सोमवार, 20 जनवरी 2025

कबूतर व तोते के पंखों के संपर्क में लंबे समय तक रहते हैं तो फेफड़े की दुर्लभ

 

 बीट से फेफड़े की बीमारी का खतरा


अगर आपके घर के आस-पास कबूतरों का डेरा है या घर में पक्षी पले हैं तो यह आपके लिए खतरे की घंटी हो सकती है। कबूतर व तोते के पंखों के संपर्क में लंबे समय तक रहते हैं तो आप फेफड़े की दुर्लभ और गंभीर बीमारी हाइपर संसिटिविटी न्यूमोनाइटिस की चपेट में आ सकते हैं। वैसे तौ यह एक तरह की एलजीं है, लेकिन यह धीरे- धीरे फेफड़े को खोखला बना सकती है।


पक्षियों से होनी वाली वीमारियों के संबंध में विकास मिश्र की रिपोर्ट-


लखनऊः कबूतर जैसे अन्य पक्षियों के संपर्क में लंबे समय तक गाना आपकी सेहत के लिए घातक हो सकता है। केजीएमयू के रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग के अध्यक्ष प्रो. सूर्यकांत का कहना है कि हाइपर सेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस को यर्ड फैनसियर के फेफड़े के रूप में भी जाना जाता है, जो पक्षियों की बोट या पंखों के संपर्क में लंबे समय तक रहने के कारण होता है।


इसके अलावा बैक्टोरिया, फंगी, एनिमल एंड प्लांट प्रोटीन के साथ दूसरी एलर्जी भी हदपर सेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस का कारण हो सकते हैं। लक्षण को पहचान कर समय से सटीक इलाज करने पर बीमारी पूरी तरह ठीक हो सकती है। रोजाना ओपीडी में आने वाले 100 में से 10 मरीज हाइपर सेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस के लक्षण वाले होते हैं।


कैसे करें बचाव


यह बीमारी किसी भी उम्र में हो सकती है। इससे बचाव ही सबसे अच्छा उपचार है। अगर आप ऐसी जगहों पर काम करते हैं या रहते है, जहां पक्षियों, लकड़ी, कागज या अनाज है तो अच्छी गुणवता का मास्क लगाएं। घर के अंदर, बाहर और कबूतर, तोता या किसी पक्षी को न पालें और न ही दाना डालें।


घर को चिड़ियाघर न बनाएं, लक्षण को पहचानें: प्रो. सूर्यकांत प्रो. सूर्यकांत कहते हैं, आजकल घर के अंदर पशु- पक्षी पालने का चलन बढ़ गया है, लेकिन ज्यादातर लोग इस बात से बेफिक्र होते हैं कि इससे उनके स्वास्थ्य को भी खतरा रहता है। दरअसल, कुछ पशु पक्षी के पंखों के छोटे कण सांस की नली में एलजीं पैदा करते हैं, जिसकी वजह से सांस की नली में सिकुड़न आ जाती है। धीरे-धीरे इसका दुष्प्रभाव फेफड़े को होता है, जी हाइपर सेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस का


लक्षणों को पहचानें


सांस लेने में परेशानी, सूखी खांसी, छाती में तनाव, थकान, कमजोरी व लंबे समय तक बुखार मांसपेशियों में दर्द होना, वजन घटने लगना


अंगुली या पैर की अंगुली का मुड़ना


कारण बनता है। न्यूमोनाइटिस में मरीज के फेफड़े और सांस की नली में सूजन आ जाती है। कई बार डाक्टर इसके लक्षण की अस्थमा या टीबी मानकर इलाज करते हैं। ऐसे में गलत इलाज और शुरुआती लक्षण को नजरअंदाज करने से फेफड़े में फाइब्रोसिस (फेफड़े का सिकुड़न) हो सकता है। फाइब्रोसिस होने पर फेफड़े का एक हिस्सा निष्क्रिय हो जाता है और उतना हिस्से में आक्सीजन का प्रवाह नहीं होता है।


200 बीमारियों

का एक समूह है आइएलडी जिसमें हाइपर सेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस भी एक है।


10 शहरों के 27 केंद्रों पर आइएलडी मरीजों का पंजीकरण कराया गया


1,084 मरीजों पर


किया

: हो चुका है शोध


एचएसआइएलडी- 47.3%


सीटीडी आइएलडी-13.9%


आइपीएफ-13.7%


 आइएनएसआइपी-8.5%


सारकोहोसिस-7.8%


न्यूमोकोनियोसिस- 3%


अन्य समस्याएं मिलीं-5.7%


एडवांस स्टेज में लाइलाज है बीमारी


 प्रो. सूर्यकांत के मुताबिक, अगर समय से सही उपचार न हो तो धीरे-धीरे मरीज का आक्सीजन स्तर 90 के नीचे आ जाता है और मरीज गंभीर स्थिति में पहुंच जाता है, जहां से उबरना मुश्किल हो जाता है। ऐसे रोगी का जीवन अधिकतम एक से पांच वर्ष तक होता है। कुछ मरीजों को लंग ट्रांसप्लांट की भी जरूरत पड़ती है। अगर किसी व्यक्ति दो सप्ताह से अधिक खासी आ रही है तो उसे बलगम और एक्सरे की जांच जरूर कराना चाहिए। बलगम की जांच रिपोर्ट निगेटिव हो सकती है, लेकिन एक्सरे में फेफड़े की सिकुड़न (फाइब्रोसिस) दिखेगी। इस बीमारी की सटीक पहचान के लिए दो जांच जरूरी है। पहली हाई रिजुलेशन सीटी स्कैन और दूसरी पीएफटी। तीन से छह माह में बीमारी की पहचान कर सही इलाज हो तो पूरी तरह ठीक होना संभव है। लक्षण दिखने पर रेस्थिरेटरी मेडिसिन के विशेषज्ञ को ही दिखाएं। अगर आप छत पर गौरैया या अन्य छोटे पक्षी को दाना डालते हैं तो डरने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इनसे कोई खतरा

 200बीमारियों

का एक समूह है आइएलडी जिसमें हाइपर सेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस भी एक है।


10 शहरों के 27 केंद्रों पर आइएलडी मरीजों का पंजीकरण कराया गया


1,084 मरीजों पर


किया गया अध्ययन


में यह शोध 2017 अमेरिकन


जर्नल में प्रकाशित

रविवार, 19 जनवरी 2025

पीजीआई में रेयर डिजीज जीपीडी-1 डिफिशिएंसी से ग्रस्त देश के चौथे शिशु का इलाज

 

6 माह के  शिशु में हो सकता है फैटी लिवर 


पीजीआई में रेयर डिजीज जीपीडी-1 डिफिशिएंसी से ग्रस्त देश के चौथे शिशु का इलाज


पूरे दुनिया में अब तक 30 बच्चों में चला है इस बीमारी का पता  


संजय गांधी पीजीआई के पीडियाट्रिक गैस्ट्रोएंटरोलॉजी विभाग ने एक दुर्लभ बीमारी जीपीडी-1 डिफिशिएंसी से ग्रस्त 6 महीने के शिशु का इलाज सफलतापूर्वक किया है। यह भारत में इस बीमारी का चौथा मामला था। दुनिया भर में इस प्रकार के लगभग 30 मामले सामने आए हैं जिनकी उम्र एक माह से 13.6 वर्ष के बीच रही है। भारत में अब तक तीन मामलों की रिपोर्ट हुई है जिसमें से एशिया से केवल 9 मामले सामने आए हैं। जीपीडी-1 की कमी से बच्चों में फैटी लिवर का एक दुर्लभ कारण बन सकता है। समय पर इलाज से इसमें सुधार संभव है।  ट्राइग्लिसराइड का स्तर बढ़ा हुआ हो और लिवर की समस्या हो उनमें इस बीमारी की पुष्टि के लिए जीन परीक्षण कराना चाहिए।  


 


क्या है जीपीडी-1 डिफिशिएंसी?

जीपीडी-1 (ग्लिसरॉल-3-फास्फेट डिहाइड्रोजिनेज 1) जीन में उत्परिवर्तन (मू्यटेशन) के कारण यह समस्या उत्पन्न होती है, जो बच्चों में फैटी लिवर का कारण बनता है। इस बीमारी में ग्लिसरॉल-3-फास्फेट डिहाइड्रोजिनेज 1 रसायन की कमी हो जाती है, जिसके कारण लिवर में फैट जमा होने लगता है। समय पर इलाज न मिलने पर लिवर की कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ सकता है।


शिशु में यह थी परेशानी

पीजीआई में 6 महीने का शिशु इलाज के लिए आया था, जो स्वस्थ माता-पिता का दूसरा बच्चा था। उसे चार महीने की उम्र से पेट के ऊपरी हिस्से में सूजन और बढ़े हुए लिवर की समस्या थी। शिशु का वजन 3.8 किलोग्राम और लंबाई 56 सेंटीमीटर थी। उसकी रक्त जांच में यूरिया का स्तर 9.4 मिलीग्राम/डीएल, ट्राइग्लिसराइड का स्तर 627 मिलीग्राम/डीएल और लिवर एंजाइम्स (एसजीओटी 360 यू/एल और एसजीपीटी 164 आईयू/एल) बढ़े हुए थे। अल्ट्रासोनोग्राफी में ग्रेड टू फैटी लिवर पाया गया, और लिवर बायोप्सी से यह पुष्टि हुई कि लिवर में 90% फैट जमा हो चुका था।


ऐसे हुई इलाज



विशेषज्ञों ने शिशु को कम वसा और ट्राइग्लिसराइड आधारित आहार दिया। छह महीने बाद, ट्राइग्लिसराइड और लिवर एंजाइम्स के स्तर में सुधार देखा गया।  इस प्रकार के बच्चों का हर 3 से 6 महीने में लिवर प्रोफाइल, लिपिड प्रोफाइल और अल्ट्रासाउंड परीक्षण कराया जाना चाहिए।


इलाज करने वाले विशेषज्ञ

इस दुर्लभ मामले का इलाज संजय गांधी पीजीआई के पीडियाट्रिक गैस्ट्रोएंटरोलॉजी विभाग के डॉ. आशय शाह और प्रिज्म बाल चिकित्सा गैस्ट्रो सेंटर, अहमदाबाद के विशेषज्ञों ने किया। इस मामले की रिपोर्ट को "ग्लिसरॉल-3-फॉस्फेट डिहाइड्रोजिनेज 1 डिफिशिएंसी: ए रेयर कारण ऑफ फैटी लिवर डिजीज इन चिल्ड्रन" विषय के तहत इंडियन पीडियाट्रिक जर्नल में जनवरी 2025 में प्रकाशित किया गया है।

बुधवार, 8 जनवरी 2025

1.38 फीसदी में वायरल निमोनिया का कारण है एचएमपीवी

 

फरवरी के बाद धीमा हो जाएगा एचएमपीवी वायरस

1.38 फीसदी में वायरल निमोनिया का कारण है एचएमपीवी


एचएमपीवी वायरस से न हों परेशान, बस बरतें सावधानी

आईसीएमआर ने वायरल निमोनिया के कारण जानने के लिए किया शोध

देश का सबसे बड़ा शोध


कुमार संजय


ह्यूमन मेटा न्यूमोवायरस (एचएमपीवी) को लेकर देश का सबसे बड़ा शोध सामने आया है, जिसमें बताया गया है कि इस वायरस से घबराने की जरूरत नहीं है। शोध के अनुसार, फरवरी के बाद वायरस का प्रभाव धीरे-धीरे कम होने लगेगा। यह शोध मई 2022 से बाबा ऱादव दास मेडिकल कालेज कालेज के  रोग विभाग में आने वाले बच्चों पर शिरू हुआ । विशेषज्ञों के अनुसार, पांच साल से कम उम्र के बच्चों में, विशेष रूप से कमजोर इम्यून सिस्टम वाले बच्चों में संक्रमण की आशंका अधिक होती है। हालांकि, संक्रमित बच्चों में केवल 1% मामलों में गंभीर जटिलता की संभावना होती है, जिसे सपोर्टिव थेरेपी जैसे ऑक्सीजन थेरेपी, संतुलित आहार और लक्षण आधारित उपचार से नियंत्रित किया जा सकता है।


943 बच्चों पर हुआ अध्ययन

आईसीएमआर के वैज्ञानिकों ने एक्यूट रेस्पिरेटरी इंफेक्शन (एआरआई) और सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी इंफेक्शन (एसएआरआई) के शिकार पांच साल से कम उम्र के 943 बच्चों पर शोध किया। इसमें पाया गया कि 1.38% बच्चों में श्वसन तंत्र में संक्रमण का कारण एचएमपीवी वायरस था, बाकी में दूसरे वायरस थे। 


आईसीएमआर की मुख्य शोधकर्ता डॉ. हीरावती देवल ने बताया कि एचएमपीवी वायरस की सक्रियता ठंड के दौरान अधिक होती है और फरवरी-मार्च के बाद इसका प्रभाव कम होने लगता है। यह एक सामान्य वायरस है, जिससे घबराने की आवश्यकता नहीं है। यदि किसी में वायरस की पुष्टि होती है, तो सतर्कता बरतना आवश्यक है। इसके तहत, बच्चे के आसपास रहने वालों को मास्क पहनने और हाथ साफ रखने की जरूरत होती है।


श्वसन तंत्र के संक्रमण के लिए नौ प्रमुख वायरस जिम्मेदार

शोध के दौरान यह भी पाया गया कि श्वसन तंत्र के संक्रमण के लिए नौ वायरस जिम्मेदार हैं:


पैराइन्फ्लुएंजा वायरस 


एडेनोवायरस


आरएसवी-बी


इन्फ्लूएंजा-ए


सार्स-कोविड-2


एचएमपीवी


आरएसवी-ए


इन्फ्लूएंजा-बी


एचआरवी


इनमें सबसे अधिक 11.13% मामलों में पैरा इन्फ्लूएंजा वायरस और दूसरे नंबर पर एडिनोवायरस का संक्रमण देखा गया।


बच्चों को परेशान करता है निमोनिया

श्वसन तंत्र के संक्रमण के कारण निमोनिया और बाल मृत्यु दर 14.3% तक देखी गई। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार, एक से पांच वर्ष के बच्चों की मृत्यु के 15.9% मामलों में निमोनिया प्रमुख कारण है।


वायरल संक्रमण के मुख्य लक्षण

नाक से पानी बहना


ठंड लगना और कंपकंपी


सांस लेने में परेशानी


उल्टी


पेट दर्द


कैसे हुआ यह शोध?

हॉस्पिटल बेस्ड सर्विलांस ऑफ रेस्पिरेटरी वायरस इन चिल्ड्रेन अंडर फाइव इयर्स ऑफ एज विद एआरआई पर देश का सबसे बड़ा शोध किया गया।


भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के रीजनल सेंटर, गोरखपुर से डॉ. हीरावती देवल के निर्देशन में यह शोध किया गया। शोध दल में शामिल वैज्ञानिकों में प्रमुख रूप से मिताली श्रीवास्तव, नेहा श्रीवास्तव, नीरज कुमार, रोहित बेनीवाल, राजीव सिंह, अमन अग्रवाल, गौरव राज द्विवेदी, स्थिता प्रज्ञा बेहरा, आसिफ कवाथेकर, संजय प्रजापति, सचिन यादव, दीप्ति गौतम, नलिन कुमार, आसिफ इकबाल, रजनी कांत और वर्षा पोतदार शामिल थे।


इसके अलावा, बाल रोग विभाग, बीआरडी मेडिकल कॉलेज, गोरखपुर की डॉ. अनिता मेहता, भूपेन्द्र शर्मा, माइक्रोबायोलॉजी विभाग के अमरेश कुमार सिंह, विवेक गौड़, एम्स गोरखपुर के डॉ. महिमा मित्तल और आईसीएमआर-नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एपिडेमियोलॉजी, चेन्नई के डॉ. मनोज मुरहेकर भी इस शोध में सम्मिलित हुए।

शनिवार, 4 जनवरी 2025

पीजीआई - टीएमएस तकनीक से मिलेगा रोज़ सिरदर्द से छुटकारा

 

पीजीआई - टीएमएस तकनीक से मिलेगा रोज़ सिरदर्द से छुटकारा


टीएमएस थेरेपी से 50 फीसदी तक सिर दर्द में राहत 




कुमार संजय


रोज़ाना सिरदर्द की समस्या झेल रहे मरीजों के लिए राहत की खबर है। संजय गांधी पीजीआई, लखनऊ के न्यूरोलॉजी विभाग के विशेषज्ञों ने ट्रांसक्रानियल मैग्नेटिक स्टिमुलेशन (टीएमएस) तकनीक से इलाज कर सिरदर्द में 50 फीसदी तक की कमी दर्ज की है। खास बात यह है कि यह थेरेपी उन मरीजों के लिए कारगर साबित हुई, जिन पर दवाओं का असर कम हो जाता था। सिर दर्द में परेशानी के साथ ही  शोध के नतीजों के अनुसार सिरदर्द की तीव्रता में 50 फीसदी तक सुधार हुआ।हर 28 दिनों में औसतन 10.84 दिन सिरदर्द कम हुआ।अवसाद और चिंता के लक्षणों में भी राहत मिली।


रोज़ाना सिरदर्द से परेशान मरीजों को राहत

डॉक्टरी भाषा में इस स्थिति को न्यू डेली पर्सिस्टेंट हेडेक (NDPH) कहा जाता है, जिसमें मरीज हर दिन सिरदर्द से जूझते हैं। यह समस्या क्रोनिक डेली हेडेक (सीडीएच) विकारों में आती है, जिससे दुनिया में करीब 4 फीसदी लोग प्रभावित हो सकते हैं। शोध में पाया गया कि टीएमएस तकनीक से सिरदर्द की तीव्रता और दर्द के दिनों में महत्वपूर्ण कमी आई। टीएमएस तकनीक उन मरीजों के लिए नई उम्मीद बन सकती है, जो रोज़ाना सिरदर्द से परेशान रहते हैं और जिन पर दवाओं का असर कम होता है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह थेरेपी सिरदर्द से स्थायी राहत दिलाने में मददगार साबित हो सकती है।


शोध में 50 मरीजों पर हुआ परीक्षण

पीजीआई के न्यूरोलॉजी विभाग के विशेषज्ञों ने 50 मरीजों (31 महिलाएं शामिल) पर यह अध्ययन किया। मरीजों को लगातार तीन दिनों तक टीएमएस थेरेपी दी गई, जो बाएं प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स में दी जाती है। चार हफ्ते बाद 70 फीसदी मरीजों में 50 फीसदी तक दर्द में राहत मिली।


क्या है टीएमएस तकनीक?

ट्रांसक्रानियल मैग्नेटिक स्टिमुलेशन  एक नॉन-इनवेसिव (चीरा रहित) तकनीक है, जिसमें चुंबकीय तरंगों के जरिए मस्तिष्क की नर्व कोशिकाओं को उत्तेजित किया जाता है। इससे सिरदर्द की तीव्रता को कम किया जाता है और मरीज को राहत मिलती है।


अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुआ शोध

यह शोध संजय गांधी पीजीआई के न्यूरोलॉजी विभाग के प्रो. विमल कुमार पालीवाल के निर्देशन में डॉ. एम.एम. भारथा, स्वांशु बत्रा, डॉ. नैना मिश्रा और डॉ. रोमिल सैनी द्वारा किया गया। शोध को इंटरनेशनल जर्नल ऑफ हेडेक एंड पेन में प्रकाशित किया गया है।

बुधवार, 1 जनवरी 2025

आर्टिफिशियल आंसू दूर करेगा ड्राई आई की परेशानी-- एसी से कमजोर कर सकती है आप की आंख




आर्टिफिशियल आंसू दूर करेगा ड्राई आई की परेशानी

एसी से कमजोर कर सकती है आप की आंख 

1.15 फीसदी लोगों की नजर है कमजोर

 
कुमार संजय। लखनऊ

विश्व नेत्र दिवस (10 अक्टूबर ) के मौके पर संजय गांधी पीजीआई नेत्र रोग विभाग के प्रमुख प्रो. विकास कनौजिया ने बताया कि  एसी में जो लोग लंबे समय तक रहते है उनकी आंख सूख सकती है। आंख में आंसू कम होने पर काली पुतली सूख जाती है जिससे रोशनी कम हो सकती है। इसे ड्राई आई कहते हैं। एसी में लंबे समय तक रहने वाले लोगों में ड्राई आई की परेशानी दूसरे लोगों की तुलना में अधिक देखी गयी है। एसी में रहने वाले लोगों को यदि किसी तरह की परेशानी हो रही है तो वह विशेषज्ञ से सलाह लें।
प्रोफेसर विकास कहते हैं कि इन लोगों में विटामिन डी की भी बहुत कमी होती है इसलिए इन्हें धूप का सेवन लगातार करना चाहिए इससे आंख की रोशनी पर भी प्रभाव पड़ता है। 
आर्टिफिशियल आंसू आने लगा है जिससे आंख का सूखापन दूर कर किया जा सकता है। बताया कि प्रदेश में सौ मे से 1.15 लोग की नजर कमजोर है। कारण मोतियाबिंद, ग्लूकोमा, रिफ्लेक्शन(नजर कमजोर), काला मोतिया , सर्जिकल कंपलिकेशन है। विशेषज्ञों का कहना है कि 80 फीसदी मामले में अंधापन को दूर किया जा सकता है। बशर्ते उनको सही समय पर सही इलाज मिल जाए।

यह है रोशनी की परेशानी का  कारण

73 फीसदी- मोतियाबिंद
 9 फीसदी - रिफ्लेक्शन
 8 फीसदी - ग्लूकोमा
2 फीसदी - सर्जिकल कंपलिकेशन 


 एक हजार में से एक बच्चे की नजर कमजोर 
भारत में एक हज़ार मे से 0.8 फीसदी बच्चों की नजर कमजोर है। इन्हें साफ दिखाई नहीं देता है। बच्चों को यदि देखने में परेशानी है तो आंख की जांच करानी चाहिए। 


कभी मत डाले आंख में यह दवा 
आंख में लाली आने पर अपने मन से कभी आई ड्राप नहीं डालना चाहिए। प्रो.विकास कनौजिया के मुताबिक आंख में एलर्जी होने पर आंख लाल हो जाती है। जलन होता है देखा गया है कि कई लोग अपने मन से आंख में दवा डाल लेते हैं। आंख में प्रिडली सिलोन, डेक्सामेथासोन और बेटनीसोल युक्त दवा कभी भी बिना डॉक्टरी सलाह के लिए नहीं डालना चाहिए। 

टीवी और मोबाइल बच्चों की नजर कर रहा है कमजोर 

प्रोफेसर रचना अग्रवाल ने बताया कि बच्चों में नजर की परेशानी बहुत तेजी से बढ़ रही है इस वर्ष का नेत्र दिवस बच्चों पर ही समर्पित है बच्चों में सबसे अधिक परेशानी का कारण मोबाइल टीवी और कंप्यूटर है इसके इस्तेमाल में सावधानी बरतने की जरूरत है । हमारी ओपीडी में आने वाले 20 फ़ीसदी बच्चे नजर की परेशानी लेकर आ रहे हैं

नजर को बचाए रखने के लिए यह करें उपाय 
-कम या तेज प्रकाश न पढ़े 
- अंधेरे में टीवी न देंखे 
- लगातार टीवी या कंप्यूटर पर नजर न लगाए रखें 
- फल, सब्जी, विटामिन ए और ई का पर्याप्त सेवन करें 
- धूप में अच्छे किस्म का यूवी प्रोटेक्टिव लेंस वाले सन ग्लास लगाए 
- तैरते या खेलते समय आंख की सुरक्षा पर ध्यान दें 
- आंख को रेस्ट दें 
- डायबिटीज है तो आंख की रेगुलर जांच कराए 
- आंख से कम या धुंधला दिख रहा है तो तुरंत डॉक्टर से सलाह लें 


अब युवाओं में भी कॉक्लियर इम्प्लांट सफल

 








अब युवाओं में भी कॉक्लियर इम्प्लांट सफल

-पीजीआई ने पढ़ने व नौकरी पेशा वाले 50 युवाओं का किया कॉक्लियर इंप्लांट 

कुमार संजय

अब सात वर्ष के बच्चों की तरह दिमागी बुखार व दूसरे संक्रमण से सुनने की क्षमता गंवा चुके युवाओं में भी कॉक्लियर इंप्लांट सफल है। संजय गांधी पीजीआई ने दो वर्ष में पढ़ने और नौकरी पेशा वाले 50 युवाओं का इम्प्लांट किया है। इनकी उम्र 18 से 45 वर्ष के बीच है। इनमें से 48 युवाओं को 95 फीसदी सुन सकते हैं। बचे दो 60 फीसदी तक ही सुन सकते हैं। इम्पलांट के बाद यह भी सामान्य युवाओं की तरह पढ़ाई और अन्य कामकाज कर रहे हैं। पीजीआई के न्यूरो ऑटोलॉजी विभाग के प्रो. अमित केसरी ने यह कॉक्लियर इंप्लांट किये हैं। अक्तूबर में यह पेपर इंडियन जर्नल में प्रकाशित हुआ।

90 फीसदी से अधिक सुनाई देने लगा

पीजीआई के न्यूरो ऑटोलॉजी विभाग के प्रो. अमित केसरी ने बताया कि 50 युवाओं में किये गए कॉक्लियर इंप्लांट के अच्छे परिणाम आए हैं। इंप्लांट के बाद यह 90 से 95 फीसदी तक सुन सकते हैं। इंप्लांट के बाद इन युवाओं में एक उम्मीद जगी है। अब यह सामान्य युवाओं की तरह पढ़ाई, नौकरी व अन्य दूसरे कामकाज निपटा रहे। अब इन युवाओं को सुनाई न देने की वजह से स्कूल व कार्यालय में सहपाठी व अन्य से इन्हें हीन भावना व ताने सुनने से निजात मिल गई है।

इनमें कारगर है कॉक्लियर इम्प्लांट
प्रो. अमित केसरी का कहना है कि युवाओं में न सुनाई देने की समस्या जन्मजात नहीं होती है। यह सुन नहीं सकते हैं, लेकिन बोल व समझ सकते हैं। इनमें दिमागी बुखार, ऑटो इम्यून डिजीज व संक्रमण की वजह से सुनने की क्षमता धीरे-धीरे कम होती है। संक्रमण की वजह से सुनने वाली नसे सूख जाती हैं। जिसकी वजह से 10 से 15 साल बाद दोनों कानों से सुनाई देना बंद हो जाता है। हेयरिंग हेड भी काम नहीं करता है। ऐसे में इंप्लांट ही आखिरी विकल्प बचता है। इम्पलांट में करीब साढ़े पांच लाख रुपये का खर्च आता है।

यह हैं कारण
-आनुवांशिक
-दिमागी बुखार
-ऑटो इम्यून डिजीज
-संक्रमण