लोग आत्महत्या तक कर सकते हैं। भगवान का धन्यवाद कि मैं समय रहते चिकित्सक के पास चली गई। विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस(१० अक्टूर) के मौके पर र्वल्ड मेंटल हेल्थ फडरेशन ने कहा है कि लक्षणों पर परिवार वालों को गौर करने के बाद तुरंत डाक्टर के पास जाना चाहिए।  मानसिक रोगों से ग्रस्त ७२ फीसदी लोग डाक्टर के पास इलाज के लिए नहीं जाते हैं क्योंकि वह मानते ही नहीं हैं कि वह बीमार हैं। अवसाद से ग्रस्त ९० फीसदी लोग आत्महत्या कर लेते हैं। अभी भी लोग मानसिक रोग को पागलपन मानते हैं ऐसा बिल्कुल नहीं है।  अवसाद से ग्रस्त ७२ फीसदी लोग तब यह नहीं मनाते कि वह बीमारी के चपेट में हैं जब तक डाक्टर बीमारी की पुष्टि नहीं कर देते हैं। बीमरी की पुष्टि होने के बाद ३८ फीसदी लोग दवाएं नहीं लेते हैं।



दूसरी शारीरिक बीमारी की तरह है मानसिक 

मानसिक बीमारी भी शारीरिक बीमारियों की तरह ही है। यह उपचार योग्य है। शुरूआत में ही इलाज से बेहतर परिणाम सामने आते हैं और बीमारी को गम्भीर होने से रोका जा सकता है। 
यह कभी भी किसी एक कारण से नहीं होता है बल्कि कई कारणों से मिलकर होता है जैसे केमिकल, फिज़िकल, साइकोलाजिकल। लेकिन यहक बहुत ही खतरनाक होता है।

 

प्रति लाख लोगों में से आत्महत्या करने वालों की संख्या 10.9 
 विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लयूएचओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में प्रति लाख व्यक्तियों के पीछे आत्महत्या करने वालों की संख्या 10.9 है और जो लोग आत्महत्या कर लेते हैं उनमें से ज्यादातर की उम्र 44 साल से कम होती है। मनोरोग का बेहतर इलाज से ही इसे रोका जा सकता है। आत्महत्या की कल्पना करना और उसे व्यवहार में उतारना मानसिक आपातकाल की बहुत ही गंभीर स्थिति है। जो मरीज आत्महत्या करने के बहुत नजदीक हैं, उन्हें तुरंत मनोचिकित्सक की सेवाओं की जरूरत होती है और उस पर लगातार तब तक निगरानी रखनी चाहिए, जब तक वह सुरक्षित हालत में न पहुंच जाएं। एक बार आत्महत्या की कोशिश करने के बाद ‘साइकोथेरेपी’ दोबारा की जाने वाली कोशिशों को रोक सकती है। देखा गया है कि  तनाव, 

पूरूषों के मुकाबले अधिक है मानसिक रोग से परेशान
 फडरेशन के मुताबिक महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक इस बीमारी की चपेट में हैं। १० से २५ फीसदी महिलाएं अवसाद की चपेट में है जबकि पुरुष ५ से १२ फीसदी इस बीमारी के चपेट में हैं। हर चार मिनट में विश्व में एक व्यक्ति आत्महत्या कर रहा है। शारीरिक परेशानी से ११ फीसदी लोग आत्महत्या करते हैं जबकि ९० फीसदी लोग अवसाद के कारण आत्महत्या करते हैं।  मनोविकार पागलपन नहीं बल्कि अक बीमारी है जिसका इलाज दवाओं के जरिए संभव है। नई दवाएं आ गई है जो दिमाग के न्यूरान पर क्रियाशील होकर रसायनिक असंतुलन को दूर करती है। दिमाग में सिरोटिन एवं नार-एपीनेफ्रिन रसायन  का स्तर कम होने बीमारी की आशंका बढ़ जाती है। विशेषज्ञों का कहना है कि इलाज में दवा के अलावा काउंसलिंग की अहम भूमिका है। 

बाक्स---
इन परेशानियों को मत करें नजरअंदाज,बचा रहे जीवन
--लगातार दु:खी,तनाव ग्रस्त,खालीपन महसूस करना,निराशा
--अपराधबोध से ग्रसित होना स्वयं का नाकबिल सनझना
--सेक्स सहित दूसरे क्रियाकलापों के प्रति उदासीनता
--मौत या आत्महत्या का विचार आना,लगातार चिड़चिड़ापन
---स्फूर्ति की कमी थकान महसूस होना
--नींद ना आना या अधिक नींद आना
--भूख कम लगना या अधिक लगना
--एकाग्रता याददाश्त में कमी,निर्णय लेने में कठनाई,
--अकारण सिर दर्द,पाचन की गड़बड़ी एवं शरीर में दर्द


बाक्स-
दो हजार से अधिक लोगों पर सर्वे के बाद इंडियन जरनल आफ साइकेट्रिक में छपी शोध रिर्पोट के मुताबिक---
 मानसिक रोगोंं का प्रतिशत            
अवसाद-१५.९६
सिक्रिजोफ्रिनिया-०.४२
पैनिक डिसआर्डर-७.५६
फोबिया-५.८८
आवसेसिव कंपल्सिव डिसआर्डक-५.८८
एडजसटमेंट डिसआर्डर-२.५२
अनिद्र-१३.०२
हमेशा बीमार महसूस करना-१.२६
डिस्थीमिया-६.७२
तंबाकू लती-२८.५७
भांग लती-२.९४


बाक्स-
कौन है मानसिक रोगों की चपेट मे(प्रतिशत)
३० से कम उम्र के-- ५०.७
 ३१ से४० उम्र तक --५२.८
 ४० से अधिक उम्र तक-१८
हाई स्कूल तक शिक्षित-६१.६
कालेज या डिप्लोमा तक शिक्षित-४८.६
डिग्री तक शिक्षित -४०.६
रु.३५०० से कम आय -७५.०
 रु. ३५०१ से ६००० तक आय-४७.४
 रु. ६००१ से ८५०० तक आय-३७.४
रु. ८५०१ से अधिक आय -३७.०
विवाहति-४९.० फीसदी
अविवाहित-६०.० फीसदी
संयुक्त परिवार में रहने वाले-५५.३ फीसदी
न्यूक्लीयर फेमली--४७.४ फीसदी
अकेले रहने वाले-

सोमवार, 21 सितंबर 2015

बच्चों को मोटापे से बचाने में प्रोटीन युक्त आहार देने से उनमें मोटापे को रोका जा सकता है

कुमार संजय, लखनऊ1जवानी की दहलीज पर कदम रखने वाले आठ से दस फीसद शहरी मोटापे के शिकार है खास तौर पर वह बच्चे जो शारीरिक रूप से एक्टिव नहीं है। यह मोटापा उनमें जवानी में तमाम तरह की परेशानी खड़ी कर सकता है। संजय गांधी पीजीआइ की पोषण विशेषज्ञ निरूपमा सिंह कहती है स्वस्थ रहना अच्छी बात है, लेकिन मोटापा ठीक नहीं है। बच्चों को मोटापे से बचाने में प्रोटीन युक्त आहार देने से उनमें मोटापे को रोका जा सकता है। देखा गया है कि छोटे बच्चे या टीनेजर्स हमेशा डेरी उत्पाद जैसे दूध, दही, मीट या अंडा खाने से दूर भागते हैं।1नाश्ते में इस प्रोटीन निर्मित आहार को लेने से अधिक वजनदार टीनेजर्स अपना वजन कम कर सकते हैं। इंटरनेशनल जरनल ऑफ ओबेसिटी के एक शोध का हवाला देते हुए कहती है कि टीनेजर्स के साधारण प्रोटीन वाले नाश्ते और ज्यादा प्रोटीन वाले नाश्ते के फायदों की तुलना की जो नाश्ता नहीं करते हैं उनमें भी शोध हुआ। शोध रिपोर्ट के मुताबिक अध्ययन से यह जानने की कोशिश की गई कि जो लोग सुबह नाश्ता करने से चूकते हैं, उन्हें अगर नाश्ता करने को दिया जाए, तो क्या उनके वजन पर प्रभाव पड़ेगा या नहीं। इस अध्ययन से पता चला कि नाश्ते में 35 ग्राम प्रोटीन लेने से भूख लगना, खाना खाने की इच्छा और शरीर में उत्पन्न हो रहे फैट को रोका जा सकता है। साथ ही ग्लूकोज लेवल पर नियंत्रण रखा जा सकता है। 35 ग्राम प्रोटीन की मात्र लेने का मतलब, दूध, दही, अंडा और मीट को मिलाकर उच्च क्वालिटी की सामग्री को अपने आहार में शामिल करना है।
1अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने वजनदार टीनेजर्स को दो ग्रुप में बांटा। एक जो टीनेजर्स अपना साधारण या •यादा प्रोटीन वाला नाश्ता हफ्ते में पांच बार खाने से चूकते हैं और दूसरा जो टीनेजर्स अपना नाश्ता हफ्ते में सात बार खाने से चूकते हैं। तीसरा ग्रुप जिसने अपना नाश्ता 12 हफ्तों तक नहीं खाया। साधारण प्रोटीन वाला नाश्ता, जिसमें दूध और अन्य शामिल हैं, उसमें 13 ग्राम प्रोटीन होता है। वहीं, ज्यादा प्रोटीन वाले नाश्ते में 35 ग्राम प्रोटीन होता है।1कुमार संजय, लखनऊ1जवानी की दहलीज पर कदम रखने वाले आठ से दस फीसद शहरी मोटापे के शिकार है खास तौर पर वह बच्चे जो शारीरिक रूप से एक्टिव नहीं है। यह मोटापा उनमें जवानी में तमाम तरह की परेशानी खड़ी कर सकता है। संजय गांधी पीजीआइ की पोषण विशेषज्ञ निरूपमा सिंह कहती है स्वस्थ रहना अच्छी बात है, लेकिन मोटापा ठीक नहीं है। बच्चों को मोटापे से बचाने में प्रोटीन युक्त आहार देने से उनमें मोटापे को रोका जा सकता है। देखा गया है कि छोटे बच्चे या टीनेजर्स हमेशा डेरी उत्पाद जैसे दूध, दही, मीट या अंडा खाने से दूर भागते हैं।1नाश्ते में इस प्रोटीन निर्मित आहार को लेने से अधिक वजनदार टीनेजर्स अपना वजन कम कर सकते हैं। इंटरनेशनल जरनल ऑफ ओबेसिटी के एक शोध का हवाला देते हुए कहती है कि टीनेजर्स के साधारण प्रोटीन वाले नाश्ते और ज्यादा प्रोटीन वाले नाश्ते के फायदों की तुलना की जो नाश्ता नहीं करते हैं उनमें भी शोध हुआ। शोध रिपोर्ट के मुताबिक अध्ययन से यह जानने की कोशिश की गई कि जो लोग सुबह नाश्ता करने से चूकते हैं, उन्हें अगर नाश्ता करने को दिया जाए, तो क्या उनके वजन पर प्रभाव पड़ेगा या नहीं। इस अध्ययन से पता चला कि नाश्ते में 35 ग्राम प्रोटीन लेने से भूख लगना, खाना खाने की इच्छा और शरीर में उत्पन्न हो रहे फैट को रोका जा सकता है। साथ ही ग्लूकोज लेवल पर नियंत्रण रखा जा सकता है। 35 ग्राम प्रोटीन की मात्र लेने का मतलब, दूध, दही, अंडा और मीट को मिलाकर उच्च क्वालिटी की सामग्री को अपने आहार में शामिल करना है।
1अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने वजनदार टीनेजर्स को दो ग्रुप में बांटा। एक जो टीनेजर्स अपना साधारण या •यादा प्रोटीन वाला नाश्ता हफ्ते में पांच बार खाने से चूकते हैं और दूसरा जो टीनेजर्स अपना नाश्ता हफ्ते में सात बार खाने से चूकते हैं। तीसरा ग्रुप जिसने अपना नाश्ता 12 हफ्तों तक नहीं खाया। साधारण प्रोटीन वाला नाश्ता, जिसमें दूध और अन्य शामिल हैं, उसमें 13 ग्राम प्रोटीन होता है। वहीं, ज्यादा प्रोटीन वाले नाश्ते में 35 ग्राम प्रोटीन होता है।1

20 फीसद मार्ग दुर्घटना का कारण खर्राटा



20 फीसद मार्ग दुर्घटना का कारण खर्राटा
सोते समय खर्राटा भरना आपको उच्च रक्तचाप, डायबटीज और श्वास रोग का शिकार बना सकता है। संजय गांधी पीजीआइ के पल्मोनरी मेडिसिन के प्रोफेसर जिया हुसैन ने पत्रकार वार्ता में बताया कि बीस फीसदी रोड एक्सीडेंट का कारण रात में खर्राटे के कारण नींद पूरी न होना है। बताया कि इसकी वजह से सोते समय व्यक्ति की सांस कुछ सेकेंड के लिए सैकड़ों बार रुक जाती हैं। पुन: जब सांस आती है, तो आवाज काफी जोरदार होती है। सांस रुकने की यह अवधि एक सेकेंड से एक मिनट तक हो सकती है। श्वसन क्रिया में आने वाले इस अंतर यानी सांस के इस तरह रुकने और फिर वापस आने को एप्निया कहा जाता है। इससे रात को सोते वक्त शरीर में ऑक्सीजन की कमी और कार्बन डाइऑक्साइड की मात्र बढ़ जाती है। किसी व्यक्ति की सांस नींद में एक घंटे में 15 बार से अधिक रुकती है, तो इसे गंभीर ओएसए की श्रेणी में गिना जाता है। संस्थान में 82 लोगों में स्लीप स्टडी किया तो देखा कि 50 लोगों में गंभीर स्लीप एप्निया की परेशानी थी। 1गर्दन की गोलाई अधिक तो ओएसए1मोटापे के कारण गर्दन मोटी होने से सांस मार्ग छोटा हो जाता है। पुरुषों के लिए गर्दन की माप 17 इंच और महिलाओं के लिए 16 इंच से अधिक नहीं होनी चाहिए। इससे अधिक होने पर ओएसए का खतरा बढ़ जाता है। ओएसए होने की संभावना उन लोगों में दोगुनी हो जाती है, जिन्हें रात में अक्सर नाक बंद होने की समस्या रहती है। 1क्या है स्लीप स्टडी1ऑब्स्ट्रक्टिव स्लीप एप्निया (ओएसए) की जांच स्लीप स्टडी या पॉलीसोम्नोग्राफी द्वारा की जाती है। सोते समय रोगी के सर, छाती, दोनों हाथ व पैर समेत शरीर के विभिन्न हिस्सों में सेंसर लगा दिये जाते हैं, जो नींद की स्थिति में रोगी की सांस, पल्स ऑक्सीमेट्री (ऑक्सीजन), खर्राटों की आवाज व उसकी तीव्रता, हृदय की धड़कन (ईकेजी), मस्तिष्क की तरंगों (ईईजी), शरीर की करवट की स्थिति, सीने और आंखों की स्थिति से जुड़ी गतिविधियों का पता लगाते हैं। संस्थान में यह जांच 800 रुपये में होती है।1बेहतर उपचार है सीपीएपी1ओएसए का सबसे बेहतर उपचार है-कंटिन्यूअस पॉजिटिव एयरवे प्रेशर (सीपीएपी) यानी सतत एयर प्रेशर थेरैपी. यह एक छोटा पोर्टेबल मैकेनिकल डिवाइस है। शरीर में पर्याप्त मात्र में ऑक्सिजन की आपूर्ति हो पाती है। संस्थान यह मशीन ट्रायल के लिए भी उपलब्ध कराता है। किस्त पर कंपनी से दिलवाने की कोशिश करता है।6खर्राटे के कारण हो सकती है ब्लड प्रेशर और डायबटीज की परेशानी

मच्छर ढा रहे इंसेफ्लाइटिस का कहर

मच्छर ढा रहे इंसेफ्लाइटिस का कहर
बरसात के मौसम में दिमागी बुखार यानी इंसेफ्लाइटिस का कहर शुरू हो जाता है। इसमें जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम नामक दो बीमारियां होती हैं। दोनों को ही सामान्य भाषा में इंसेफ्लाइटिस कहा जाता है। इंसेफ्लाइटिस के सबसे अधिक शिकार तीन से 15 साल के बच्चे होते हैं। संजय गांधी पीजीआइ के तंत्रिका तंत्र विशेषज्ञ प्रो.संजीव झा कहते है कि यह बीमारी जुलाई से दिसंबर के बीच फैलती है। सितंबर-अक्टूबर में बीमारी का कहर सबसे ज्यादा होता है। विशेषज्ञों का कहना है कि जितने लोग इंसेफ्लाइटिस से ग्रसित होते हैं, उनमें से केवल 10 प्रतिशत में ही दिमागी बुखार के लक्षण जैसे झटके आना, बेहोशी और कोमा की स्थिति आती है। इनमें 50 से 60 प्रतिशत मरीजों की मौत हो जाती है। बचे हुए मरीजों में से लगभग आधे लकवाग्रस्त हो जाते हैं। उनकी आंख और कान ठीक से काम नहीं करते हैं। जिंदगी भर दौरे आते रहते हैं। मानसिक अपंगता होती है।
पंद्रह साल तक के बच्चों में अधिक है खतरा
टीके से रखे अपने बच्चों को सुरक्षित
घर को साफ सुथरा रखें। इसके अलावा मच्छरों से बचाव के लिए कीटनाशक का प्रयोग करें। रात में सोते समय मच्छरदानी का प्रयोग करें। इंसेफ्लाइटिस देने वाले मच्छर शाम को ही काटते हैं, इसलिए शाम को बाहर निकलते समय शरीर को ढककर रहें। बच्चों को इंसेफ्लाइटिस का टीका जरूर लगवाएं, इसे जेई वैक्सीन के टीके लगवाने होते हैं। यह शून्य से 15 साल तक के बच्चों को लगाया जाता है।

डेंगू में प्लेटलेट्स काउंट 10,000 से कम तो है प्लेटलेट्स की जरूरत

जय गांधी पीजीआई के क्लीनिकल इम्यूनोलाजी विभाग के प्रो.विकास अग्रवाल, हिमैटोलाजी विभाग की प्रमुख प्रो.सोनिया नित्यानंद, सामान्य अस्पताल की की डॉ. प्रेरणा कपूर और माइक्रोबायलोजी विभाग की डॉ. रिचा मिश्र आदि ने पत्रकारवार्ता में कहा कि
जागरण संवाददाता, लखनऊ : डेंगू के उन मरीजों में अधिक खतरा है, जिन्हे दोबारा डेंगू हुआ है। इन लोगों में डेंगू शॉक सिंड्रोम का अधिक खतरा रहता है। डेंगू के एक फीसद मरीज ही गंभीर होते हैं। इन मरीजों को भर्ती की जरूरत होती है। जिस मरीज का प्लेटलेट्स काउंट 10,000 से कम है, उसे प्लेटलेट्स ट्रांसफ्यूजन की जरूरत नहीं होती।1यह धारणा गलत है कि डेंगू में मौत प्लेटलेट्स के कारण होती है। अनुचित प्लेटलेट्स ट्रांसफ्यूजन से नुकसान हो सकता है। डेंगू में मौत का कारण असल में कैपिलरी लीकेज है। लीकेज की हालत में इंट्रावैस्कुलर कंपार्टमेंट में खून की कमी हो जाती है और कई सारे अंग काम करना बंद कर देते हैं। इस तरह की लीकेज होने तुरंत सलाह लेने की जरूर है। संजय गंधी पीजीआई के शरीर प्रतिरक्षा विशेषज्ञ प्रो.विकास अग्रवाल कहते है कि नब्ज में 20 की बढ़ोतरी, रक्तचाप में 20 की कमी, उच्च और निम्न बीपी में 20 से कम का अंतर हो और बाजू पर 20 से ज्यादा चकत्ते हों तो ये गंभीर खतरे के लक्षण होते हैं। इसलिए तुरंत डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए। डेंगू से पीड़ित लोगों को मेडिकल सलाह लेनी चाहिए, आराम करना चाहिए और तरल आहार लेते रहना चाहिए। संस्थान विभागों की रोस्टर वाइज ड्यूटी लगी है जो इमरजेंसी में मरीज के अटेंड करते है। दस बेड सुरक्षित रखा गया है।