लम्बे समय तक पेट खराब होने पर इंफ्लेमेटरी बाउल डिजीज की आंशका
अगर लम्बे समय से पेट खराब है। तमाम इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो रहा है। तो इसे नजरअंदाज नही करना चाहिए। क्योंकि यह गंभीर बीमारी इंफ्लेमेटरी बाउल डिजीज (आईबीडी) हो सकती है। भागदौड़ भरी जिदंगी तथा जंक और फास्ट फूड की वजह से आईबीडी के मामलों में तेजी से इजाफा हो रहा है। अफसोस की बात यह है कि अधिकांश डॉक्टर आईबीडी को समझ नहीं पाते हैं वो इसे पाइल्स समझ कर इलाज शुरू कर देते हैं। ये डॉक्टर ऑपरेशन करने में भी गुरेज नहीं करते हैं। इससे मरीज की हालत गंभीर हो जाती है। यह बातें गुरुवार को पीजीआई के गेस्ट्रोलॉजी विभाग के डॉ. यूसी घोसाल ने वर्ल्ड इफ्लेमेटरी बावल डिजीज (आईबीडी) डे पर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में कहीं। उन्होंने कहा कि यदि लम्बे समय तक पेट खराब है तो पेट रोग विशेषज्ञ की सलाह जरूर लें। उन्होंने पंजाब में हुए एक शोध का हवाला देते हुए बताया कि एक लाख में 44 लोग आईबीडी से पीड़ित हैं।
अल्सरेटिव कोलाइटिस और क्रोंस बीमारी
दो तरह का होता आईबीडी
डा. यूसी घोषाल बताते हैं कि इंफ्लेमेटरी बाउल डिजीज दो तरह की होती है। जिसमें अल्सरेटिव कोलाइटिस और क्रोंस बीमारी है। अल्सरेटिव कोलाइटिस में लगातार पतली दस्ता आने के साथ ही खून आता है। बड़ी आंत में घाव हो जाता है। अक्सर डॉक्टर इसकी बिना जांच किए इसे पाइल्स समझ कर इलाज शुरू कर देते हैं। आपरेशन भी कर देते हैं। जबकि इसका पता लगाने के लिए कोलोनीस्कोपी की जांच जरूरी है। इसके अलावा क्रोन डिजीज आंतों से जुड़ी एक बीमारी है। इस बीमारी के कारण आंतों में लंबे समय के लिए सूजन आ जाती है, जिससे पाचन क्रिया प्रभावित होती है। लंबे समय तक इस बीमारी के प्रभाव में रहने से आंतों में छेद भी हो सकता है और ये जानलेवा हो सकता है। इस रोग के लक्षण पेट दर्द, डायरिया, मल के साथ खून आना और तेजी से वजन घटना आदि हैं। डॉ. घोषाल बताते हैं कि देश में आईबीडी का इलाज सस्ता हो गया है। 10 वर्ष पहले एक खुराक की कीमत 75 हजार थी वो अब 10 हजार रुपए में उपलब्ध है। इस बीमारी में दवाएं, बायोलॉजिकल और फेकल ट्रांसप्लांट से इलाज संभव है।
डॉक्टरों और लोगों में जानकारी का अभाव
डा. घोषाल बताते हैं कि अल्सरेटिव कोलाइटिस और क्रोंस बीमारी के प्रति डॉक्टरों और लोगों में जागरुकता की भारी कमी है। आमतौर पर ग्रामीण व शहरी क्षेत्र में डॉक्टर भी इसे शुरूआती दौर में पाइल्स समझकर इलाज करते हैं। आपरेशन के करने के बाद मरीज की हालत बिगड़ जाती है। उसके बाद वो पीजीआई पहुंचता है। तब उसका इलाज करना चुनौती भरा होता है। आईबीडी का पता लगाने के लिए कोलोनोस्कोपी की जांच जरूरी है। डॉक्टरों को प्रशिक्षण देने की जरूरत है। ताकि मरीजों की जान के साथ खिलवाड़ हो।
गलत इलाज कराते हैं लोग
डॉ. यूसी घोषाल ने जौनपुर में किए गए एक सर्वे का हवाला देते हुए बताया कि गांव में 17 फीसदी लोग पेट की बीमारी से पीड़ित थे। उनमें से तीन फीसदी मरीज एमबीबीएस डॉक्टर के पास इलाज कराने गए, पांच फीसदी होम्योपैथिक, आठ फीसदी आयुर्वेदिक तथा एक फीसदी यूनानी के पास गए। उनका कहना है कि आईबीडी की पुष्टि सिर्फ कोलोनोस्कोपी के जरिए ही संभव है। ऐसे में ये डॉक्टर मरीज की बीमारी ठीक करने के बजाए उसे गंभीर बना रहे हैं।
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