शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

अब ट्यूमर पर कौन सी टारगेट थेरेपी होगी कारगर पहले लगेगा पता

 




अब  ट्यूमर पर कौन सी टारगेट थेरेपी होगी कारगर पहले लगेगा पता   

कैंसर विहीन पिट्यूरी ग्लैंड का ट्यूमर बार-बार करता है परेशान


अब पिट्यूटरी ग्लैंड के ट्यूमर से बार-बार सामना नहीं करना पड़ेगा। हिस्टोपैथोलाजिस्ट ट्यूमर की जांच कर पहले ही बता देंगे कि कौन सी टारगेट थिरेपी किस मरीज पर कारगर होगी। संजय गांधी स्नातकोत्तर आर्यविज्ञान संस्थान के हिस्टोपैथोलाजिस्ट सुपर सब स्पेशिएल्टी विभाग द्वारा डायगनोस्टिक अपडेट ऐंड मालीक्यूलर एडवांस इन इंडोक्राइन आर्गन विषय़ पर आयोजित सेमीनार में चंडीगढ़ पीजीआई के पैथोजाली विभाग के प्रमुख प्रो. बिशन रडोत्रा ने बताया कि ब्रेन ट्यूमर का ट्यूमर का 10 फीसदी ट्यूमर पिट्यूटरी ग्लैंड का होता है। इसमें केवल एक से दो फीसदी ही कैंसर युक्त ट्यूमर होते है। बिना कैंसर वाले ट्यूमर के निकालने के बाद भी बार-बार ट्यूमर बढ़ता रहता है जिसके कारण कारण मरीज को ऑपरेशन कराना पड़ता है। कैंसर विहीन ट्यूमर बार-बार न हो इसके लिए टारगेट थिरेपी दी जाती है जो मोनोक्लोनल एंटी बाडी होती है। यह थेरेपी किसमें कितनी कारगर होगी यह जानने के लिए हम लोगों ने ट्यूमर में ट्रांसक्रिप्शन फैक्टर देख कर बता देते है कि कौन की दवा कारगर होगी। ट्रांसक्रिप्शन फैक्टर देखने के इम्यूनो हिस्टोकमेस्ट्री तकनीक ही इस्तेमाल की जाती है। इसमें सेल के रिसेप्टर को देखते है।

20 फीसदी लोगों में दोबारा नहीं हुआ ट्यूमर

 

प्रो. रडोत्रा ने बताया कि हम लोगों ने इस तकनीक से पहले से दवा के प्रभाव का पता लगा कर न्यूरो सर्जन को बताया तो देखा कि 20 से 25 फीसदी लोगों में दोबारा ट्यूमर नहीं हुआ । 30 से 50 फीसदी में दोबारा ट्यूमर होने का समय बढ़ गया।  

 

 

अब मॉलिक्यूलर जांच से छिपे थायराइड कैंसर का लगेगा पता

 

संजय गांधी पीजीआई के हिस्टो पैथोलाजिस्ट प्रो. मनोज जैन ने बताया कि फाइन निडिल एस्पिरेशन तकनीक से थायराइड कैंसर का पता लगाते है लेकिन देखा गया है कि 30 से 40 फीसदी मामले में ऐसे कैंसर का पता नहीं लग पाता है। मॉलिक्यूलर परीक्षण के जरिए ऐसे छिपे कैंसर का भी पता लगना संभव हो गया है। हम लोग ग्रंथि से डीएनए अलग कर उसका पीसीआर तकनीक से जीन देखते है। अलग -अलग कैंसर में अलग जगह पर  जीन में म्यूटेशन होता है जिसे देख कर कैंसर के प्रकार और कैंसर का पता लगाते हैं।

इंसुलिन प्रतिरोध ग्रस्त महिला भी अब बन सकती है मां -इंसुलिन प्रतिरोध नहीं भरने दे रहा है गोद

 


 जागरण विशेष

इंसुलिन प्रतिरोध ग्रस्त महिला भी अब बन सकती है मां  

 

 -इंसुलिन प्रतिरोध नहीं भरने दे रहा है गोद

 

-20.5 फीसदी इंसुलिन प्रतिरोध के कारण नहीं कर पा रही है गर्भधारण

-    क्लोमिफेन साइट्रेट साबित हो रहा है मददगार

 

कुमार संजय। लखनऊ

हर महिला मां बनना चाहती है । मां न बन पाने की पीछे 20.5 फीसदी  इंसुलिन प्रतिरोध कारण साबित हो रहा है। इनके मां बनने में खास रसायन क्लोमिफेन साइट्रेट मदद कर सकता है। इन महिलाओं ओव्यूलेशन इंडक्शन की प्रक्रिया में मोनोफोलिकुलर( एक फालीक्यूल)  की आशंका रहती है। इन महिलाओं में सामान्य महिलाओं की  तुलना में गर्भ धारण करने की संभावना कम होती है। इंसुलिन प्रतिरोध का सीधा संबंध मोटापे से है। विशेषज्ञों ने देखा है कि इन महिलाओं में क्लोमिफेन साइट्रेट के जरिए फालीक्यूल की संख्या बढ़ाने के बाद इंट्रा यूट्राइन इंसीमेशन तकनीक से  गर्भधारण कराने पर  सफलता मिल सकती है। यह  रसायन खास हार्मोन की मात्रा में वृद्धि करता है जो परिपक्व अंडे (ओव्यूलेशन) के विकास और रिलीज में मदद करता है।  इस नुस्खे से   6 फीसदी महिलाएं गर्भधारण करने में सफल रही है।

 विशेषज्ञों ने 120 उन महिलाओं पर शोध किया जो चार साल से मां बनने के लिए हर संभव कोशिश कर रही थी लेकिन एक बार भी गर्भवती नहीं हो पायी। शोध में देखा गया इनमें 20.5 फीसदी में इंसुलिन प्रतिरोध की समस्या थी।

 

क्या है इंसुलिन प्रतिरोध

 

हाइपरिन्सुलिनमिया इंसुलिन प्रतिरोध के कारण होता है। इसमें रक्त में इंसुलिन की मात्रा बढ़ जाती है।  एक ऐसी स्थिति जिसमें  शरीर इंसुलिन के प्रभावों के लिए अच्छी तरह से प्रतिक्रिया नहीं करता है। अग्न्याशय अधिक इंसुलिन बनाकर क्षतिपूर्ति करने की कोशिश करता है। यह तब होता है जब पैंक्रियाज रक्त शर्करा को सामान्य रखने के लिए  बड़ी मात्रा में इंसुलिन को स्रावित करके क्षतिपूर्ति करने में सक्षम नहीं होता है।

 

क्या है फालीक्यूल

 

हर महीने एक न एक ओवरी में से एक एग रिलीज होता है, जो कि फैलोपियन ट्यूब में मौजूद स्‍पर्म के साथ मिलकर फर्टिलाइज हो जाता है और महिला गर्भधारण कर लेती है। एग का साइज बहुत छोटा होता  है। पानी से भरी जिस थैली में एग होता है, उस थैली को फॉलिकल कहा जाता है।  हर महीने पीरियड के बाद छोटे-छोटे फॉलिकल बनने शुरू हो जाते हैं लेकिन कुछ समय के बाद एक या दो ही फॉलिकल ऐसे होते हैं जिनका साइज बढ़ जाता है उन्हें डोमिनेंट फॉलिकल कहा जाता है।

 

इन्होंने किया शोध

 

किंग जार्ज मेडिकल विवि के प्रसूती एवं स्त्री रोग विभाग की डा. रुचि कर्नाटक, डा. अंजू अग्रवाल, डा.  मोना आसनानी, डा.  रेनू सिंह ने द इफेक्ट आफ इंसुलिन रजिसटेंस आन ओव्ल्यूशन इंडक्शन विथ क्लोमीफेन साइट्रेस इन नान पीसीओसी वोमेन विषय़ पर शोध किया जिसे इंटरनेशनल मेडिकल जर्नल क्यूरस ने स्वीकार किया है।  

 वर्जन

 इंसुलिन प्रतिरोध मोटापे, पीसीओएस और टाइप 2

 मधुमेह से जुड़ा हुआ है। प्रतिरोध 

ओव्यूलेशन की विफलता  और अंडों की

 

देरी से परिपक्वता का कारण बनता है जिससे 

बांझपन 

होता है

 

। इंसुलिन प्रतिरोध के कारण लगभग 40-50 प्रतिशत 


महिलाएं गर्भ धारण में असमर्थ होती हैं

 

 

 

प्रो इंदु लता साहू एम आर एच विभाग संजय गांधी

 पीजीआई


बुधवार, 14 सितंबर 2022

पीजीआई में हुई देश की पहली खाने की नली में कैंसर की विशेष तकनीक से सर्जरी

 


पीजीआई में हुई देश की पहली खाने की नली में कैंसर की  विशेष तकनीक से सर्जरी

दो बार जिंदगी पर मंडराया खतरा लेकिन मौत मुंह से खीच लाए पीजीआई विशेषज्ञों के हाथ


नई खाने की नली में निष्क्रिय रहने वाली रक्त वाहिका से सुनिश्चित किया रक्त प्रवाह  

पैक्रिएटाइटिस के सर्जरी के 10 साल बाद खाने की नली में हुआ कैंसर  

सर्जरी का दिया नाम थोरेको लेप्रोस्कोपिक मैकियान प्रोसीजर विथ अनयूजुअल आर्टरी  


 

तीस वर्षीय शाहजहांपुर निवासी  वर्षीय साजिद का पैंक्रियाज ने पहले धोखा दिया । बडी सर्जरी हुई जिंदगी बची। दस साल बाद खाने का कौर निगलना मुश्किल हो गया। भाग कर संजय गांधी पीजीआई आए तो पता चला कि खाने की नली में कैंसर हो गया है। लगा कि अब तो जिंदगी का अंत हो गया लेकिन संस्थान के गैस्ट्रो सर्जरी विभाग के विशेषज्ञों देश में पहली बार खास तकनीक का इस्तेमाल कर  एक बार फिर सर्जरी करने का फैसला लिया। सर्जरी सफल रही है । इस सर्जरी को थोरेको लेप्रोस्कोपिक मैकियान प्रोसीजर विथ अनयूजुअल आर्टरी  नाम दिया है। इस तरह की सर्जरी फिलहाल देश में रिपोर्ट नहीं है। इस सर्जरी को विशेषज्ञ जर्नल के जरिए दुनिया के सामने रखेंगे। साजिद खाना खाने लगे है। विशेषज्ञों ने बताया कि यह जटिल सर्जरी थी क्योंकि पहले क्रॉनिक पैंक्रिएटाइटिस के इलाज के लिए इनकी सर्जरी की गयी जिसमें पैंक्रियाज की  नली को छोटी आंत से जोडा गया। इस दौरान आमाशय को रक्त देने वाली  नली को निष्क्रिय कर दिया गया था। अब दूसरी सर्जरी  खाने की नली में कैंसर का इलाज बड़ी चुनौती थी । सबसे पहले हम लोगों ने कीमोथेरेपी के जरिए खाने में नली में स्थिति गांठ को छोटा किया। खाने की नली को हटाया। नई खाने की नली को बनाने के लिए आमाशय को खींच कर नली के रूप में बनाया। नई नली को गले में जोडा।

 

 

 

निष्क्रिय आर्टरी के जरिए नई खाने की नली को मिला रक्त

 

सबसे बड़ी समस्या थी कि नई बनी खाने की नली में रक्त प्रवाह कैसे सुनिश्चित किया जाए क्योंकि बिना रक्त प्रवाह के नली काम नहीं करेंगी।देखा कि आमाशय में एक नली होती है जो निष्क्रिय रहती है इसे राइट गैस्ट्रिक आर्टरी कहते है बहुत पतली होती है। इससे रक्त प्रवाह की स्थिति जानने के लिए डाई डाल कर ट्रेस किया गया। देखा गया कि रक्त प्रवाह हो रहा है। इस आर्टरी से रक्त प्रवाह सुनिश्चित नई खाने में नली में किया गया।

 

इन्होने किया सर्जरी

मुख्य सर्जन प्रो. अशोक कुमार( द्वितीय) , सहायक प्रो.  नलिनीकांत , डा. रवींद्र, डा. साई कृष्णा, मुख्य एनेस्थीसिया विशेषज्ञ प्रो. संजय क्यूबा , डा. प्रज्ञा, डा. प्रतिभा, नर्सिंग आफीसर सुशीला, स्वीटी, नित्या, संतोष और अनिता