मंगलवार, 22 मई 2018

रिटायरमेंट उम्र बढ़ाने का विरोध कर रहे डॉक्टरों का प्रतिनिध मण्डल राज्यपाल से मिला



रिटायरमेंट उम्र बढ़ाने का विरोध कर रहे डॉक्टरों का प्रतिनिध मण्डल राज्यपाल से मिला



पीजीआई फैकल्टी फोरम ने जताया विरोध कहां संस्थान की स्वायत्तता पर खतरा


पीजीआई में डॉक्टरों की रिटायरमेंट उम्र 65 से 70 वर्ष बढ़ाने के प्रस्ताव का विरोध करे संस्थान के फैकल्टी फोरम (डॉक्टरों) का एक प्रतिनिधि मण्डल राज्यपाल राम नाईक से मिलकर इस पर तत्काल रोक लगाने की मांग उठायी। संकाय सदस्यों ने राज्यपाल को अभिलेख दिए। जिसमें कहा गया है कि पीजीआई के 80 फीसदी डॉक्टर रिटायरमेंट उम्र बढ़ाने के विरोध में हैं। संकाय सदस्यों ने राज्यपाल से कहा कि रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाना पीजीआई की स्वायत्तता पर खतरा बताया है। राज्यपाल ने फैकल्टी फोरम को भरोसा दिलाया कि इस गंभीर मुद्दे पर वो जल्द निर्णय लेंगे। उन्होंने कहा कि चंद डॉक्टरों के लिए युवा डॉक्टरों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं होगा। 
पीजीआई फैकल्टी फोरम के अध्यक्ष डॉ. अशोक कुमार, सचिव डॉ. एमएस अंसारी के अलावा डॉ. सुभाष यादव व डॉ. अमिताभ आर्या ने राज्यपाल राम नाईक से मिलकर अपना पक्ष रखा। संकाय सदस्यों ने राज्यपाल से कहा कि संस्थान के सिर्फ चार डॉक्टरों को खुश करने के लिए उनका सेवाकाल पांच वर्ष बढ़ाने का प्रस्ताव संस्थान हित में कतई ठीक नहीं है। पीजीआई में एम्स दिल्ली के सारे नियम कायदे लागू होते हैं। एम्स में रिटायरमेंट उम्र 65 वर्ष है। डॉक्टरों ने कहा कि पीजीआई एक्ट के साथ छेड़छाड़ करने से जूनियर फैकल्टी सदस्यों को संस्थान में मौका नहीं मिलेगा। इससे सीनियर और जूनियर डॉक्टरों के बीच दूरियां बढ़ेंगी। जो मरीजों के हित में कतई फायदेमंद नहीं है। सदस्यों ने कहा कि यदि विशेषज्ञ डॉक्टरों की सेवा लेनी ही है तो उन्हें संविदा पर तैनाती देकर प्रदेश के उन संस्थानों और मेडिकल कालेजों में तैनाती दी जाए जहां पर विशेषज्ञों के पद खाली हैं। बार-बार उम्र बढ़ाने को लेकर उम्र बढ़ाने से पीजीआई के एक्ट में भी तब्दीली करनी पड़ रही है जो कि उचित नहीं है क्योंकि इससे पहले 58 साल रिटायरमेंट की उम्र थी जिसे बढ़ाकर 60 किया गया फिर 62 और 65 किया गया थाl अब फिर से 4 डॉक्टरों को खुश करने के लिए रिटायरमेंट की उम्र 65 से 70 करने जा रहे हैं। हालांकि इसके विरोध में करीब 210  संकाय सदस्यों में से 175 डॉक्टरों ने इसके विरोध में हस्ताक्षर करकर दिया है।

लम्बे समय तक पेट खराब होने पर इंफ्लेमेटरी बाउल डिजीज की आंशका

लम्बे समय तक पेट खराब होने पर इंफ्लेमेटरी बाउल डिजीज की आंशका
विश्व इंफ्लेमेटरी बाउल डिजीज दिवस

 अगर लम्बे समय से पेट खराब है। तमाम इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो रहा है। तो इसे नजरअंदाज नही करना चाहिए। क्योंकि यह गंभीर बीमारी इंफ्लेमेटरी बाउल डिजीज (आईबीडी) हो सकती है। भागदौड़ भरी जिदंगी तथा जंक और फास्ट फूड  की वजह से आईबीडी के मामलों में तेजी से इजाफा हो रहा है। अफसोस की बात यह है कि अधिकांश डॉक्टर आईबीडी को समझ नहीं पाते हैं वो इसे पाइल्स समझ कर इलाज शुरू कर देते हैं। ये डॉक्टर ऑपरेशन करने में भी गुरेज नहीं करते हैं। इससे मरीज की हालत गंभीर हो जाती है। यह बातें गुरुवार को पीजीआई के गेस्ट्रोलॉजी विभाग के डॉ. यूसी घोसाल ने वर्ल्ड इफ्लेमेटरी बावल डिजीज (आईबीडी) डे पर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में कहीं। उन्होंने कहा कि यदि लम्बे समय तक पेट खराब है तो पेट रोग विशेषज्ञ की सलाह जरूर लें। उन्होंने पंजाब में हुए एक शोध का हवाला देते हुए बताया कि एक लाख में 44 लोग आईबीडी से पीड़ित हैं।

अल्सरेटिव कोलाइटिस और क्रोंस बीमारी
दो तरह का होता आईबीडी

डा. यूसी घोषाल बताते हैं कि इंफ्लेमेटरी बाउल डिजीज दो तरह की होती है। जिसमें अल्सरेटिव कोलाइटिस और क्रोंस बीमारी है। अल्सरेटिव कोलाइटिस में लगातार पतली दस्ता आने के साथ ही खून आता है। बड़ी आंत में घाव हो जाता है। अक्सर डॉक्टर इसकी बिना जांच किए इसे पाइल्स समझ कर इलाज शुरू कर देते हैं। आपरेशन भी कर देते हैं। जबकि इसका पता लगाने के लिए कोलोनीस्कोपी की जांच जरूरी है। इसके अलावा क्रोन डिजीज आंतों से जुड़ी एक बीमारी है। इस बीमारी के कारण आंतों में लंबे समय के लिए सूजन आ जाती है, जिससे पाचन क्रिया प्रभावित होती है। लंबे समय तक इस बीमारी के प्रभाव में रहने से आंतों में छेद भी हो सकता है और ये जानलेवा हो सकता है। इस रोग के लक्षण पेट दर्द, डायरिया, मल के साथ खून आना और तेजी से वजन घटना आदि हैं। डॉ. घोषाल बताते हैं कि देश में आईबीडी का इलाज सस्ता हो गया है। 10 वर्ष पहले एक खुराक की कीमत 75 हजार थी वो अब 10 हजार रुपए में उपलब्ध है। इस बीमारी में दवाएं, बायोलॉजिकल और फेकल ट्रांसप्लांट से इलाज संभव है।

डॉक्टरों और लोगों में जानकारी का अभाव

डा. घोषाल बताते हैं कि अल्सरेटिव कोलाइटिस और क्रोंस बीमारी के प्रति डॉक्टरों और लोगों में जागरुकता की भारी कमी है। आमतौर पर ग्रामीण व शहरी क्षेत्र में डॉक्टर भी इसे शुरूआती दौर में पाइल्स समझकर इलाज करते हैं। आपरेशन के करने के बाद मरीज की हालत बिगड़ जाती है। उसके बाद वो पीजीआई पहुंचता है। तब उसका इलाज करना चुनौती भरा होता है। आईबीडी का पता लगाने के लिए कोलोनोस्कोपी की जांच जरूरी है। डॉक्टरों को प्रशिक्षण देने की जरूरत है। ताकि मरीजों की जान के साथ खिलवाड़ हो।  

गलत इलाज कराते हैं लोग

डॉ. यूसी घोषाल ने जौनपुर में किए गए एक सर्वे का हवाला देते हुए बताया कि गांव में 17 फीसदी लोग पेट की बीमारी से पीड़ित थे। उनमें से तीन फीसदी मरीज एमबीबीएस डॉक्टर के पास इलाज कराने गए, पांच फीसदी होम्योपैथिक, आठ फीसदी आयुर्वेदिक तथा एक फीसदी यूनानी के पास गए। उनका कहना है कि आईबीडी की पुष्टि सिर्फ कोलोनोस्कोपी के जरिए ही संभव है। ऐसे में ये डॉक्टर मरीज की बीमारी ठीक करने के बजाए उसे गंभीर बना रहे हैं।

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मंगलवार, 1 मई 2018

डाक्टरों की तीन बार रिटारमेंट अायु बढी लेकिन समस्या जस की तस - फैकल्टी फोरम

डाक्टरों की तीन बार रिटारमेंट अायु बढी लेकिन समस्या जस की तस  - फैकल्टी फोरम


डाक्टरों की तीन बार रिटारमेंट अायु बढी लेकिन समस्या जस की तस  - फैकल्टी फोरम

रिटारमेंट अायु बढाना नहीं है विकल्प

 रिटारमेंट अायु बढती है तो केंद्र सरकार के नियम की अवहेलना



 डाक्टरों की रिटायरमेंट अायु बढाती है तो यह केंद्र सरकार के नियम के अवहेलना है। 2017 में केंद्र सरकार ने डाक्टरों की रियारमेंट अायु 62 से बढा कर 65 किया जिसमें साफ -साफ कहा गया कि इन लोगों को कोई भी प्रशासनिक पद नहीं दिया जाएगा । बढे तीन साल में केवल यह मरीज देखेंगे। संजय गांधी पीजीआई के फैकल्टी फोरम के अध्यक्ष प्रो. अशोक कुमार और सचिव प्रो. एमएस अंसारी सहित अन्य पदाधिकारियों  ने फोरम की बैठक के बाद कहा कि सरकार के इस प्रस्ताव का हर स्तर तक विरोध करेंगे जरूरत पडी तो कार्य बहिष्कार तक कर सकते हैं। कहा कि डाक्टरों की रियारमेंट अायु बीते सालों में तीन बार बढा चुकी है। पहले 58 से 60 किया फिर 60 से 62 किया इसके बाद 62 से 65 किया लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है। इससे साबित होता है रिटारमेंट अायु बढाना कोई सही समस्या का हल नहीं है। इससे अागे सरकार के सामने और विषम स्थिति अा सकती है। 

अाखिर क्यों पीजीआई छोड़ गए 80 से अधिक  
जूनियर डाक्टरों( फैकल्टी) को मौका न मिलने  वह संस्थान को छोड कर कारपोरेट अस्पताल का रूख कर सकते हैं। पीजीआई से बीते सालों में 80 से अधिक डाक्टर छोड़ कर जा चुके हैं। 65 से 70 रिटारमेंट अायु करने पर संस्थान से काफी  छोड़ कर कारपोरेट अस्पताल का रूख कर सकते हैं। पदाधिकारियों ने बताया कि संस्थान के एक विभाग से सात संकाय सदस्य छोड़ कर जा जुके है जिसमें डा. विजय खेर, प्रदीप अरोडा, डा. संजीव गुलाटी, डा. डीके अग्रवाल, डा. अजय प्रकाश शर्मा, डा. मुफ्फजल, डा. अालोक कुमार शामिल है। इसी तरह से हाल में  ही एक दूसे डा. अऩिल मंधानी, डा. सौऱभ वशिष्ठ छोड़ कर चले गए। संस्थान से डाकटरों को रोकने के लिए नए सिरे से सोचना होगा । सरकार के तुगलकी फरमान जारी करेंगे तो इससे संस्थान की प्रतिभा का पलायन होगा।

सालों से जमें रहे नहीं तैयार की सेकेंड लाइन

मेडिकल विवि के टीचर एसोसिएशन के सचिव प्रो.संतोष कुमार 65 के बाद डाक्टर को उनके अनुभव को देखते हुए एेसी जगह भेजा जाए जहां पर विशेषज्ञ नहीं है। डाक्टर में सेवा भाव है तो यह लोग 65 के बाद फ्री कहीं भी लोगों को सलाह दे सकते हैं। सेवा के लिए संस्थान में जमे रहने की क्या जरूरत  है। कहा कि एक 65 के बाद पांच साल अौर काम करने की चाह रखने वाले विभाग के प्रमुखों ने कहा कि एक ही पद है इनके रहने से एमसीआई से मान्यता खत्म हो जाएगी तो अाज इन्होंने सेकेंड लाइन क्यों नहीं तैयार किया यह इनका फेल्योर है।  अपने कार्य काल में पद क्यों नहीं बढवाया। 

4 से 6 रूपए में ले सकते है अच्छी सांस



पल्मोनरी फंक्सन टेस्ट से चलता है अस्थमा का पता

4 से 6 रूपए में ले सकते है अच्छी सांस

इनहेलेशन थिरेपी ही है  दमा में कारगर

लखनऊ। कुमार संजय 

देश का हर दसवां व्यक्ति अस्थमा का शिकार है। यह बच्चों और बड़ों दोनों में ही कुछ महीने में उभर कर आ जाता है। दमा का सही इलाज नहीं होने पर यह जानलेवा भी साबित होता है। इनहेल्ोशन थेरेपी सबसे कारगर इलाज है, जो 4 से 6 रुपये प्रतिदिन की कीमत में उपलब्ध है। संजय गांधीपीजीआई के पल्मोनरी मेडिसिन के विशेषज्ञ प्रो.आलोक और प्रोफेसर जिया हासिम के मुताबिक सांस फूलने के दूसरे कारण भी होते है। इसका पता लगाने के लिए पल्मोनरी फंक्सन टेस्ट किया जाता है जिसमें फेफड़े की क्षमता का आकलन किया जाता है। कितनी फ्लो में आक्सीजन इन्हेल हो रहा है। इसमें लंबे समय तक उपचार की आवश्यकता पड़ती है। अधिकांश रोगी जब दवा के सेवन से बेहतर महसूस करने लगते हैं, तब वे कुछ सप्ताह के बाद ही इलाज बंद कर देते हैं। इससे रोग की दोबारा होने का खतरा बढ़ जाता है और रोगी अस्थमा के अटैक से ग्रस्त हो सकता है। विश्व अस्थमा दिवस पर उन्होंने कहा कि अस्थमा से से ग्रस्त लोगों में 10 से 12 फीसदी बच्चे होते हैं। बच्चे में इनहेलेशन थेरेपी की शुरुआत जल्द से जल्द करनी चाहिए। इससे बीमारी को नियंत्रित करने और उसे अटैक से बचाने और फेफड़ों को सुरक्षित रखने में मदद मिलती है।ज्यादातर लोग बार-बार होनी वाली कफिंग, सांस लेने में तकलीफ, छींक आने जैसे लक्ष्णों का उपचार कफ दवाइयों या बिना डॉक्टर की सलाह के दवा लेकर करते हैं। 

80 फीसदी अस्थमा के मरीज गोली पर रहते हैं निर्भर

अस्थमा और इनहेलर्स को लेकर डर भी व्याप्त है। वहीं, डॉक्टर भी ऐसे समय में अस्थमा के लिए 'ब्रोंकियल स्पाज्म' और 'व्हीजिंग कफ' आदि वैकल्पिक नामों का इस्तेमाल करते हैं।उन्होंने कहा कि अस्थमा और इनहेलर्स को लेकर व्याप्त मिथकों के कारण भारत में लगभग 80 प्रतिशत अस्थमा रोगी ओरल टैब्लेट पर निर्भर हैं, जबकि इनहेलर ही सटीक और सुरक्षित इलाज है। 

अस्थमा होने के कारण:
धूल, सर्दी-जुकाम, परागकण, पालतू जानवरों के बाल, विषाणु और वायु प्रदूषक साथ ही भवानात्मक आवेश भी दमा के आघात का कारण बन जाता है। जब एक व्यक्ति इसके संक्रमण से ग्रस्त हो जाता है। तब सूजे हुए वायुछिद्र विचलित हो उठते हैं, जिससे वहां की मांसपेशियों में जकड़न उत्पन्न हो जाती है। इससे फेफड़ों की नलिकाएं अपना कार्य स्वाभाविक रूप से नहीं कर पाती हैं और व्यक्ति को सामान्य तरीके से सांस लेने में दिक्कत होने लगती है। यह स्थिति कभी-कभी घातक भी हो जाती है।

अस्थमा के सामान्य लक्षण:
सीने में बार-बार जकड़न, सांस लेने में परेशानी, कफ का लगातार आना। हालांकि दमा के लक्षण अलग-अलग लोगों में अलग-अलग प्रकार के होते हैं और बेहद जरूरी है कि इनकी निगरानी उचित चिकित्सक द्वारा की जाए। आज दुनियाभर में दमा क उपचार का सबसे सुरक्षित तरीका इनहेलेशन थेरेपी को माना जाता है, क्योंकि यह सीधे रोगी के फेफड़ों में पहुंचकर अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर देता है। टैबलेट और सीरप पेट में जाने के बाद रक्त के माध्यम से फेफड़ों में पहुंचता है। इसके अनेक साइड इफेक्ट भी हो सकते हैं। वहीं, इनहेलेशन थेरेपी टैबलेट्स और सीरप की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावी है।

 प्री मेच्योर बेबी में अधिक अाशंका
  


के फेफड़े को मेच्योर बनाने के लिए गर्भवती को दी जाने वाली स्टेरॉयड दवाएं हैं।  अस्थमा (दमा) अनुवांशिक बीमारी है। साथ ही यह बचपन से ही उभरती है। ऐसे में हमें जेनेटिक रिस्क फैक्टर को कम करने पर फोकस करना पड़ेगा। उन्होंने बताया कि वर्तमान में महिलाओं में पेन लेस डिलीवरी का चलन बढ़ा है। खासकर, निजी अस्पताल 60 फीसद तक डिलीवरी सिजेरियन कर रहे हैं। ऐसे में गर्भवती को स्टेरॉयड का डोज देकर प्री-मेच्योर बेबी का फेफड़ा मेच्योर किया जाता है। कारण, बच्चे के जन्म वक्त उसका फेफड़ा ही पहले एक्टिव होता है। ऐसे में गर्भ के दौरान दी जाने वाली स्टेरॉयड की डोज बच्चों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं। हाल में हुई स्टडी में पाया गया कि सिजेरियन डिलीवरी से होने वाले बच्चों में अस्थमा का प्रकोप अधिक पाया गया है। ऐसे में महिलाओं को नॉर्मल व फुल टर्म डिलीवरी पर फोकस करना होगा। वहीं चिकित्सक इमरजेंसी पड़ने पर ही सिजेरियन का विकल्प चुनें।

सांस लेने में हर परेशानी अस्थमा नहीं

 सांस की हर तकलीफ दमा नहीं होती है। ऐसे में डॉक्टरों को डायग्नोसिस पर फोकस करना होगा। बेवजह मरीजों पर एंटीबायोटिक व स्टेरॉयड का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। देखने में आया कि सीओपीडी, इंटस्टीसियल लंग डिजीज को कई चिकित्सक अस्थमा समझकर दवाएं चला देते हैं।


बरतें सावधानी
-घर में धूल व नमी न रहने दें।
-बारिश में भीगने से बचें।
-ठंड से बचाव करें। 
-धूल, धुआं आदि से एलर्जी के बचाव के लिए मुंह पर मास्क या रूमाल लगा लें।
-खान-पान पर नियंत्रण रखें। खाना धीरे-धीरे चबाकर खाएं।
-गरम मसाला, लाल मिर्च, अचार, चाय, कॉफी आदि का सेवन सीमित मात्र में करें।
-प्राणायाम नियमित करें।
-अटैक पड़ने पर डॉक्टर द्वारा बताई गई दवाओं का सेवन करें। सीधे बैठ जाएं, लेटे नहीं। कपड़ों को ढीला कर लें। शांत रहने का प्रयास करें।